facebookmetapixel
सुप्रीम कोर्ट ने कहा: बिहार में मतदाता सूची SIR में आधार को 12वें दस्तावेज के रूप में करें शामिलउत्तर प्रदेश में पहली बार ट्रांसमिशन चार्ज प्रति मेगावॉट/माह तय, ओपन एक्सेस उपभोक्ता को 26 पैसे/यूनिट देंगेबिज़नेस स्टैंडर्ड के साथ इंटरव्यू में बोले CM विष्णु देव साय: नई औद्योगिक नीति बदल रही छत्तीसगढ़ की तस्वीर22 सितंबर से नई GST दर लागू होने के बाद कम प्रीमियम में जीवन और स्वास्थ्य बीमा खरीदना होगा आसानNepal Protests: सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ नेपाल में भारी बवाल, 14 की मौत; गृह मंत्री ने छोड़ा पदBond Yield: बैंकों ने RBI से सरकारी बॉन्ड नीलामी मार्च तक बढ़ाने की मांग कीGST दरों में कटौती लागू करने पर मंथन, इंटर-मिनिस्ट्रियल मीटिंग में ITC और इनवर्टेड ड्यूटी पर चर्चाGST दरों में बदलाव से ऐमजॉन को ग्रेट इंडियन फेस्टिवल सेल में बंपर बिक्री की उम्मीदNDA सांसदों से PM मोदी का आह्वान: सांसद स्वदेशी मेले आयोजित करें, ‘मेड इन इंडिया’ को जन आंदोलन बनाएंBRICS शिखर सम्मेलन में बोले जयशंकर: व्यापार बाधाएं हटें, आर्थिक प्रणाली हो निष्पक्ष; पारदर्शी नीति जरूरी

मीडिया, मनोरंजन उद्योग का सालाना लेखाजोखा 

ध्यान से पढ़ने पर पता चलेगा कि भारत के 1,61,400 करोड़ रुपये के मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग को कवर करना किस प्रकार एक व्यक्ति के बूते से बाहर की बात है

Last Updated- December 28, 2022 | 9:44 PM IST
Growth story from theater to television and now to streaming platforms

एक मीडिया लेखक के रूप में मेरे वार्षिक लेखाजोखा में आपका स्वागत है। यह वक्रोक्तियों की सूची है। उन्हें ध्यान से पढ़ने पर पता चलेगा कि भारत के 1,61,400 करोड़ रुपये के मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग को कवर करना किस प्रकार एक व्यक्ति के बूते से बाहर की बात है। 

अप्रैल 2023 तक जब सभी नियामकीय मंजूरियां मिल जाएंगी तो पुनीत गोयनका के हाथ में भारत की तीसरी सबसे बड़ी मीडिया कंपनी की कमान होगी। ज़ी-सोनी का संयुक्त राजस्व 15,056 करोड़ रुपये है। यदि पारंपरिक मीडिया कंपनियों को गूगल (अनुमानित राजस्व 25,000 करोड़ रुपये) और मेटा (16,189 करोड़ रुपये) जैसी टेक-मीडिया कंपनियों के साथ मुकाबला करना है तो फिर विलय को लेकर कई जिरह नहीं हो सकती। 

शिकायतों के पुलिंदों में मेरी पहली शिकायत यही है कि एकीकरण से सूचनाएं और प्रबंधकों तक पहुंच बड़ी दुखदायी हो जाती है। अभी जो पांच शीर्ष प्रसारक हैं, उनमें से फिलहाल केवल ज़ी के साथ ही सहजता से बात हो पाती है। डिज्नी द्वारा अधिग्रहण के बाद से स्टार भी पर्दे के पीछे चला गया। स्थिति यह हो गई कि प्रेस रिलीज और साउंड बाइट से इतर आप डिज्नी स्टार के बारे में कुछ भी नहीं लिख सकते। पत्रकारों में कंपनी को लेकर चुटकुले बनने लगे कि कॉफी बनाने से लेकर अपने टर्मिनल्स ऑन करने के लिए प्रबंधकों को कैलिफोर्निया स्थित बरबैंक मुख्यालय की ओर ताकना पड़ता है।

