दो पड़ोसी राज्यों में जनसंहार के पुराने मामलों में अदालतों के दो फैसलों में आरोपितों को बरी कर दिया गया। पहले मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने 29 मार्च को मई 2008 में जयपुर में हुए सिलसिलेवार धमाकों के मामले में चार मुस्लिमों की दोषसिदि्ध और गंभीर सजा को खत्म किया। दूसरे मामले में पिछले दिनों गुजरात की एक निचली अदालत ने 2002 के गुजरात दंगों में नरोडा गाम में हुई हत्याओं के मामलों में सभी 67 हिंदुओं को रिहा कर दिया।
फिलहाल यह मानकर बात करते हैं कि दोनों मामलों में न्यायाधीश सही हैं और सभी आरोपित निर्दोष थे। इस बात से सीधे तीन बातें निकलती हैं।
पहली, पीड़ितों यानी मृतकों, अपंग हुए लोगों और उनके परिवारों को जयपुर धमाकों और गुजरात दंगों के क्रमश: 15 वर्ष और 21 वर्ष बाद भी न्याय नहीं मिल सका। पहले मामले में ज्यादातर पीडि़त हिंदू थे तो दूसरे में सभी मुस्लिम थे।
दूसरा, पहले मामले में आरोपित सभी मुस्लिम और दूसरे मामले में आरोपित सभी हिंदू अगर अदालती फैसले के मुताबिक निर्दोष थे तो उन्हें दशकों जेल में फिजूल काटने पड़े। अगर उन आरोपियों की जेल में बिताई अवधि को उनकी संख्या के साथ गुणा करें तो हजारों साल का समय निकल गया।
इससे हम दो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इन तमाम दशकों के बाद भी इतने पीड़ित भारतीयों और इन अपराधों के कथित अपराधियों के साथ ऐसा अन्याय हुआ जो समान रूप से गैरबराबरी वाला और धर्मनिरपेक्ष है।
यहां तीसरा बिंदु आता है। किसी भी आपराधिक मामले में पीड़ित और आरोपित के अलावा एक और समान महत्त्व वाला पक्ष होता है और वह है राज्य। यह कहना मुश्किल है लेकिन दार्शनिक तौर पर और सैद्धांतिक तौर पर भी यह बिंदु अन्य दो बिंदुओं से अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अन्य मामलों में पीड़ित व्यक्ति हैं जबकि राज्य हम सभी का, पूरे समाज का और संविधान तथा गणराज्य का प्रतिनिधित्व करता है।
Also Read: साप्ताहिक मंथन: दूसरी Suzuki साबित होगी Apple?
अगर एक गणराज्य को अपने नागरिकों के साथ किए वादों पर खरा उतरना है तो उसे दोषी को पकड़ना होगा, उन पर मुकदमा चलाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें समुचित दंड मिले। याद कीजिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार एक सजायाफ्ता आतंकी की सजा को उचित ठहराते हुए देश की जनता की सामूहिक चेतना की संतुष्टि की बात की थी।
इन दोनों मामलों में उक्त संतुष्टि नहीं मिल सकी। कानून जिस गति से काम करता है उसे देखें तो अपील की प्रक्रिया लंबी खिंचती रहेगी और किसी मामले में कोई नई जांच नहीं होगी। अगर ऊपरी अदालतें भी यही कहती हैं कि बरी किए गए लोग निर्दोष हैं तो वास्तविक दोषी कभी नहीं पकड़े जाएंगे। ऐसे में राज्य भी अन्याय का उतना ही शिकार होगा जितना कि ऊपर बताए गए हिंदू-मुस्लिम पीड़ित या आततायी। कह सकते हैं कि तीनों मामलों में न्याय नहीं मिला।
न्याय न मिलने की प्रक्रिया इतनी आम कैसे है? अगर इन मामलों में तथा तमाम अन्य ऐसे मामलों में अदालती आदेशों का विश्लेषण करेंगे तो आपको एक खास रुझान नजर आएगा। जांच में कमी, झूठे और नकली सबूत, सिखाए-पढ़ाए गवाह। उसके बाद दशकों बीत जाते हैं, गवाहों की मौत हो जाती है और कई अपना बयान बदल लेते हैं। आखिर में राजनीति भी रंग बदलती रहती है।
अगला कारक है आरोपित का प्रभाव। उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर और उनकी ‘गैंगवॉर’ बीते कई सप्ताह से सुर्खियों में रही है। इनमें से तीन प्रमुख नाम अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह पर कई राजनीतिक हत्याओं और जन संहार के आरोप लगे लेकिन वे बचते रहे। इन मामलों में या तो गवाह नहीं मिले या फिर पलट गए या फिर अभियोजन पक्ष अपनी रुचि खो बैठा।
Also Read: प्राकृतिक आपदाओं के लिए हमारे शहर कितने तैयार?
