चुनाव आयोग ने 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनावों की घोषणा कर दी है और इसके साथ ही भारत दुनिया में अब तक की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए कमर कस रहा है। आगामी चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने के बीच हाल में हुए दो महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम ने नागरिकों को देश की चुनावी और राजनीतिक प्रक्रिया में सुधार के बारे में सोचने के लिए पर्याप्त विचार और वजहें दी हैं।
पहली, रामनाथ कोविंद समिति की रिपोर्ट है, जिसने देश में एक साथ चुनाव कराने की व्यावहारिकता का अध्ययन किया। दूसरा महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम चुनावी बॉन्ड मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय का फैसला है जो निश्चित रूप से दूरगामी परिणाम देने वाला है।
कोविंद समिति ने एकमत से एक साथ चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया है और इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक रोडमैप भी दिया है। देश भर में एक साथ चुनाव कराने के पीछे एक कारण नीति और शासन संबंधी अनिश्चितता को कम करना है। राजनीतिक दल अक्सर एक के बाद एक अगले राज्य चुनाव की तैयारी में बंध जाते हैं।
रिपोर्ट में पेश किए गए तकनीकी कार्य से अंदाजा मिलता है कि एक साथ चुनाव कराने से आर्थिक वृद्धि, मुद्रास्फीति और सार्वजनिक व्यय जैसे क्षेत्रों में सुधार दिख सकता है। हालांकि सैद्धांतिक रूप से एक साथ चुनाव कराने के विचार में दम है, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल होगा। यदि अगली सरकार इन सुझावों पर आगे बढ़ना चाहती है तो उन्हें यह सलाह देना बेहतर होगा कि वे इस प्रक्रिया में जल्दबाजी न करें।
हालांकि, देश में एक अहम मुद्दा चुनावी/राजनीतिक फंडिंग है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। अदालत ने इस योजना में गोपनीयता के बिंदु को ही खारिज कर दिया और इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों के सूचना के अधिकार को प्रतिबंधित करने का कोई औचित्य नहीं पाया है जिसे केवल अनुच्छेद 19(2) में निर्धारित शर्तों के तहत ही प्रतिबंधित किया जा सकता है।
भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को चुनावी बॉन्ड जारी करने के लिए अधिकृत किया गया था और उसने अदालत के निर्देश के मुताबिक ही चंदा देने वालों और लाभार्थी दलों के बारे में जानकारी दी है। निश्चित रूप से यह जानना दिलचस्प है कि किसने किसको चंदा दिया है और लेकिन इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि भारत में राजनीतिक दलों की फंडिंग के लिए एक बेहतर प्रणाली की आवश्यकता है। हालांकि शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के लिए चुनावी बॉन्ड योजना कोई समाधान नहीं है।
2014 के एक अध्ययन में बताया गया कि पिछले पांच वर्षों में चुनावों पर लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए थे जिसमें से लगभग आधी पूंजी उन स्रोतों से आई जिसके बारे में वैध जानकारी नहीं थी। यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि अब तक इस खर्च की रकम आसानी से दोगुनी हो गई होगी। पैसा स्पष्ट रूप से देश के ही तंत्र से जुटाया जाता है और इसका नीति और शासन पर प्रभाव पड़ता है।
बड़ी मात्रा में धन के इस्तेमाल से राजनीति में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा होती हैं। उदाहरण के लिए, जितना ज्यादा पैसा राजनीति में आता है उसमें नए लोगों के प्रवेश करने में बाधाएं और भी बढ़ जाती हैं। इसमें प्रवेश करने में बड़ी बाधाएं अक्सर बाजार और राजनीति दोनों के लिए ही खराब परिणाम की ओर ले जाती हैं। चुनाव की फंडिंग से जुड़ी समस्या को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, संग्रह और खर्च।
