अमेरिका ने वैश्विक व्यापार नीति पर मंडरा रही अनिश्चितता को शुल्कों पर रोज नई घोषणाएं कर और भी बढ़ा दिया है। वहां डॉनल्ड ट्रंप की अगुआई वाली सरकार ने अब वाहनों और उनके कुछ पुर्जों के आयात पर अलग से 25 फीसदी शुल्क लगाने का ऐलान कर दिया है। उससे पहले अमेरिका ने कनाडा और मेक्सिको से आयात पर 25 फीसदी, चीन से आयात पर 20 फीसदी और एल्युमीनियम तथा स्टील आयात पर 25 फीसदी शुल्क अलग से लगाने की घोषणा की थी। दूसरे देशों ने भी जवाबी शुल्क का ऐलान किया है, जिसके कारण शुरू हुए व्यापार युद्ध ने दुनिया भर में वृद्धि तथा महंगाई पर गंभीर चिंता उत्पन्न कर दी हैं। चिंता की वजह से भारत समेत पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में बहुत उठापटक हुई है।
भारत को 2 अप्रैल से जवाबी शुल्क लगाने की अमेरिकी धमकी खास तौर पर चिंतित कर गई है। अमेरिका के साथ भारत का वस्तु व्यापार अधिशेष पिछले एक दशक में दोगुना होकर 2023-24 में 35 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। द्विपक्षीय व्यापार में कोई देश दूसरे देश से आयात की तुलना में उसे जितना अधिक निर्यात करता है वही व्यापार अधिशेष कहलाता है। अमेरिका को भारत से होने वाले निर्यात में रत्नाभूषण, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स और कपड़ों की सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। अमेरिका से आयातित माल पर भारत औसतन 11 फीसदी शुल्क वसूलता है, जबकि भारतीय आयात पर अमेरिका औसतन 3 फीसदी शुल्क ही लेता है। अगर अमेरिका भारत से समूचे आयात पर 8 फीसदी बराबरी का शुल्क और लगा देता है तो हमारे विश्लेषण के मुताबिक भारत को निर्यात में सालाना लगभग 3.1 अरब डॉलर की ही चोट लगेगी। यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.1 फीसदी ही होगा। विश्लेषण में माना गया है कि रुपया कुछ कमजोर होगा, जिससे ऊंचे शुल्क का असर कुछ हद तक कम हो जाएगा। असर इस बात पर निर्भर करेगा कि बराबरी का शुल्क किस तरह का होता है और यह अभी स्पष्ट नहीं है।
अन्य देशों के साथ भारत का व्यापार कुछ कम है। देश से जीडीपी के 21 फीसदी के बराबर वस्तु एवं सेवा निर्यात होता है, जिसमें वस्तु निर्यात की हिस्सेदारी 2023-24 में 12 फीसदी रही थी। थाईलैंड जैसी कुछ अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं से वस्तु एवं सेवा निर्यात उनके जीडीपी के 60 फीसदी के आसपास है। व्यापार कम होने के बाद भी शुल्क की जंग (टैरिफ वॉर) कई प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से भारत पर असर डालेगी। विश्व व्यापार धीमा पड़ा तो भारत के कुल निर्यात में कमी आ सकती है और चीन भी अपना सस्ता सामान भारत में पाट सकता है क्योंकि अमेरिका उस पर ज्यादा शुल्क थोप रहा है। ऐसी अनिश्चितताओं के बीच भारत में निवेश का हौसला भी कम हो सकता है। साथ ही पूंजी की आवक घट सकती है और रुपया गिर सकता है, जो हमें पिछले कुछ महीनों में नजर भी आया है। इसीलिए भारत पर शुल्कों का जो प्रभाव दिख रहा है, असली असर उससे ज्यादा हो सकता है।
