दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह G-20 के शीर्ष कृषि शोध संस्थाओं के प्रमुखों के लिए प्राथमिकताएं तय हो गई हैं। वाराणसी में इनकी तीन दिवसीय बैठक आयोजित हुई थी। उन्हें कृषि क्षेत्र के समक्ष चुनौतियों से निपटने के लिए विज्ञान आधारित रणनीति तैयार करनी है।
कृषि क्षेत्र के समक्ष ये चुनौतियां समय के साथ विकराल होती जा रही हैं। एक तरफ फसल आधारित खाद्य पदार्थों, भोजन, ईंधन और रेशे की आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं मगर दूसरी तरफ इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कृषि क्षेत्र की क्षमता लगातार कम पड़ती जा रही है।
कृषि योग्य भूमि का आकार लगातार कम होने एवं इसका क्षरण बढ़ने, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, जैव-विविधता में कमी और फसलों की कटाई के बाद होने वाले भारी नुकसान इसके प्रमुख कारण हैं। कुछ अन्य कारणों, मसलन रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से आपूर्ति व्यवस्था में बाधा आने से खाद्य पदार्थों एवं उर्वरकों की कीमतों पर दबाव, मौसम में होने वाले असामान्य बदलाव, सूखा, बाढ़ और कीट एवं फसलों में बढ़ती बीमारियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
कोविड-19 महामारी से भी वैश्विक स्तर पर खाद्य संकट (food crisis) और गहरा गया है। यह महामारी थम जरूर गई है मगर इसका असर अब भी देखा जा रहा है। कई विकासशील एवं खाद्यान्न की कमी का सामना कर रहे देशों में स्थानीय स्तर पर भी समस्याएं बढ़ गई हैं।
खासकर, उन देशों को अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो खाद्यान्न, उर्वरक और ईंधन की मांग पूरी करने के लिए इनके आयात पर निर्भर हैं। कोविड महामारी के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष असर के कारण दुनिया में भूखे एवं कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या 15 करोड़ तक बढ़ गई है।
दूसरी तरफ, खाद्यान्न देने वाली फसलों की संख्या में भारी कमी आई है। वैसे खाने योग्य उत्पाद देने वाले हजारों पौधे हैं मगर इनमें 40 प्रतिशत से भी कम का उत्पादन वाणिज्यिक स्तर पर बड़े पैमाने पर होता है और इनका व्यापार भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक नहीं हो पा रहा है।
सच्चाई यह है कि दुनिया की आबादी की अधिकांश खाद्य जरूरतें तीन फसलें- चावल (Rice), गेहूं (Wheat) और मक्का (Maize)- पूरी करती हैं। प्राकृतिक आपदाओं जैसे कीट-पतंग, बीमारी या अन्य कारणों से इन फसलों की आपूर्ति में बाधा खाद्य प्रणाली का ढांचा कमजोर कर सकती है जिसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा पर होगा। किसी भी सूरत में चाहे, परिस्थितियां सामान्य ही क्यों ना रहें तब भी 2030 तक भुखमरी एवं कुपोषण के प्रभावों को खत्म करने का लक्ष्य (टिकाऊ विकास लक्ष्य) पूरा कर पाना मुश्किल होगा।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के महानिदेशक हिमांशु पाठक के अनुसार वाराणसी में आयोजित सम्मेलन का मुख्य लक्ष्य ‘स्वस्थ लोगों एवं धरती के लिए टिकाऊ कृषि एवं खाद्य प्रणाली’ पर ध्यान केंद्रित करना है। इस लक्ष्य के तहत चर्चा और संभावित बहुपक्षीय सहयोग के लिए चार क्षेत्र चिह्नित किए गए हैं।
इनमें खाद्य सुरक्षा मजबूत बनाने एवं पोषण में सुधार के लिए विज्ञान एवं तकनीक का बेहतर इस्तेमाल, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कृषि क्षेत्र को सबल बनाना, कृषि क्षेत्र में डिजिटलीकरण और कृषि शोध एवं विकास (R&D) में सार्वजनिक-निजी भागीदारी बढ़ाना शामिल हैं।
