नई सरकार का गठन इस बात का अवसर है कि देश की आर्थिक रणनीतियों की समीक्षा की जाए। सालाना बजट जल्दी ही सदन में पेश किया जाएगा। बजट में ऐसी आर्थिक नीति पेश की जानी चाहिए जो 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करें, जो भारत की आजादी की सौवीं वर्षगांठ का वर्ष है।
इस रणनीति को निर्धारित करने के लिए कुछ सीमाओं की आवश्यकता है। भारत चीन की वृद्धि के तौर तरीकों का अनुकरण नहीं कर सकता है। चीन ने वृद्धि के लिए संसाधन और ऊर्जा आधारित रुख अपनाया। उसने विकसित देशों के औद्योगीकरण के मॉडल को अपनाया। चीन के मॉडल का अनुकरण भारत नहीं कर सकता है। दुनिया में एक और चीन की गुंजाइश नहीं है। चीन का मॉडल जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों तथा पारिस्थितिकी संबंधी टिकाऊपन की जरूरी मांगों के साथ तालमेल वाला भी नहीं है।
चीन शायद इस वर्ष ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है और अब इसमें गिरावट आएगी। अगर सब ऐसा ही चलता रहा तो भारत का उत्सर्जन भी बढ़ेगा और हम पर यह अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ेगा कि हम उत्सर्जन में कमी करें। ऐसा इसलिए कि दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन संबंधी कदम तेज होंगे।
अपनी वृद्धि संभावनाओं को बरकरार रखने के लिए भारत को ऐसी आर्थिक रणनीति अपनानी होगी जो मौजूदा जीवाश्म ईंधन आधारित व्यवस्था से नवीकरणीय और स्वच्छ ऊर्जा माध्यमों पर आधारित व्यवस्था में तेजी से रूपांतरण कर सके। भारत पहले ही ऊर्जा में बदलाव की प्रक्रिया अपना चुका है लेकिन उसे इससे भी तेज गति से यह करना होगा।
भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है और इसी दशक में वह तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भी बन सकता है। परंतु यह उसके भू-राजनीतिक प्रभाव में तब तक नहीं बदलेगा जब तक कि हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ अपनी आर्थिक संबद्धता नहीं बढ़ाते।
लक्ष्य होना चाहिए देश के विदेश व्यापार में इजाफा ताकि हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कारोबारी ताकत बन सकें। भारत की वैश्विक आर्थिक छाप बहुत तगड़ी नहीं है। दुनिया के निर्यात में अभी भारत की हिस्सेदारी 1.8 फीसदी है और वह 18वें स्थान पर है। वैश्विक आयात में हम 2.8 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ दुनिया में नौवें स्थान पर हैं। भारत को अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की संरक्षणवादी नीतियों का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। उसे मौजूदा वैश्विक व्यापार की दो विशेषताओं का ध्यान रखना चाहिए।
पहली, इस व्यापार का बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं के तहत व्यवस्थित है। ऐसे में यह बात भारत के हित में है कि वह ऐसी व्यवस्था का हिस्सा बने, खासतौर पर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) का। कोशिश यह होनी चाहिए कि हम जल्दी ही कांप्रहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) में शामिल हों। ये दोनों व्यापार समझौते एशिया केंद्रित हैं और आने वाले वर्षों में विश्व व्यापार में एशिया ही सबसे महत्त्वपूर्ण होगा। इन समझौतों के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं को सही तरीके से तय करना चाहिए और इसके लिए उचित समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए। कुछ विकसित देश ऐसा कर चुके हैं।
भारत को एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) में शामिल होने के आवेदन को नए सिरे से प्रस्तुत करना चाहिए। यह कोई कारोबारी व्यवस्था नहीं बल्कि एक मंच है जहां बेहतरीन व्यवहार साझा किए जाते हैं और जो नीतिगत सुसंगतता, सुविधा और निवेश को बढ़ावा देने तथा बाजार संबंधी जानकारी प्रदान करने का काम करता है।
