महाराष्ट्र और झारखंड के विधान सभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करने वालों में इस बात को लेकर लगभग एक राय है कि चुनावी राजनीति में स्त्री शक्ति का एक पहलू नजर आया है। अब सवाल मतदाताओं को नकदी अंतरण या कल्याण योजनाओं का वादा करने का नहीं है। इनकी घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों को ऐसी योजनाओं को खासतौर पर महिलाओं पर लक्षित करने के बेहतर चुनावी नतीजे नजर आ रहे हैं।
महज कुछ माह पहले महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के पहले एकनाथ शिंदे सरकार ने अगस्त 2024 में लड़की बहिन योजना शुरू की जिसके तहत प्रदेश की एक करोड़ से अधिक महिलाओं को हर माह 1,500 रुपये नकद दिए जाते हैं। झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने अक्टूबर 2024 में मैया सम्मान योजना के तहत महिलाओं को हर माह दी जा रही 1,000 रुपये की राशि को बढ़ाकर 2,500 रुपये करने की घोषणा की। यह योजना भी अगस्त 2024 में शुरू की गई थी।
चुनावों में शामिल विपक्षी दलों ने भी वादा किया कि अगर वे चुनाव जीतते हैं तो महिलाओं के लिए ऐसी ही योजनाएं पेश करेंगे। इसमें चौंकाने वाली बात नहीं कि इन विधान सभा चुनावों में महिलाओं के मत-प्रतिशत में काफी इजाफा हुआ। चुनाव नतीजों को देखें तो यह बात स्पष्ट नजर आती है कि महिला मतदाताओं ने दोनों राज्यों में सत्ताधारी दलों के वादों पर अधिक यकीन किया। महाराष्ट्र और झारखंड में सत्ताधारी दलों ने चुनाव से पहले ही इन योजनाओं की घोषणा कर दी थी और महिला मतदाताओं को पहले ही वादे के मुताबिक अपने बैंक खाते में राशि मिलने लगी थी।
यह सही है कि भारत की चुनावी राजनीति में महिला मतदाताओं को लुभाना नया नहीं है। कई अन्य राज्यों ने खास महिलाओं के लिए कल्याण योजनाएं तैयार की हैं। हालांकि इनमें से सभी राज्यों ने चुनाव के ऐन पहले इसकी शुरुआत नहीं की। परंतु यह बात बहुत पहले समझ ली गई थी कि महिलाएं चुनावी लड़ाई में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं।
याद कीजिए कि आंध्र प्रदेश और बिहार ने शराबबंदी लागू की गई थी। ऐसे निर्णय की एक प्रमुख वजह थी शराबी पुरुषों द्वारा घर की महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को रोकना और पुरुषों को अपनी कमाई शराब पर लुटाने तथा परिवार की वित्तीय स्थिति खराब करने से रोकना। आंध्र प्रदेश ने शराबबंदी की अपनी योजना वापस ले ली लेकिन बिहार में योजना अब तक जारी है। बिहार में स्कूल जाने वाली बच्चियों को साइकिल देने की योजना शुरू की गई और पश्चिम बंगाल में विवाह के पहले पढ़ाई करने वाली बच्चियों को मौद्रिक लाभ देने की घोषणा की गई। इनका इरादा भी महिला मतदाताओं को संबोधित करना था।
हाल के वर्षों में दिल्ली सरकार ने सरकारी बसों में महिलाओं के लिए यात्रा को नि:शुल्क कर दिया है। मध्य प्रदेश ने भी लाड़ली बहना योजना पेश की जो महाराष्ट्र में इस वर्ष के आरंभ में एकनाथ शिंदे की सरकार के लिए मॉडल बनी। यह सूची और लंबी हो सकती है। परंतु मुद्दा यह है कि राज्य सरकारें अब अपने कार्यकाल में महिलाओं के हित में योजनाएं घोषित करने से आगे बढ़कर उनके लिए विशिष्ट नकदी अंतरण योजनाएं आरंभ कर रही हैं, वह भी चुनाव के ऐन पहले। महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजों ने दिखा दिया है कि यह कारगर भी होता है।
