कुछ लोग ऐसे होते हैं जो तब तक चतुराई बरतते हैं जब तक कि प्रशासन या संबंधित व्यक्ति उस चतुराई को समझ नहीं लेता और उनसे सही काम करने को नहीं कहता। बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
विगत दिनों मैं दिल्ली से मुंबई जाने के लिए विमान पर सवार हुआ तो मुझे अहसास हुआ कि मैं पहली पंक्ति में बैठा हूं, इसलिए अपने लैपटॉप बैग को अपने आगे वाले व्यक्ति की सीट के नीचे नहीं रख सकता। मैंने अपने सर के ऊपर बना लगेज कंपार्टमेंट खोला और बैग को वहां रखकर अपनी सीट पर बैठ गया। इस बीच मेरे सहयात्री अंदर आते रहे।
जब भी मैं विमान यात्रा करता हूं तो मेरा मनोरंजन करने का एक तरीका यह भी है कि मैं विभिन्न प्रकार के यात्रियों को विमान में सवार होते देखता हूं। मैं किनारे वाली सीट पर था और अचानक एक किशोरवय की लड़की मुझे नजर आई जिसने सलवार कमीज पहन रखी थी। वह मेरे बगल में खड़ी हो गई ताकि मैं विमान के गलियारे में निकलूं और वह मेरी बांई बगल वाली सीट पर बैठ सके। मैं मुस्कराकर खड़ा हुआ, वह अंदर आकर मेरे बाजू वाली सीट पर बैठी और अपने कैरी बैग को अपने सामने फर्श पर रख दिया।
मैंने उससे कहा, ‘विमान परिचारिका जल्दी ही आएगी और आपसे कहेगी कि आप अपना बैग ऊपर बनी जगह पर रखें, …क्या आप चाहती हैं कि मैं इस काम में आपकी मदद करूं?’
‘मदद की पेशकश के लिए शुक्रिया अंकल, मैं अपने बैग को अपने सामने जमीन पर ही रखना पसंद करती हूं।’ अक्सर जब मैं युवाओं के साथ संवाद कर रहा होता हूं तो मुझे अंकल शब्द अक्सर सुनाई देता है। ऐसा शायद मेरे पके बालों की वजह से है।
उस किशोरी ने मेरे चेहरे पर उग आए सवाल को पढ़ लिया और कहा, ‘मैं कोशिश करती हूं अगर परिचारिका ने आकर मुझे बैग ऊपर रखने को कहा तो मैं रख दूंगी।’ मैं मुस्कराया और उड़ान में मिली पत्रिका को खोलकर पढ़ने में डूब गया।
अब तक विमान के सभी यात्री बैठ चुके थे और विमान परिचारिका यहां-वहां आती जाती यात्रियों को सीट बेल्ट आदि बांधने की सलाह दे रही थीं।
जब मैंने नजर उठाकर देखा तो परिचारिका उस लड़की को देख रही थी और उसने कहा, ‘आपको अपना बैग ऊपर बने बैगेज कंपार्टमेंट में रखना होगा।’
युवती ने खामोशी से अपना बैग परिचारिका को सौंप दिया जिसने उसे सही जगह रख दिया। मैं उस युवती की ओर देखकर मुस्कराया और किसी तरह खुद को यह कहने से रोका, ‘मैंने आपसे कहा ही था।’ मैं बैठकर सोचने लगा कि आखिर इस युवती ने अपना बैग विमान में सही जगह रखने के बजाय ऐसी गुंजाइश निकालने की कोशिश की ही क्यों?’