फिलहाल विश्व व्यापार का करीब 70 फीसदी क्षेत्रीय और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के जरिये होता है। अगर भारत को वैश्विक कारोबारी शक्ति बनना है तो उसे इनका हिस्सा बनना होगा। उच्च सीमा शुल्क वाली व्यवस्था इन आपूर्ति श्रृंखलाओं में भागीदारी की राह में बाधा है। वर्ष 2014-15 से भारत के सीमा शुल्क में नियमित इजाफा हुआ है।
नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष और जाने माने व्यापार अर्थशास्त्री अरविंद पानगड़िया ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे एक आलेख में कहा कि 2014-15 में जहां उच्च आयात शुल्क की शुरुआत हुई वहीं असली बदलाव 2018-19 में आया जब सभी शुल्कों में 42.3 फीसदी का इजाफा हुआ। सीमा शुल्क भी औसतन 13.7 फीसदी से बढ़कर 17.7 फीसदी हो गया। उन्होंने कहा, ‘यह उदारीकरण से संरक्षणवाद की ओर स्पष्ट बदलाव था।’
अगर भारत को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था बनना है तो उसे इस स्थिति को पलटना होगा। आगामी बजट में यह बदलाव नजर आना चाहिए। घरेलू मूल्यवर्धन अधिक ढांचागत सुधारों पर केंद्रित होना चाहिए। मसलन अधोसंरचना में सुधार, नियामकीय और नीतिगत सुधार तथा तकनीकी नवाचार। शुल्क घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने का आलसी किस्म का उपाय है।
दुनिया में किसी भी देश ने बिना जीवंत विनिर्माण के अहम आर्थिक प्रगति नहीं की है। भारत जैसे देश में जहां आबादी अधिक है और तेजी से बढ़ रही है तथा जहां युवा बहुत हैं, वहां श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर दिया जाना चाहिए। औद्योगीकरण के आरंभिक दौर में असंगठित क्षेत्र छोटे और मझोले उपक्रम ही रोजगार का प्रमुख साधन रहेंगे।
अब जबकि आधुनिक और पूंजी आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी एक बड़ा सुधार है लेकिन इसके प्रावधान और अनुपालन प्रक्रियाओं की लागत छोटे और मझोले उपक्रमों पर भारी पड़ती है। जीएसटी की प्रक्रियाओं को सहज बनाने तथा वर्तमान 40 लाख रुपये से अधिक टर्नओवर वाले लोगों के लिए रियायत की सीमा बढ़ाने की जरूरत है।
उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। स्वाभाविक रूप से यह तकनीक तथा पूंजी गहन उद्योगों को बढ़ावा देती है लेकिन इससे बहुत अधिक रोजगार नहीं तैयार होते। जो दुर्लभ संसाधन अभी इस योजना के लिए आरक्षित हैं उनका इस्तेमाल छोटे और मझोले उपक्रमों के लिए बेहतर हालात बनाने में किया जा सकता है। यह काम औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही क्षेत्रों में किया जा सकता है।
औपचारिक अर्थव्यवस्था के विस्तार की कोशिशों के बावजूद देश की 50 फीसदी आर्थिक गतिविधियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि देश का 80 फीसदी से अधिक गैर कृषि रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को खारिज करने के बजाय उसे जीवंत वृद्धि और रोजगार का संभावित स्रोत मानना चाहिए। इसे आधुनिक होती अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल नहीं माना जाना चाहिए।
एक नए राजनीतिक प्रतिष्ठान के पास यह अवसर होता है कि वह आर्थिक मोर्चे पर नए विचार सामने रखे, पुराने अनुमानों पर सवाल खड़े करे और नए रवैयों की पड़ताल करे। यह बहस सरकारी तंत्र से आगे बढ़कर व्यापक नागरिक समाज तक पहुंचनी चाहिए। आज हम जो दिशा तय करेंगे वही आने वाले समय में देश के भाग्य का निर्धारण करेगी।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के मानद फेलो हैं)