आने वाले दिनों में इसके दो नतीजे हो सकते हैं। पहला, आने वाले दो सालों में जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं वे भी महिलाओं के लिए ऐसी ही नकदी अंतरण योजनाएं बनाएंगे और चुनाव के पहले उन्हें पेश कर देंगे। विपक्षी राजनीतिक दल भी अगर सत्ता में आते हैं तो वे ऐसे ही वादे करेंगे। उनमें से कोई भी ऐसा संकेत भी नहीं देगा कि वे चुनाव के पहले शुरू हुई नकदी अंतरण योजना को समाप्त करेगा।
एक ऐसे देश में जहां प्रति व्यक्ति आय करीब 2.1 लाख रुपये सालाना यानी 2,500 डॉलर (चीन में यह 12,000 डॉलर है) है वहां ऐसी कल्याण योजना हमेशा मतदाताओं को लुभाएंगी। हां, जिन राज्यों में राजस्व जुटाने की क्षमता कमजोर है और जो ऐसी योजनाओं के लिए कर्ज लेते हैं, उन्हें राजकोषीय दिक्कतों का सामना करना होगा। अब महिलाओं पर केंद्रित योजनाओं के कारण यह चुनौती और जटिल हो गई है। एक बार नि:शुल्क योजना शुरू होने के बाद उसे बंद करना मुश्किल होता है। उसकी जगह केवल उससे भी बड़ी नि:शुल्क योजना पेश की जा सकती है। ऐसे में सरकारी बजट पर बोझ बढ़ता जाता है।
दूसरा असर केंद्र सरकार पर पड़ता है। आश्चर्य की बात है कि महिला केंद्रित कल्याण योजनाओं ने केंद्र की वित्तीय स्थिति को प्रभावित नहीं किया है। महिलाओं के लिए कई योजनाएं हैं मसलन हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए सखी सेंटर, कठिन हालात से गुजर रही महिलाओं के लिए स्वाधार गृह, कन्या शिशु अनुपात में सुधार के लिए बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ योजना और मातृत्व लाभ के लिए सशर्त नकदी अंतरण वाली मातृ वंदन योजना आदि प्रमुख हैं।
ऐसी अनेक अन्य योजनाएं हैं जो महिलाओं पर केंद्रित हैं लेकिन इन योजनाओं में बहुत कम वित्तीय आवंटन होता है। एक नजर डालते हैं केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कुल आवंटन पर जिसमें बच्चों के लिए योजनाएं शामिल हैं। 2019-20 में इस मंत्रालय ने केवल 23,165 करोड़ रुपये खर्च किए जो केंद्र सरकार के कुल व्यय का 0.9 फीसदी था। पांच साल बाद 2024-25 में इस मंत्रालय का आवंटन 26,092 करोड़ रुपये हुआ और कुल सरकारी व्यय में उसकी हिस्सेदारी घटकर 0.5 फीसदी रह जाएगी। केंद्र महिलाओं पर केंद्रित योजनाओं पर कैसे व्यय करता है उसे परखने का एक और तरीका है।
लैंगिक बजट पर आधारित एक वक्तव्य महिलाओं और बच्चियों के लिए बनी योजनाओं के बारे में विस्तृत ब्योरा प्रदान करता है। वक्तव्य एक बेहतर तस्वीर पेश करता है। पूरी तरह महिलाओं और बच्चों पर केंद्रित योजनाओं पर सरकार ने 2019-20 में 26,731 करोड़ रुपये की राशि व्यय की। 2024-25 तक यह राशि तीन गुनी बढ़कर 1.12 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगी। परंतु जेंडर बजट में वर्गीकरण की दिक्कत है। शहरी और ग्रामीण आवास का आवंटन भी इसमें शामिल है जो मूलतया महिला केंद्रित योजनाएं नहीं हैं। इस आवंटन को हटा दिया जाए तो सरकार ने महिलाओं और बच्चियों पर 2019-20 के 8,615 करोड़ रुपये की तुलना में 2019-20 में 31,725 करोड़ रुपये खर्च किए। यह उतना बड़ा इजाफा भी नहीं है।
महिलाओं की चुनावी लाभ दिलाने की शक्ति को विधान सभा चुनावों में पहचाने जाने के बाद संभव है कि केंद्र सरकार के बजट आवंटन में भी ऐसे कार्यक्रमों को आवंटन बढ़े। परंतु जैसा कि हालिया चुनावों ने दिखाया है, चुनावी लाभ केवल तभी हासिल होते हैं जब नकदी अंतरण सीधे लाभार्थी को मिले। आगामी बजट में महिलाओं के लिए नकदी अंतरण बढ़ सकता है। मोदी सरकार भारतीयों के जिस चार समूह पर ध्यान दे रही है उनमें से युवा, गरीब और किसान पहले ही नकदी अंतरण योजनाओं का लाभ पा रहे हैं। अब महिलाओं की बारी है। सरकार में जो लोग राजकोषीय समझदारी के प्रति प्रतिबद्ध हैं उनके लिए चुनौतियां थोड़ी और बढ़ गई हैं।