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  लेख  लद्दाख क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता
लेख

लद्दाख क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 29, 2020 12:31 AM IST
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चीन आज भी 19वीं सदी के सीमा विस्तार की भावना को आगे बढ़ा रहा है। उसकी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रधानता ने भी शायद शी चिनफिंग के नेतृत्व वाले कुलीन तंत्र को रास्ता दे दिया है। चीन ने जनवरी 2020 में ही देश में बाहरी उड़ानों के आने जाने की इजाजत दे दी थी जबकि उस वक्त वुहान तथा शेष चीन के बीच घरेलू यात्रा पर रोक लागू थी। चीन को कोविड-19 वायरस के उत्पन्न होने और शेष विश्व में उसके प्रसार को लेकर तमाम सवालों के जवाब देने होंगे।
जहां तक चीन और भारत के रिश्तों की बात है तो सन 1993 का शांति समझौता, सन 2003 से विशेष प्रतिनिधियों के बीच चर्चा और सन 2012 में स्थापित मशविरा और समन्वय कार्यप्रणाली भी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति स्थापना में मददगार नहीं हो सके हैं।
चीन अप्रैल 2020 से भारतीय भूभाग में अतिक्रमण कर रहा है और 15 जून को गलवान में 20 भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह शायद चिनफिंग का 1962 की शैली में चीन का रसूख दिखाने का तरीका है। गत 13 अक्टूबर को शी चिनफिंग ने चाऊझाऊ में मरीन कोर की यात्रा की और वहां चीन के जवानों से कहा कि वे अपना सारा दिमाग और सारी ऊर्जा युद्ध की तैयारी में लगा दें। चीन बार-बार यह दोहराता रहा है कि केवल अक्साई चिन ही नहीं बल्कि पूरा अरुणाचल प्रदेश उसका हिस्सा है।
चीन एलएसी के भारतीय हिस्से में सड़क, पुल और हवाई अड्डा बनाए जाने का निरंतर विरोध करता रहा है। भारत को भला इस बात का और क्या सबूत चाहिए कि चीन भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता के लिए खतरा है।
भारत ने जब बेल्ट और रोड पहल (बीआरआई) से बाहर रहने का निर्णय लिया तो शी चिनफिंग का आहत होना लाजिमी था क्योंकि कई यूरोपीय देशों ने भी ऐसा ही किया। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) के सदस्य के रूप में चीन ने अंतिम समय तक भारत और अमेरिका के बीच 2008 में हुए 123 असैन्य परमाणु समझौते का विरोध किया। भारत जब चीन से बार-बार आग्रह कर रहा था कि वह एनएसजी के उसके प्रवेश को स्वीकार कर ले तब वह हकीकत से कोसों दूर था।
सन 1991 के बाद चीन की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़ी। दोनों देशों के बीच आर्थिक और तकनीकी अंतर को देखते हुए भारत को चीन के साथ सीमा समझौते पर बहुत पहले जोर देना चाहिए था। उसे 1990 के दशक के अंत तक यह मसला निपटा लेना चाहिए था। एक दशक बाद सन 2010 में भारत को चीन का ध्यान सीमा समझौते की ओर आकृष्ट करने के लिए उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के देशों के साथ करीबी सहयोग का संकेत देना पड़ रहा था। अभी भी भारत को दोनों देशों के बीच सीमा के स्पष्ट रेखांकन पर जोर देना चाहिए और चीन के हीलहवाला करने पर सैन्य पहल करने की तैयारी रखनी चाहिए। उसे उइगुर मुस्लिमों के दमन पर खेद जताते हुए तिब्बत की स्वायत्तता की बात भी उठानी चाहिए।