इन अनिश्चितताओं के कारण भारत और पूरी दुनिया में पूंजी बाजार चढ़ते-गिरते रहेंगे। पिछले साल अक्टूबर से इस साल फरवरी के बीच 4.4 फीसदी टूटने के बाद पिछले 30 दिन में रुपया कुछ मजबूत हुआ है। हमारा अनुमान है कि रुपया कमजोर ही रहेगा और वित्त वर्ष 2025-26 के अंत में उसकी कीमत 88-89 प्रति डॉलर रह सकती है। जीडीपी की तुलना में चालू खाते के घाटे का अनुपात भी बढ़ सकता है। लेकिन हमारे हिसाब से यह 2025-26 में जीडीपी का 1.1 फीसदी रहेगा, जो 2024-25 में 0.7 फीसदी रहने का अनुमान है। पिछले कुछ सालों में इसे तगड़े सेवा निर्यात से सहारा मिलता आया है।
वित्त वर्ष 24-25 पूंजी की आवक के लिहाज से अच्छा नहीं रहा है। इस दौरान 28 मार्च तक केवल 2.7 अरब डॉलर का शुद्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) आया, जो 2023-24 के 41 अरब डॉलर से बहुत कम है। इस वित्त वर्ष के पहले दस महीनों में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) भी केवल 1.4 अरब डॉलर रहा, जो पिछले वित्त वर्ष के पहले 10 महीनों से 88 फीसदी कम था। एफडीआई और एफपीआई की आवक नए वित्त वर्ष में भी कमजोर रह सकती है, जिससे भारत के भुगतान संतुलन और रुपये पर दबाव होगा। रुपये में थोड़ी कमजोरी भारतीय रिजर्व बैंक को सही लग सकती है क्योंकि इससे शुल्क की चोट कुछ कम होगी। हो सकता है कि अमेरिकी शुल्कों से निपटने के लिए युआन लुढ़क जाए और उससे भी रुपये में गिरावट आएगी। पिछले व्यापार युद्ध के दौरान चीनी माल पर अमेरिका का औसत शुल्क 2018 के 3 फीसदी से उछलकर 2019 में 21 फीसदी हो गया था। उस दौरान युआन 10-12 फीसदी लुढ़का था, जिसकी मार रुपये पर भी पड़ी थी।
चिंता यह भी है कि वैश्विक व्यापार युद्ध के कारण भारत में महंगाई न आ जाए। किंतु देश के मुद्रास्फीति दर घटने के कारण रिजर्व बैंक शायद वृद्धि को सहारा देने पर ही ध्यान लगाएगा। लगता है कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति अप्रैल की बैठक में नीतिगत दरें 25 आधार अंक और कम कर सकती है। दरें इससे ज्यादा घट सकती हैं मगर यह मॉनसून की स्थिति तथा देश के भीतर महंगाई पर निर्भर करेगा। अगर अमेरिकी फेडरल रिजर्व 2025 में नीतिगत दर घटाता रहा तो रुपये पर दबाव कम हो सकता है, जिससे रिजर्व बैंक को दर कटौती का और भी मौका मिल सकता है।
भारत फिलहाल अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बात कर रहा है और उसकी शर्तें भविष्य के लिए बहुत अहम रहेंगी। वैश्विक उथल-पुथल में भी फायदे की बात यह है कि वृद्धि बरकरार रखने के लिए भारत को कुछ सुधारों पर तेजी से काम करना ही पड़ेगा। शुल्क घटाने का भारत का कदम भविष्य में बहुत फायदा देगा मगर सरकार को सुधारों में तेजी लानी होगी ताकि देसी विनिर्माता सबसे होड़ करने के लायक बनें। दूसरी जरूरी बात है देश के भीतर खपत तेज करना क्योंकि वैश्विक मांग कुछ समय तक डांवाडोल ही रहेगी।
(रजनी सिन्हा केयरएज रेटिंग में मुख्य अर्थशास्त्री और मिहिका शर्मा अर्थशास्त्री हैं)