सोनी से कभी-कभार और वह भी बड़ी मुश्किल से बात हो पाती है और यही बात वायकॉम-18 पर भी लागू होती है। एक समय सन नेटवर्क के संस्थापक और चेयरमैन कलानिधि मारन से मिलना अपेक्षाकृत आसान हुआ करता था। यदि आप चेन्नई में हों तो वह मुलाकात कर लिया करते थे। यह सिलसिला भी 2000 से 2004 के बीच ही सीमित रहा। हालांकि बाद में चेन्नई में भी उनके प्रबंधक ही संवाद करने लगे। मगर एक दशक से इस कंपनी ने भी खुद को पूरी तरह से अपने दायरे में बंद कर लिया है। वापस ज़ी की ओर लौटते हैं। चूंकि उसका अल्पभाषी सोनी के साथ विलय हो रहा है तो मैं इससे चिंतित हूं। यदि उसने भी स्वयं को पार्श्व में रखना शुरू कर दिया तो इसे भारत के मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग के सबसे बड़े हिस्से यानी प्रसारण को कवर करने की क्षमताएं प्रभावित होंगी।  

इसी साल ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल ने तय किया कि मीडिया के साथ डेटा साझा नहीं किया जाएगा। आखिर रेटिंग और दर्शकों से जुड़ा डेटा और चैनल हिस्सेदारी के बिना कोई कैसे अनुमान लगा सकता है? इन दिनों मैं मित्रता भाव वाली मीडिया एजेंसियों से डेटा साझा करने का अनुरोध करती हूं, लेकिन भारत के 72,000 करोड़ रुपये के मीडिया कारोबार को कवर करने का यह कोई कारगर और टिकाऊ उपाय नहीं।

 अब मैं दूसरी शिकायत पर आती हूं। मीट्रिक्स को निंरतर रूप से एक समस्या या गंदे राज छिपाने के एक जरिये के रूप में देखा जा रहा है। जबकि इसे कंटेंट यानी सामग्री, विज्ञापन दरों और सबस्क्रिप्शन राजस्व को सुधारने के उपकरण के तौर पर उपयोग किया जाना चाहिए। भारत में मीडिया से जुड़े आंकड़ों को गंभीरता से लेने की परंपरा रही है। प्रिंट के लिए रीडरशिप सर्वे 1974 तो टीवी रेटिंग मापने की शुरुआत 1983 में हुई। फिर टैम के जरिये 1991 से इलेक्ट्रॉनिक रेटिंग की व्यवस्था बनी। इन आंकड़ों का उद्देश्य यही था कि विज्ञापनदाता किसी माध्यम की वृद्धि को देखते हुए उसमें निवेश का निर्णय कर सकें। वहीं, कार्यक्रम निर्माताओं को भी पता चले कि क्या कारगर रहता है और क्या नहीं। बहरहाल, प्रसारकों की रेटिंग एजेंसियों से तनातनी रही और यही बात प्रकाशकों पर भी लागू होती है। 

डिजिटल तो इसमें और भी भयंकर दोषी है, जिसमें कोई सक्षम थर्ड-पार्टी मीट्रिक्स नहीं। यूं तो आप कैमस्कोर, नील्सन, एप एन्नी, सिमिलर वेब और दूसरे कुछ नाम गिना सकते हैं, लेकिन तमाम दिग्गज वीडियो ऐप और साइट थर्ड-पार्टी गणना की अनुमति नहीं देतीं, क्योंकि इसका अर्थ होगा अपने सर्वर तक पहुंच की अनुमति। परिणामस्वरूप, जिस ऑनलाइन माध्यम के सबसे पारदर्शी रहने की अपेक्षा की गई, वहीं सबसे ज्यादा अंधियारा है। जिन शीर्ष दस स्ट्रीमिंग ब्रांड पर लगभग सभी सहमत हों, जरा उनकी सूची प्राप्त करने का प्रयास करिए तो संभव ही नहीं कि कोई हिदायत न मिले।

विज्ञापनदाता प्रति एक हजार लोगों के लिए प्रिंट या टीवी पर जितना भुगतान करते हैं, उसके बरक्स ऑनलाइन के लिए उसका एक तिहाई और कई बार उससे भी कम भुगतान करते हैं। ऐसे में किसी सक्षम थर्ड पार्टी मीट्रिक्स के बिना कोई तरीका नहीं कि डिजिटल पारंपरिक मीडिया को मिलने वाले सीपीएम (लागत प्रति हजार) की बराबरी या उससे आगे निकल सके। 

अब मैं अपनी आखिरी शिकायत पर आती हूं और वह जुड़ी है हिंदी सिनेमा पर हो रहे लगातार हमलों से। यह उसी तरह का मामला है, जिसमें लोग दूसरे को इस मुगालते में नुकसान पहुंचाते हैं कि इससे उन्हें कोई क्षति नहीं पहुंचेगी। अपने स्तंभ में मैंने अक्सर कहा है कि भारत उन विरले देशों में से एक है, जिसने ताकतवर हॉलीवुड के मुकाबले अपने अनूठे सिनेमा को गढ़ा। चीन में सालाना केवल 34 विदेशी फिल्में ही रिलीज हो सकती हैं।