अतीक अहमद पर 25 जनवरी, 2005 को बहुजन समाज पार्टी के नवनिर्वाचित विधायक राजू पाल की हत्या का आरोप लगा। पाल ने अतीक के भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ को हराया था। यह हत्या दिनदहाड़े नाटकीय अंदाज में की गई थी।
अठारह वर्ष बाद भी मामला न्यायालय में है। गवाह पलटते रहे, गायब होते रहे। उमेश पाल बचाव पक्ष के गवाह थे। वह दबाव में आकर बयान से पलट गए। अतीक के गैंग ने 2006 में उनका अपहरण कर लिया था। गत 24 फरवरी को अतीक के बेटे असद ने कैमरे के सामने उन्हें जान से मार दिया। अतीक को भले ही 2006 में उमेश पाल का अपहरण करने के मामले में सजा सुनाई गई लेकिन हत्या का मुकदमा जारी था।
राज्य में सत्ताधारी दल के बदलने के साथ ही मुकदमे की स्थिति में भी बदलाव आता रहा। यही कारण है कि पुलिस मुठभेड़ में असद के मारे जाने के दो दिन के भीतर जब पुलिस हिरासत में अतीक और उसके भाई अशरफ की लोगों के सामने हत्या कर दी गई तो जनता में जश्न का माहौल नजर आया।
न्याय मिलने में नाकामी के कारण ही पुलिस तथा उनके राजनीतिक आकाओं में ऐसे त्वरित और जोखिम रहित ढंग से न्याय करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। हम नाराजगी भरे चाहे जितने संपादकीय लिखें लेकिन ‘ठोक देने’ की इस प्रवृत्ति को व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता हासिल है।
मुख्तार अंसारी पर हत्या सहित कई आरोप लगे और उनमें सबसे प्रमुख थी कृष्णानंद राय की नाटकीय हत्या जो गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विधायक थे। राजू पाल की तरह उन्होंने भी बाहुबली के भाई को हराया था।
उनकी हत्या में एके-47 राइफलों का इस्तेमाल किया गया था। घटनास्थल से 7.62 एमएम के 400 खाली कारतूस बरामद किए गए थे। मारे गए सात लोगों के शरीर से 67 गोलियां निकाली गई थीं। अकेले राय के शरीर से 21 गोलियां निकली थीं। वह भी 2005 ही था।
मामले की सुनवाई दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई थी क्योंकि माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में न्याय नहीं हो सकता। चौदह वर्ष बाद दिल्ली की अदालत ने सभी आरोपितों को बरी कर दिया। न्यायाधीश ने लिखा कि सभी प्रमुख गवाह पलट गए। उसने कहा कि काश वास्तविक गवाह संरक्षण योजना को आजमाया गया होता।
अगर 2019 में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी भाजपा विधायक की हत्या के 14 साल बाद हत्यारों को सजा नहीं दिलाई जा सकी तो इसका हमारी सामूहिक चेतना पर क्या असर होगा? क्या तब ‘ठोक दो’ की आवाज नहीं उठेंगी।
जैसा कि हमने दो पहले मामलों में देखा, जयपुर धमाकों और नरोडा गाम में हुई हत्याओं में मामला हिंदू-मुस्लिम का नहीं है। न्याय न मिलने की घटना दोनों के साथ घटी है। बृजेश सिंह और अंसारियों की प्रतिद्वंद्विता तीन दशक से अधिक पुरानी है। सिंह को अगस्त 2022 में रिहा किया गया। वह 20 से अधिक वर्षों से 2001 में मुख्तार अंसारी पर हमले का आरोपित था।
अंसारी बच निकला लेकिन उसके दो साथी मारे गए थे। इस मामले में भी गवाह, प्रमाण और अभियोजन की रुचि सब समय के साथ कमजोर पड़ते गए। सिंह को दिल्ली पुलिस ने 2008 में भुवनेश्वर में पकड़ा था जिसके बाद उसे 14 साल जेल में बिताने पड़े। अब वह लगभग आजाद है। उसका भतीजा विधायक और पत्नी विधान परिषद सदस्य है।
Also Read: G-20 में मोटे अनाज को बढ़ावा देने का बेहतरीन अवसर
हालांकि तीनों डॉनों का तीन दशकों का करियर लगभग एक समय पर चला, तीनों ही सांसद, विधायक और विधान परिषद सदस्य बने। हर मामले में लेकिन हर मामले में राजनीति, शासन और न्यायपालिका विफल रही। हर मामला ऐसा रहा जहां त्वरित न्याय की मांग उचित मानी गई।
इन पांचों ताजा मामलों को एक साथ देखें तो न्याय न मिलने की तस्वीर पूरी होती है। पीड़ितों, आततायियों, सरकार और हम सभी भारतीय न्याय से वंचित रहे।
यही कारण है कि व्यवस्था में विश्वास डगमगा गया है। इसके चलते समाज में ‘सिंघम’ की अवधारणा जोर पकड़ गई। यह कितनी संक्रामक हो सकती है यह हमने अभी तमिलनाडु में एक आईआईटी शिक्षित आईपीएस अधिकारी द्वारा किए गए अत्याचार के मामले में देखा। उस पर आपराधिक मामला दर्ज किया जा चुका है।
इस ध्रुवीकरण वाले दौर में आप किस तरफ हैं इससे ही तय होता है कि भरोसा छीजने के इस दौर में आप स्वयंभू फैसले करने वाले बनें या मुझे डर है कि शायद आप आतंकवाद की शरण लेंगे। ऐसे में लगातार घटी पांच घटनाएं सावधान करने के लिए काफी होनी चाहिए।