कुछ दिन पहले एक खबर आई थी कि स्वीडन में दुर्लभ मृदा तत्त्वों का विशाल भंडार मिला है। इस खबर के बाद इन तत्त्वों के मामले में आत्मनिर्भर बनने के विचारों का ज्वार तेजी से उठने लगा है। दुर्लभ मृदा धातुओं की एक विशेष श्रेणी होती है। बिजली से चलने वाले वाहन, मोबाइल फोन और अन्य दूसरे उपभोक्ता उत्पाद बनाने में दुर्लभ मृदा धातुओं के ऑक्साइड का छोटी लेकिन महत्त्वपूर्ण मात्रा में इस्तेमाल होता है।
पवन चक्की एवं सौर ऊर्जा उपकरण बनाने में भी इनका इस्तेमाल होता है। इस तरह अक्षय ऊर्जा दुर्लभ मृदा धातुओं पर निर्भर है। अगर अक्षय ऊर्जा और इलेक्ट्रॉनिक डिजाइन में कोई अति महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं आए तो दुर्लभ मृदा धातुओं की मांग बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि पूरी दुनिया में ऊर्जा के स्रोत के रूप में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लगातार प्रयास हो रहे हैं।
दुनिया में खनन एवं दुर्लभ मृदा ऑक्साइड के उत्पादन में चीन की तूती बोलती है। चीन में दुर्लभ मृदा ऑक्साइड का 4.4 करोड़ टन का अनुमानित (2021 ) भंडार है। यानी दुनिया में इन धातुओं का जितना भंडार उपलब्ध है उसका एक तिहाई हिस्सा चीन में है। वहां सालाना 168,000 टन दुर्लभ मृदा ऑक्साइड का उत्पादन होता है जो कुल वैश्विक उत्पादन का 60 प्रतिशत है। अमेरिका की बाजार हिस्सेदारी 15-16 प्रतिशत है जबकि म्यांमार की हिस्सेदारी (चीन की मदद से) करीब 9.5 प्रतिशत है।
भारत की हिस्सेदारी महज 1 प्रतिशत है। सभी दृष्टिकोण से चीन में खनन एवं परिष्करण में कार्बन पर अधिक जोर रहता है और इस वजह से वहां पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचने की खबर आई है। मगर कोई भी इस बिंदु पर सूक्ष्मता से विचार करना नहीं चाहता है क्योंकि वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था में दुर्लभ मृदा तत्त्वों की जगह कोई नहीं ले सकता है।
अमेरिका में दुर्लभ मृदा तत्त्वों के अतिरिक्त भंडार की खोज चल रही है। जापान में समुद्र के अंदर खनन की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। हालांकि समुद्र के अंदर दुर्लभ मृदा तत्त्वों की खोज सैद्धांतिक तौर पर संभव जरूर लगता है मगर यह बहुत खर्चीला होगा और इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच सकता है। वैश्विक ऊर्जा और इलेक्ट्रॉनिक आपूर्ति व्यवस्था के दूसरे स्वरूपों में भी चीन का दबदबा है। सोलर पैनल से लेकर पवन चक्की, इलेक्ट्रॉनिक वाहनों की बैटरी, डायनेमो, अल्टरनेटर और सेमीकंडक्टर खंड में भी चीन दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है।
हालांकि दुनिया के दूसरे देशों में भी इनमें से अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन हो सकता है। ऐसा नहीं होने की कोई वजह नहीं दिखाई दे रही है। थाईलैंड, दक्षिण कोरिया, ताइवान, जापान और अमेरिका में स्थानीय स्तर पर इन वस्तुओं की आपूर्ति होती है और भारत भी उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं की मदद से ऐसे देशों की सूची में शामिल होना चाहता है।
इनमें अधिकांश वस्तुओं के उत्पादन में खर्च सबसे बड़ी बाधा है।
अपार संभावनाओं और सक्षम नीतियों का बदौलत आपूर्ति व्यवस्था में विविधता लाई जा सकती है। मगर तब भी भारत में बनी एक चिप चीन में बनी चिप से अधिक महंगी हो सकती है लेकिन इतना तो तय है कि इनका उत्पादन हो सकता है। सरकार के समर्थन के साथ इनका पर्याप्त मात्रा में उत्पादन हो तो वैश्विक स्तर पर दूसरे देशों को टक्कर भी दी जी सकती है।
मगर देश में पर्याप्त मात्रा में दुर्लभ मृदा तत्त्व उपलब्ध नहीं होने पर चीन से इनका आयात करना होगा। मगर भू-राजनीति का पहलू जरूर इसमें आएगा। पिछली दो शताब्दियों से दुनिया में पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस एवं कोयला सहित जीवाश्म ईंधन समाप्त हो रहे हैं। ये खनिज विभिन्न स्थानों पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और दुनिया के देश अपनी जरूरत के हिसाब से आपूर्तिकर्ता बदल सकते हैं। यूक्रेन युद्ध के बाद ऐसा देखने में आया है जब देशों ने जरूरी चीजों की आपूर्ति के लिए आपूर्तिकर्ता बदल लिए हैं। रूस यूरोपीय संघ के देशों को भारी मात्रा में गैस की आपूर्ति किया करता था।
मगर यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद गैस की आपूर्ति प्रभावित हुई है और दाम भी बेतहाशा बढ़ गए हैं। ऐसे में यूरोपीय संघ के देश दूसरे आपूर्तिकर्ताओं से गैस खरीद रहे हैं। ऐतिहासिक संदर्भ की बात करें तो इजरायल के पश्चिम एशिया के देशों से संबंध कभी ठीक नहीं रहे हैं। इससे इजरायल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और यह अपनी जरूरत की वस्तुओं का वेनेजुएला, नाइजीरिया और अन्य देशों से आयात कर सकता है।
मगर दुर्लभ मृदा तत्त्वों के मामले में हालत उलट है। स्वीडन में दुर्लभ मृदा तत्त्वों के विशाल भंडार की खोज के बाद भी निकट भविष्य में चीन इन तत्त्वों का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता देश बना रहेगा। म्यांमार के साथ चीन के नजदीकी संबंधों की बात पर विचार करें तो दुनिया में दुर्लभ मृदा तत्त्वों के कुल बाजार के 70 प्रतिशत हिस्से पर इसका (चीन) का नियंत्रण है। अगर चीन में एक बार फिर महामारी आई या गृह युद्ध छिड़ा या सुनामी जैसी कोई प्राकृतिक आपदा आई तो दुर्लभ मृदा तत्त्वों की आपूर्ति रुक सकती है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए कैसी रणनीति अपनाई जानी चाहिए? इसमें कोई शक नहीं कि दुर्लभ मृदा तत्त्वों के लिए किसी एक देश पर निर्भरता कम की जानी चाहिए और वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं का इंतजाम होना चाहिए मगर सवाल यह कि क्या वास्तव में ऐसा संभव है?