अधिकांश यूरोपीय देश भी हॉलीवुड की सामग्री को लेकर नियंत्रण रखते हैं। (शुक्र है) भारत में इस तरह के कोई प्रतिबंध नहीं। फिर भी, भारत में थियेटरों को 90 प्रतिशत कमाई भारतीय फिल्मों से होती है। केवल 10 प्रतिशत राजस्व ही हॉलीवुड की झोली में जाता है। भारतीय केवल विकल्पहीनता की स्थिति में ही ये फिल्में देखने नहीं जाते, बल्कि इसलिए जाते हैं, क्योंकि ये फिल्में वही कहानी कहती हैं, जो वे देखना-सुनना चाहते हैं। ओमकारा, जॉनी गद्दार, सैराट, अंधाधुन, बधाई हो, दृश्यम, जय भीम और असुरन जैसी यह सूची लंबी होती जाएगी। 

कोरोना पूर्व अंतिम सामान्य वर्ष 2019 की बात करें तो फिल्मों की कमाई का 60 प्रतिशत टिकट खिड़की से आया। शेष 40 प्रतिशत में टीवी और ओटीटी का योगदान रहा। पारंपरिक रूप से टीवी पर देखी जानी वाली सामग्री में एक चौथाई हिस्सेदारी फिल्मों की होती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी एक तिहाई फिल्में ही देखी जाती हैं। वस्तुतः, सिनेमा ही भारतीय रचनात्मक इकोसिस्टम के मूल में है, जो टीवी, ओटीटी, विज्ञापन और संगीत सहित तमाम कारोबारों को सहारा देता है। इससे भी बढ़कर भारतीय सिनेमा देश की सांस्कृतिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रतीक-प्रतिनिधि है। 

कोई भी देश इस प्रकार के सिनेमा तंत्र के लिए हरसंभव जतन करता। यदि चीन से आई खबरों पर यकीन करें तो ‘3ईडियट्स’ और ‘दंगल’ के शानदार प्रदर्शन के बाद वहां बढ़ी चिंता के बाद बैठकें हुईं। इसके बावजूद सिनेमा को लेकर बहुत कम उत्साह-उत्सव का माहौल होता है। न उसकी शक्ति को स्वीकृति मिलती है और न ही अर्थव्यवस्था में उसके योगदान को सराहा जाता है। अगर ब्रिटेन में क्लासिक ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के किरदारों राज और सिमरन की प्रतिमा बनाई जा सकती है तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? इन फिल्मों से आमदनी होती है। कर राजस्व मिलता है। रोजगार सृजन होता है। फिलहाल करीब 25 लाख लोग टीवी, ओटीटी और फिल्मों में काम कर रहे हैं। 

दिलचस्प बात यह है कि जो लोग हिंदी सिनेमा को लेकर तल्ख बातें कर रहे हैं, उनके पास तमिल, तेलुगू, मलयालम, पंजाबी, बांग्ला, मराठी या कन्नड़ फिल्मों को लेकर कहने के लिए कुछ नहीं। क्या इसी कारण कि वे ये भाषाएं नहीं जानते? या इसलिए कि सभी गैर-हिंदी भाषी फिल्में क्लासिक हैं? वास्तविकता यही है कि भारत में हर साल करीब 2,000 फिल्में बनती हैं और सभी भाषाओं एवं क्षेत्रों में अच्छी, खराब और औसत फिल्में बनती हैं। ऐसे में केवल हिंदी सिनेमा को ही क्यों निशाना बनाना? 

याद रहे कि किसी बाहरी के लिए आरआरआर भी उतनी ही भारतीय है, जितनी कि ब्रह्मास्त्र। उन्हें यही दिखता है कि यह देश अपने ही सिनेमा को बदनाम कर रहा है, जो 109 वर्षों के समय की कसौटी पर खरा उतरता आया है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या आने वाले वर्ष में हम सिनेमा की शक्ति के पक्ष में उसी प्रकार खड़े हो सकेंगे, जैसे सूचना प्रौद्योगिकी, विज्ञान या प्रबंधन के लिए होते हैं? और अंत में, 2023 की शुभकामनाएं। 

First Published - December 28, 2022 | 9:24 PM IST

संबंधित पोस्ट