Also Read: पैसा लगाने के लिए निवेशकों का भारत को लेकर बदलता नजरिया
इस बैठक के लिए मेजबान देश का प्रमुख लक्ष्य भोजन के रूप में कम इस्तेमाल होने वाले एवं अक्सर दरकिनार किए जाने वाली फसलों, खासकर मोटे अनाज (कदन्न) की भूमिका को रेखांकित करना है। इस बात को समझने की जरूरत है कि ये अनाज भोजन में विविधता लाने के साथ ही पोषण की गुणवत्ता में सुधार करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के साथ ही ये कम उपजाऊ, क्षरित एवं गैर-सिंचित भूमि पर निर्भर छोटे किसानों की जीविका सुरक्षित करने में भी अहम योगदान दे सकते हैं।
इस कदम के पीछे मूल तर्क यह है कि तकनीक एवं आवश्यक तत्त्वों की मदद से इन तीनों अनाज- चावल, गेहूं एवं मक्का- के उत्पादन में बढ़ोतरी से खाद्य की पर्याप्त आपूर्ति जरूर सुनिश्चित हो गई है मगर मोटे अनाज आदि का उत्पादन बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा को और अधिक मजबूत बनाया जा सकता है। ये फसलें कृषि कार्यों के लिए प्रतिकूल माहौल में भी अपना वजूद कायम रखती हैं।
इन फसलों के जीन में सुधार और बेहतर उत्पादन तकनीक पर बहुत अधिक सार्वजनिक निवेश की भी जरूरत भी नहीं होती है। किसानों को भी इन फसलों के उत्पादन पर उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई आदि पर अधिक लागत नहीं आती है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूक्ष्म अनाज जैसे चावल एवं गेहूं पर शोध एवं विकास पर किए गए निवेश से मिलने वाले लाभ अब कम होने लगे हैं। मगर मोटे अनाज एवं प्राथमिकता की सूची से बाहर अन्य अनाज का उत्पादन बढ़ाने की संभावना काफी अधिक है। नई पादप प्रजनन तकनीक की मदद से ऐसा करना काफी आसान हो गया है।
Also Read: बेरोजगारी की समस्या से जूझता आंध्र प्रदेश
इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत ने मोटे अनाज और अन्य उपेक्षित मगर पोषक तत्त्वों से भरपूर और प्रतिकूल मौसम सहने में सक्षम अनाज के लिए एक नई पहल शुरू करने का प्रस्ताव दिया है। ‘मोटे अनाज एवं अन्य प्राचीन अनाज अंतरराष्ट्रीय शोध’ नाम से शुरू की गई इस परियोजना के तहत विभिन्न फसलों पर काम करने वाली शोध संस्थानों को एक दूसरे से जोड़ने और उत्पादन बढ़ाने और रोग एवं कीटनाशक प्रबंधन पर उनके शोध के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए एक ढांचे की स्थापना की जाएगी।
यह परियोजना ‘महर्षि’ के नाम से भी जानी जाती है। इसके तहत शोधकर्ताओं को एक दूसरे से जोड़ने और वैज्ञानिकों एवं आम लोगों को आवश्यक जानकारी देने के लिए एक इंटरनेट प्लेटफॉर्म तैयार किया जाएगा। शोध कार्यों को बढ़ावा देने और जागरूकता बढ़ाने के लिए युवा वैज्ञानिकों को पुरस्कार भी दिए जाने की योजना है। यह संस्थान हैदराबाद स्थित भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान (IIMR) में स्थापित किया जाएगा जहां अंतरराष्ट्रीय अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान के साथ परस्पर सहयोग बढ़ाया जाएगा।
यह संस्थान तेलंगाना में पाटनचेरु में स्थापित किया जाएगा। इस संस्थान का सचिवालय G-20 के सदस्य देशों में बारी-बारी से व्यावहारिक उद्देश्य से अस्थायी रूप से स्थापित किए जा सकते हैं। अगर यह प्रस्ताव G-20 के मुख्य कृषि वैज्ञानिकों की बैठक में स्वीकार हो जाता है तो यह कदन्न (मिलेट) एवं अन्य उपयोगी खाद्य फसलों के विकास के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगा। इन फसलों पर आवश्यकतानुसार शोध एवं विकास कार्य नहीं हो पा रहे हैं।