दुनिया में चैटजीपीटी के बारे में हो रही चर्चा के बीच याद आता है कि ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। उन घटनाओं और उनके परिणामों के बारे में बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
चैटजीपीटी जैसे कृत्रिम मेधा आधारित उपायों के बारे में होने वाली तीखी बहसों को पढ़, देख और सुनकर मैं चिंतित हो जाता हूं लेकिन उन वजहों से नहीं जो आप सोच रहे होंगे। मैं इसलिए चिंतित हो जाता हूं कि मेरा देश यानी भारत हर उस मौके पर सामाजिक उथलपुथल का शिकार हो जाता है जब तकनीकी क्षेत्र में कोई बड़ी लहर आती है।
हम एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं जहां लंदन में शिक्षित एक वकील को उस समय राजनीतिक अवसर नजर आया जब बिहार के सुदूर चंपारण जिले में नील की खेती बरबाद हुई। उसने इस बरबादी के लिए तत्कालीन ब्रिटिश मालिकों द्वारा भारतीय श्रमिकों के शोषण को जिम्मेदार ठहराया जबकि हकीकत में इसकी वजह यह थी कि जर्मनी के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नील तैयार कर ली थी। यह कृत्रिम नील चंपारण में उत्पादित होने वाली वास्तविक नील की तुलना में बेहद सस्ती थी। उसके बाद की कहानी हम सब जानते हैं: वह चतुर अधिवक्ता कौन था और कैसे उसने इस अवसर का इस्तेमाल अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने में किया।
जब भी मैं इस बात की चर्चा करता हूं तो मुझसे कहा जाता है कि मैं 1917 की बात कर रहा हूं और हम तब से बहुत आगे निकल आए हैं। तब मैं कहता हूं कि दशकों तक हमारी आजादी की लड़ाई के ध्वज के बीच में चरखा हुआ करता था जो दरअसल भारत के कपास बुनकरों और हथकरघों के लिए एक प्रोत्साहन और मशीन से होने वाली कताई-बुनाई के विरोध में था। यह स्थिति तब थी जब सबको पता था कि मशीनों से उत्पादित होने वाला कपड़ा भारतीयों के लिए काफी सस्ता था। यही कारण है कि मैं इन दिनों चिंतित रहता हूं।
इन दिनों जो बात क्रांति की तरह चर्चा में है वह है चैटजीपीटी। यह कंप्यूटर विज्ञान से जुड़ी क्रांति है जो किसी भी तरह के सवालों के ऐसे उत्तर तैयार करती है जैसे उन्हें किसी इंसान ने दिया हो। इस तकनीक को एनएलपी अर्थात नैचुरल लैंगुएज प्रोसेसिंग कहा जाता है। यह उसी प्रकार का काम करती है जिस प्रकार 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रसायन विज्ञानियों ने प्राकृतिक नील के साथ किया था और कृत्रिम नील तैयार कर दी थी।
लेकिन हमें इस बात से चिंतित क्यों होना चाहिए? मुंबई में हर रोज जब मैं काम के लिए निकलता हूं तो मुझे भारतीय संस्कृति का एक और रुझान हमेशा याद आता है। ऐसा तब होता है जब मैं माहिम में शीतला देवी मंदिर के पास से गुजरता हूं।
भारत में सदियों तक स्मालपॉक्स यानी चेचक जैसी बीमारी के कारण हर साल 15 लाख लोगों तक की मौत होती रही। हम इससे बचने के लिए बस शीतला माता की पूजा करते रहे ताकि चेचक के खौफ से बच सकें। मुंबई के माहिम स्थित शीतला देवी मंदिर के अलावा उत्तर और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में ऐसे अनेक मंदिर हैं। हालांकि देश में चेचक की रोकथाम इन मंदिरों में की गई प्रार्थनाओं की बदौलत नहीं हुई बल्कि 20वीं सदी के आरंभ में मिली वैज्ञानिक सफलता की बदौलत शुरू हुए टीकाकरण ने इस बीमारी से निजात दिलाई।
