भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार बाबासाहेब आंबेडकर की 135वीं जयंती के अवसर पर 14 अप्रैल को उनके सम्मान में देश भर में सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया। राजनीतिक दलों में लंबे समय से इस बात को लेकर होड़ रही है कि वे ही उनकी राजनीतिक विरासत की सच्ची वारिस हैं। उनकी प्रशंसा के गीत गाना और प्रमुख जगहों पर उनकी मूर्तियां स्थापित करना आसान है जबकि एक उदार और लोकतांत्रिक भारत के उनके नज़रिये में भरोसा रखना मुश्किल है जहां व्यक्तिगत अधिकार, समुदाय आधारित दृष्टिकोण से ऊपर हों।
भारत का संविधान नागरिक केंद्रित है और राज्य का यह विधिक और न्याय आधारित दायित्व है कि वह जाति, लिंग, धर्म या पंथ का भेद किए बिना शासन करे। आम लोगों के बुनियादी अधिकार न केवल उन्हें सामुदायिक शोषण से बचाते हैं बल्कि दमनकारी राज्य से भी उनकी रक्षा करते हैं। न तो परंपरा के दावे और न ही धार्मिक संवेदनशीलता का इस्तेमाल व्यक्तिगत अधिकारों को कम करने के लिए किया जा सकता है। उस लिहाज से देखा जाए तो आंबेडकर का भारत को लेकर दृष्टिकोण एक उदार लोकतंत्र का है। यह सच है कि उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीमित समुदाय आधारित आरक्षण की सहायता से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने पर जोर दिया था। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें ऐतिहासिक रूप से दमन और भेदभाव का सामना करना पड़ा था। परंतु इसे अस्थायी होना था यानी तब तक जब तक कि सामाजिक और आर्थिक न्याय पर्याप्त रूप से हासिल नहीं कर लिया जाए।
यह दलील दी जाती है कि आंबेडकर के नेतृत्व में बना संविधान कुछ हद तक ‘गैर-भारतीय’ था क्योंकि इसमें पश्चिमी देशों के संविधानों के सिद्धांत और प्रावधान शामिल किए गए थे। इसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्य शामिल किए गए थे। आंबेडकर तथा संविधान सभा के अन्य सदस्य इन पश्चिमी विचारों से प्रेरित जरूर हैं लेकिन इनका विस्तार कहीं अधिक दायरे में है। सार्वभौमिक मताधिकार की स्वीकार्यता भी ऐसा ही एक विचार था जिसे देश की जनता की व्यापक निरक्षरता और गरीबी के बावजूद स्वीकार किया गया। यह भी सही नहीं है कि भारतीय राजनीति और धार्मिक विचार में कुछ स्पष्ट पश्चिमी अवधारणात्मक श्रेणियों को शामिल नहीं किया गया है।
उदाहरण के लिए स्वयं आंबेडकर ने बौद्ध धर्म के समतावादी विचार को पहचाना और यही वजह है कि उन्होंने दलितों के बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्म को अपनाने के सिलसिले को बढ़ावा दिया। जाति और कठोर सामाजिक पदानुक्रम व्यवस्था भारत में रची-बसी है। इसी प्रकार सामान्य मानवता, सार्वभौमिक बंधुत्व भी हमारे स्थायी भाव रहे हैं। यहां स्वयं से अलग लोगों के लिए हमेशा से जगह रही है। पारंपरिक भारतीय विचार हमेशा से कई परतों वाले रहे हैं। ये समुदाय और रीति-रिवाज से परे जाकर सार्वभौमिकता का बोध कराते रहे हैं।
वसुधैव कुटुंबकम यानी सारा विश्व एक परिवार है। जब यह सिद्धांत दुनिया के अन्य देशों तथा वहां के लोगों के साथ हमारे रिश्तों पर लागू माना जाता है तो क्या भारत के बहुआयामी परिवार को लेकर जश्न घर से ही आरंभ नहीं होना चाहिए?