सन 2008 से 2011 के बीच मैंने यूरोपीय संघ और बेल्जियम में भारतीय राजदूत के रूप में काम किया। इस दौरान मेरा साबका नाटो से भी पड़ा। सन 2010 में नाटो के महासचिव से बातचीत के बाद मैंने भारत सरकार और नाटो में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन तथा जर्मनी के राजदूतों के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि वे सुरक्षा मसलों की एक संगोष्ठी में भाग लेने दिल्ली जाएं। उनके साथ नाटो के वरिष्ठ अधिकारियों और नाटो में रूसी राजदूत को भी जाना था। मेरा प्रस्ताव दिल्ली स्थित रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) की मेजबानी वाली संगोष्ठी के लिए था जिसका वित्त पोषण रक्षा मंत्रालय करता है। आईडीएसए के तत्कालीन निदेशक ने मुझे बताया कि रक्षा मंत्रालय ऐसे आयोजन को लेकर सहज नहीं है और वह संगोष्ठी नहीं हुई। अप्रैल 2014 में क्रीमिया पर रूस के कब्जे के बाद नाटो ने उससे रिश्ते समाप्त कर लिए।
रूस, भारत के लिए रक्षा उपकरणों का एक पुराना और विश्वसनीय जरिया रहा है। हालांकि बीते 15 वर्ष में रूस पर हमारी निर्भरता अपेक्षाकृत कम हुई है। इस बीच हमने फ्रांस से लड़ाकू विमान खरीदे और अमेरिका से परिवहन एवं मालवाहक विमान, लड़ाकू हेलीकॉप्टर और हल्की तोपें। प्रभावशाली अमेरिकी सीनेटरों ने भारत को प्रमुख गैर नाटो सहयोगी बताते हुए अमेरिकी विधानों में संशोधन किए। उस समय अमेरिका में भारत द्वारा रूसी एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदने पर भी चिंता जताई गई। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका के अविश्वसनीय रुख के कारण भारत सहयोगी शब्द को लेकर काफी सचेत रहता है।
दुनिया भर के देशों की व्यापार, निवेश और आपूर्ति शृंखला को लेकर चीन पर काफी परस्पर निर्भरता है। भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध की स्थिति में यह बात असर डालेगी। उदाहरण के लिए सन 2019 में अमेरिका ने चीन को 107 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात किया जबकि उसने उससे 453 अरब डॉलर मूल्य का आयात किया। चीन के साथ यूरोपीय संघ के देशों का व्यापार संतुलन भी खराब है। 2019 में उन्होंने उसे 198 अरब डॉलर का निर्यात किया जबकि उनका आयात 362 अरब डॉलर का रहा। चीन, जापान का भी बड़ा कारोबारी साझेदार है और 2019 में जापान ने चीन से 170 अरब डॉलर मूल्य का आयात किया जबकि उसका निर्यात 144 अरब डॉलर का रहा। सन 2019 में अमेरिका को जापान का निर्यात 141 अरब डॉलर था जो चीन के निर्यात से कम है। ऑस्ट्रेलिया से कच्चे माल और खनिज का अधिकांश निर्यात चीन को होता है। यूरोपीय संघ के देशों के साथ चीन की नीति संकट के समय कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों को चुनने की रही है। 2016 में उसने ग्रीस के पिराएस बंदरगाह में नियंत्रण हिस्सेदारी खरीदी। सन 2008 से 2019 के बीच उसने यूरोपीय संघ के देशों में 300 अरब डॉलर का निवेश किया। इसमें जर्मनी की रोबोटिक निर्माता कंपनी कूका में हिस्सेदारी शामिल है।
यदि लद्दाख सीमा पर बातचीत से तनाव कम करने में मदद मिलती है तो यह सुखद होगा। परंतु आशंका है कि चीन भारतीय सीमा में बना रहे और क्षेत्र में भारत के बुनियादी विकास का विरोध करता रहे। हकीकत यही है कि भारत को अपनी रक्षा जरूरतों के लिए पश्चिम से सहयोग बढ़ाना होगा। रूस की संवेदनशीलता को भी ध्यान में रखना होगा लेकिन रूस भी अपने सुदूर पूर्व इलाकों को देखते हुए चीन से आशंकित है। संक्षेप में भारतीय सैन्य क्षमता तभी प्रभावी होगी जब चीन का अभिमान तोड़ा जाएगा।
(लेखक पूर्व भारतीय राजदूत और विश्व बैंक के फाइनैंस प्रोफेशनल हैं)

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