बहरहाल देश में शीतला देवी के मंदिर निरंतर फल-फूल रहे हैं। हैजा, प्लेग और सैकड़ों अन्य बीमारियों के इलाज में सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों ने व्यवस्थित तरीके से इन बीमारियों की वजह का पता लगाया और इलाज तलाश किया।
नैचुरल लैंगुएज प्रोसेसिंग में भी वैसे ही प्रयोग और नवाचार हो रहे हैं। प्रयोगों का यह सिलसिला अब उत्पादन स्तर पर पहुंच गया है जिसे जीपीटी नामक तकनीकों के समूह (पूरा नाम जेनेरेटिव प्री-ट्रेन्ड ट्रांसफॉमर्स) के रूप में जाना जाता है। यहां मूल बात प्री-ट्रेन्ड अर्थात पूर्व प्रशिक्षित है। एक समांतर उदाहरण भी है: जब आपके पास वाहन चलाने का लाइसेंस हो और आप एक नए मॉडल की कार चलाने जाएं तो आप पहले से सीखे गए कौशल का इस्तेमाल करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वाहन चलाने का पहले लिया गया प्रशिक्षण आपको बताता है कि कब एक्सिलरेटर दबाना है, कब ब्रेक लगाना है और कब गियर बदलना है।
कंप्यूटर विज्ञान की दुनिया ने बीते दो-तीन सालों में अपने अलगोरिद्म को पहले से प्रशिक्षित करना सीख लिया है जिससे वह एक खास पैटर्न का अनुकरण कर लेती है और सहज बुद्धि लगाकर अंदाजा लगा लेती है कि इसके बाद कौन से शब्द आ सकते हैं। इन रुझानों को सीखने के लिए उन्होंने विकिपीडिया और इंटरनेट पर मौजूद विभिन्न सामग्री का गहराई से अध्ययन किया है।
ऐसा करके उन्होंने अपने अलगोरिद्म को इस प्रकार प्रशिक्षित किया है ताकि वे उन पैटर्न के आधार पर नई सामग्री तैयार कर सकें। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक बार कार चलाना सीख लेने के बाद नए मॉडल की कार भी आसानी से चला लेते हैं। उस स्थिति में अगर आप विदेश में भी कार चला रहे हों तो आपका मस्तिष्क उस हिसाब से सुझाव देने लगता है। जीपीटी में जेनेरेटिव शब्द यहीं से आया है। उदाहरण के लिए चैटजीपीटी, जिसे लेकर इस समय चर्चाओं का बाजार गर्म है, उसने भी इंसानी भाषा के पैटर्न इसी तरह सीखे हैं।
ऐसे जीपीटी के लाभ और उनकी लागत वैसी ही होगी जैसी कि बुनाई और कताई करने वाली मशीनों के लाभ और लागत तथा टीकों और जीन चिकित्सा की। जिस तरह बुनाई-कताई मशीनों ने कपड़ों को भारत के आम लोगों के लिए सस्ता किया और टीकों ने देश के आम लोगों को बीमारियों से निजात दिलाई उसी प्रकार जीपीटी भी शिक्षा, कानूनी सेवाओं, स्वास्थ्य सेवाओं तथा कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सेवाओं को सस्ता बनाएंगे और देश के आम लोगों के लिए मददगार साबित होंगे। लेकिन इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि शिक्षकों, अधिवक्ताओं, चिकित्सकों और कंप्यूटर प्रोग्रामर्स के लिए रोजगार और आय के अवसर सीमित हो जाएं।
इस एनएलपी क्रांति के बीच अगर हमें किसी बात को लेकर चिंतित होने की जरूरत है तो वह यह कि चैटबॉट आदि जिस प्रकार तैयार किए जाते हैं वे कई तरह के पूर्वग्रह समेटे हुए हो सकते हैं। इनमें नस्ली पूर्वग्रह हो सकते हैं। उदाहरण के लिए अपराधों का अनुमान लगाने में, भर्ती के समय लैंगिक भेदभाव करने में और भारत की बात करें तो जाति आधारित पूर्वग्रह भी हो सकते हैं। अगर इन पर नजर नहीं रखी गई तो इनसे सामाजिक स्तर पर अशांति उत्पन्न हो सकती है और ऐसे तकनीक विरोधी आंदोलन शुरू हो सकते हैं जैसे हम अतीत में देख चुके हैं।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)