अगर हम अपने ही देश में बंटे हुए रहेंगे तो दुनिया को अपना परिवार मानना कैसे संभव होगा? एक संवैधानिक मूल्य के रूप में भाईचारा, इस पुराने प्राचीन भारतीय सिद्धांत से अलग नहीं है जो विविधता में एकता की तलाश करता है।
संविधान में निहित उदारवाद में पश्चिमी प्रेरणा के साथ-साथ पर्याप्त भारतीय प्रेरणा भी है। उदारवाद को पश्चिम की देन कहकर नकारना सदियों से चले आ रहे भारतीय विचार को त्यागना हो जो वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत में मौजूद है। भारतीय विचार प्रक्रिया में शंका भी गहराई तक शामिल है, और भारतीयों के तर्क और बहस करने का उल्लास भी। संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार, भारतीयों की इस उत्कृष्ट विशेषताओं की ही पुष्टि करते हैं। सामाजिक मापदंड या राजनीतिक विचारधारा का अनुपालन इसे सीमित करता है।
प्राचीन भारत ने विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान में और इन सबसे बढ़कर योग के माध्यम से शरीर और मस्तिष्क की एकता को पहचानने में जो उपलब्धि हासिल की वह गौरव का विषय है। परंतु अतीत की बेहतरी भविष्य के शानदार होने की गारंटी नहीं हो सकती है। अतीत से प्रेरणा ली जा सकती है लेकिन वह भविष्य का स्थानापन्न नहीं हो सकता है। आंबेडकर का योगदान भारत को भविष्यदर्शी संविधान सौंपने में निहित है। उन्होंने एक ऐसे आधुनिक भारत को लेकर दृष्टि तैयार की जिसने अतीत की सामाजिक दुर्बलताओं को त्याग दिया है, तथा अपने लंबे और कष्टपूर्ण इतिहास में पहली बार एक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज का निर्माण किया है।
आंबेडकर ने देश की व्यापक विविधता को पहचानते थे और एक कठोर संविधान के माध्यम से एकवर्णी ढांचे को लागू करना लगभग असंभव मानते थे। वह ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनाना चाहते थे जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना हो। वह ऐसा भारतीयों द्वारा उत्साहपूर्वक और अक्सर आक्रामक रूप से संरक्षित की जाने वाली विभिन्न पहचानों के दमन के माध्यम से नहीं, बल्कि इनसे ऊपर उठकर नागरिकता की एक बड़ी, सर्वव्यापी पहचान के पक्ष में काम करके हासिल करना चाहते थे।
इस स्तर पर संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का भी पूर्ण लाभ मिलता है। लोग जिस समुदाय से हों उसके मानकों का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन अगर वे सामुदायिक मानकों को नकार कर अपने व्यक्तिगत चयन के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं तो समुदाय उस व्यक्ति या उसके आचरण पर कोई दावा नहीं कर सकता है। राज्य को समुदाय के विरुद्ध उसके अधिकारों की रक्षा करनी ही होती है। वह ऐसा करने के लिए वचनबद्ध है। अक्सर इसे अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों में देखा जा सकता है जहां वयस्क नागरिकों द्वारा किए गए चयन को तरजीह दी जाती है। इसके बावजूद हमें ऐसे मामले भी देखने को मिलते हैं जहां राज्य व्यक्तिगत लोगों के खिलाफ किए गए समुदाय के दावों को स्वीकार करता है। अब कई राज्यों में इस व्यवहार को कानूनी जामा पहनाकर स्वीकार्य बनाया जा रहा है। यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।
आंबेडकर ने हमें एक उदार संविधान दिया था और उदारवाद लोकतंत्र का बुनियादी गुण है। एक ‘अनुदार लोकतंत्र’ विरोधाभासी शब्द युग्म है। उदारवाद का लगातार मजाक उड़ाया जाना और उसमें आस्था रखने वालों को बुरा बताना लोकतंत्र को कमजोर करता है। आंबेडकर नहीं चाहते थे कि उनकी विरासत का जश्न इस तरह मनाया जाए। आज यदि वे जीवित होते तो भारतीय समाज में उभरी कई खामियों को लेकर चिंतित और उद्विग्न होते। ये खामियां सामाजिक और आर्थिक असमानता में इजाफा करती हैं। सांप्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजन को बढ़ाती हैं और आधुनिक भारत की उस कल्पना को विकृत करती हैं जिसे उन्होंने संविधान का अभिन्न अंग बनाया था। उनकी स्मृति को सही सम्मान देते हुए हमें भारत के हालात और देश के लिए उनके बताए मुक्तिमार्ग को लेकर उनकी गहन अंत:दृष्टि पर पुनर्विचार करना चाहिए।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)