अचानक मेरे मन में एक पुस्तक के विचार घर करने लगे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर माइकर सैंडेल की यह पुस्तक ‘द टिरनी ऑफ मेरिट’ यह पुस्तक मैंने हाल ही में पढ़ी थी।
पुस्तक का उपशीर्षक यह संकेत करता है कि यह उन तमाम चीजों पर केंद्रित है जिन्हें हम आजकल हल्के में लेते हैं। उदाहरण के लिए वह इस मान्यता पर सवाल करते हैं कि अमेरिका के आईवी लीग कॉलेज अपने दाखिले में केवल आवेदकों की मेरिट यानी श्रेष्ठता का ध्यान रखते हैं।
लेखक इस बात का उल्लेख करता है कि इन आईवी लीग कॉलेजों के दो तिहाई छात्र अमेरिका के शीर्ष 20 फीसदी आय अर्जित करने वाले परिवारों से आते हैं। उदाहरण के लिए वह कहते हैं कि प्रिंसटन और येल में ज्यादातर विद्यार्थी शीर्ष एक फीसदी आय वाले परिवारों से आते हैं, बजाय कि निचले क्रम की 60 फीसदी आय वाले दायरे के।
वह पूछते हैं कि अगर ऐसा है तो फिर ‘मेरिटोक्रेसी’ यानी बुद्धिशालियों के शासन से हमारा तात्पर्य क्या है। वह यह भी कहते हैं कि हमने इसे हल्के में लेना आरंभ कर दिया है। किसी आईवी लीग कॉलेज से मिली डिग्री छात्रों को जो श्रेय प्रदान कर सकती है उसे अब ‘क्रिडेंशियलिज्म’ यानी श्रेयवाद कहा जाने लगा है और लेखक कहता है कि श्रेयवाद अंतिम स्वीकार्य पूर्वग्रह बन गया है।
इसी दौरान मेरे दिलोदिमाग में उस ‘श्रेयवाद’ की याद आई जिसका व्यवहार हम भारतीय (माफ कीजिएगा मुझ समेत) करते हैं।
जब हम आईआईटी, आईआईएम, एम्स तथा अन्य सरकार द्वारा स्थापित तथा सरकारी वित्तीय सहायता वाले विश्वविद्यालयों के बारे में सोचते हैं तो हम उन्हें देश के श्रेष्ठता आधारित लोकतंत्र के सहारे के रूप में देखते हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इन संस्थानों में प्रवेश गुणवत्ता के आधार पर होता है लेकिन हम इस तथ्य को कैसे हजम करें कि इन संस्थानों में आने वाले अधिकांश छात्रों ने दो से तीन साल या इससे अधिक की कोचिंग की होती है जिसका शुल्क ही सालाना एक से दो लाख रुपये आता है।
प्रिय पाठकों अगर आपको आश्चर्य हो रहा है तो मैं आपको बताता हूं कि मेरा दिमाग विमान में मेरी सहयात्री द्वारा कहे जाने के बाद अपने सामान को उचित जगह पर रखने तथा अमेरिकी और भारतीय विश्वविद्यालयों में मेरिट सिस्टम के आधार पर छात्र-छात्राओं की भर्ती को लेकर क्या संबंध कायम कर रहा है। जाहिर है इस मेरिट यानी योग्यता के बावजूद वही लोग दाखिला पाते हैं जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी होती है।
दरअसल दोनों उदाहरण बताते हैं कि आज की दुनिया में आगे बढ़ने के लिए केवल मेरिट से काम नहीं चलता क्योंकि हममें से अधिकांश लोग न केवल सही काम करना चुनते हैं बल्कि अक्सर हम समझदारी से काम करना चुनते हैं। समझदार या स्मार्ट वो लोग होते हैं जो तब तक अपनी सुविधा से काम करते हैं जब तक किसी व्यवस्था बनाने वाले की नजर न पड़ जाए और वह उन्हें उक्त काम को सही ढंग से करने को न कहे। ठीक वैसे ही जैसे विमान परिचारिका ने उस किशोरी से कहा।
मुझे ऐसे लोगों के बारे में जानकारी है जो कर के चलते अपनी पूरी आय का खुलासा नहीं करते और जब उनसे पूछा जाता है कि ऐसा क्यों तो वे कहते हैं, ‘आयकर की मदद से हमारी सरकार आईएएस, आईआरएस, आईएफस अधिकारियों को भारी भरकम वेतन देती है। मैं उसमें योगदान क्यों करूं?’ जाहिर सी बात है इन लोगों ने अपने दिमाग में ‘सही’ और ‘चतुराई’ भरे कदम के बीच भेद कर लिया है और वे चतुराई बरतने को तरजीह देते हैं।
वे इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि प्रशासन इस बात को चिह्नित करें और तब वे उसके कहने पर पूरा कर चुकाते हैं। प्रिय पाठकों, इस विषय पर आपका क्या कहना है? जीवन में क्या करना बेहतर ? चतुराई या सही काम?
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)