खर्च के संदर्भ में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों पर प्रतिबंध है कि वे कितना खर्च कर सकते हैं लेकिन राजनीतिक दलों पर इस लिहाज से कोई प्रतिबंध नहीं है जिस पर ध्यान देना जरूरी है। अनुभवजन्य साक्ष्य बताते हैं कि उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा वाला प्रावधान ठीक से लागू नहीं किया जाता है और शायद इसकी उचित निगरानी के अभाव का एक प्रमुख कारण राज्य की क्षमता की कमी है। यह बेहद जरूरी है कि इन सीमाओं को सख्ती से लागू किया जाए और उल्लंघन करने वालों को तुरंत फटकार लगाई जाए।
निर्वाचन आयोग (ईसीआई) अस्थायी कर्मचारियों को नियुक्त करने या इस उद्देश्य के लिए सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के साथ जुड़कर एक तंत्र तैयार कर सकता है। चुनावी खर्च से जुड़ी जानकारी की मांग की समस्या पर प्रभावी ढंग से ध्यान देने से स्वतः ही फंड की आपूर्ति या बड़ी मात्रा में रकम जुटाने की आवश्यकता से जुड़ी समस्याओं का हल कुछ हद तक किया जा सकता है।
संग्रह सुधारों के संदर्भ में शुरुआती बिंदु यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि हर रुपये का हिसाब हो। भारत भुगतान समाधानों में वैश्विक स्तर पर अगुआई कर रहा है इसलिए नकद चंदे के विकल्प को आसानी से दूर किया जा सकता है। इसके समाधान के लिए अक्सर सरकार की तरफ से चुनावों की फंडिंग करने का सुझाव दिया जाता है और वास्तव में इसे विभिन्न देशों में विभिन्न रूपों में अपनाया है।
हालांकि, यदि इसके लिए प्रासंगिक संस्थागत प्रणाली नहीं होगी तब इससे मदद मिलने की संभावना नहीं होगी। उचित सुरक्षा उपायों के बिना राजनीतिक दल अपने संसाधनों को सरकारी निधि से जोड़ सकते हैं। कुछ विश्लेषकों ने चुनाव के बजाय राजनीतिक दलों की फंडिंग का सुझाव दिया है। एक अन्य विकल्प यह है कि स्वतंत्र रूप से प्रबंधित राष्ट्रीय कोष स्थापित किया जाए जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी इसमें अपना योगदान दे सकते हैं और आयकर लाभ का दावा कर सकते हैं।
इस फंड का वितरण राजनीतिक दलों के बीच पेशेवर लेखा परीक्षकों द्वारा नियमित ऑडिट की शर्त पर पूर्व निर्धारित फॉर्मूले के आधार पर किया जा सकता है। इस फॉर्मूले के तहत विभिन्न क्षेत्रों में पहुंच और पिछले चुनावों में एक निश्चित संख्या में मिले मतों जैसे कारकों पर विचार किया जा सकता है। इससे चंदा देने वालों का डर भी खत्म होगा क्योंकि वे एक राष्ट्रीय कोष में दान कर रहे होंगे और उनका इसके वितरण पर कोई नियंत्रण नहीं होगा।
इसके अलावा, यह प्रणाली कंपनियों द्वारा सरकार की नीति पर नियंत्रण बनाने के जोखिम को भी दूर कर सकती है क्योंकि यह चंदा पूर्व निर्धारित फॉर्मूले के आधार पर कई राजनीतिक दलों में वितरित किया जाएगा। इस तरह की व्यवस्था चंदा देने वालों को भी राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में योगदान देने की संतुष्टि भी देगी।
चूंकि एक लोकतांत्रिक प्रणाली में अपने मन से चयन की स्वतंत्रता भी संरक्षित की जानी चाहिए। ऐसे में व्यक्तियों और कंपनियों को भी सीधे राजनीतिक दलों के लिए योगदान देने की अनुमति दी जा सकती है। हालांकि, ऐसे सभी लेनदेन का खुलासा किया जाना चाहिए और तिमाही आधार पर राजनीतिक दल ही इसका खुलासा करें तो बेहतर है।
इस तरह की प्रणाली भले ही सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकेगी लेकिन निश्चित रूप से इससे राजनीतिक फंडिंग से जुड़ा असंतुलन कम किया जा सकेगा और पारदर्शिता आ सकती है। चूंकि यह मुद्दा बेहद अहम है इसलिए अगली सरकार इस मामले की व्यापक जांच के लिए एक पैनल का गठन कर सकती है और दुनिया भर में इस परिप्रेक्ष्य में किस तरह के कदम उठाए जाते हैं उनका अध्ययन कर समाधान सुझा सकती है। ऐसी रिपोर्ट स्वस्थ सार्वजनिक बहस और बाद की नीतिगत कार्रवाई के लिए एक अच्छी शुरुआत साबित होगी।