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आजाद भारत के इतिहास में 25 जून को एक ऐसी घटना की 50 साल पूरे हो रहे हैं जिसमें 21 महीनों तक सत्ता का अतिरेक देखने को मिला था। उस अवधि में नागरिकों की संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं को खत्म कर दिया गया था और विभिन्न संस्थानों की नियंत्रण एवं संतुलन व्यवस्था पूरी तरह विफल हो गई थी। आपातकाल पर राष्ट्रपति, कैबिनेट और संसद ने मुहर लगाई थी। यह आपातकाल बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति के खतरे के नाम पर लगाया गया था।
इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के पीठ के उस कुख्यात निर्णय से भी बल मिला जिसके तहत हैबियस कार्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण, यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को गैर कानूनी तरीके से हिरासत में नहीं रखा जा सकता) जैसे मौलिक संरक्षण तक को निरस्त कर दिया गया था। कुल मिलाकर देखें तो जिन लोगों या संस्थाओं को लोकतांत्रिक मूल्यों का संरक्षण करना था उनके द्वारा इनके उल्लंघन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार को प्रतिपक्षियों को असीमित अवधि तक हिरासत में रखने में मदद की। इसने प्रेस की आजादी को भी अभूतपूर्व तरीके से कुचले जाने की परिस्थितियां तैयार कीं।
संविधान के अनुच्छेद 352 की आड़ लेकर इंदिरा गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण का एक ऐसा कठोर कार्यक्रम आरंभ किया जिसने हजारों परिवारों के नागरिक अधिकारों का उल्लंघन किया। उन्होंने झुग्गियों को तोड़ने की एक परियोजना भी चलाई जिसका नतीजा विरोध कर रहे रहवासियों को पुलिस द्वारा मारे जाने के रूप में सामने आया। मानवाधिकारों के हनन की यह कहानी अफसरशाही या निर्वाचित पदाधिकारियों द्वारा नहीं लिखी गई थी बल्कि यह इंदिरा गांधी के बेटे द्वारा असंवैधानिक शक्ति के प्रयोग से जन्मी थी। प्रेस पर लगे प्रतिबंधों तथा खबरों को गायब किए जाने के कारण देश की आबादी का बड़ा हिस्सा इस बारे में ठीक से जान ही नहीं पाया।
ऐसे समय में जब प्रेस की आज़ादी को कुचलने के छिपे हुए प्रयासों की बात जोर पकड़ रही है, यह याद करना उचित है कि आपातकाल के दौरान लोकतंत्र के इस चौथे खंभे पर किस कदर दबाव बनाया गया था और इसके क्या परिणाम हुए थे। उस समय जो दमनकारी गतिविधियां सामने आई थीं उनमें आपातकाल की घोषणा के महज कुछ घंटों के भीतर दिल्ली के प्रमुख समाचार पत्रों के दफ्तरों-प्रेस की बिजली काट देने जैसी घटना शामिल थी ताकि उन्हें छपने से रोका जा सके।
आश्चर्य नहीं कि निरंतर दमन और दबाव के माहौल में जहां बिना जमानत के जेल भेज दिया जाना आम था, कई संपादकों ने सीमित प्रतिरोध की राह चुनी। जो अधिक साहसी थे, उन्होंने तानाशाही की सीमाओं को परखने का प्रयास किया। मिसाल के तौर पर इंडियन एक्सप्रेस ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन के विरुद्ध मूक प्रतिरोध के रूप में अपने संपादकीय पन्ने को पूरी तरह खाली प्रकाशित कर दिया था। सूचनाओं का प्राथमिक स्रोत सरकारी नियंत्रण वाला दूरदर्शन और आकाशवाणी ही रह गए थे, जो सरकार का प्रचार करते थे।
ऐसे में आम भारतीय दमन को ठीक से समझ भी नहीं पा रहे थे। किसी भी लोकतांत्रिक देश में स्वतंत्र प्रेस न केवल लोगों को शिक्षित करने का काम करती है बल्कि वह उन्हें वैचारिक चयन और विकल्प भी मुहैया कराती है। प्रेस सरकारों के लिए भी अहम है। सत्ता से सच बोलना भले असहज करे लेकिन वह उसे बताता है कि जनता क्या सोच रही है। इन आवाजों को खामोश करना इंदिरा गांधी की बुनियादी गलती थी। अपने इर्द गिर्द मौजूद लोगों के कहने में आकर उन्होंने चुनावों की घोषणा कर दी और उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई।
50 साल बाद आपातकाल बुजुर्ग पीढ़ी की यादों में है जिन्होंने उसे जिया। 1990 के बाद जन्मे भारतीयों के लिए उदारीकरण के बाद आई समृद्धि और आत्मविश्वास ने उस काले दौर की समझ को धुंधला कर दिया है। परंतु उसकी छाया बरकरार है क्योंकि संस्थागत ढांचा और शासन संस्कृति वही पुरानी है। उदाहरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 1975 में हैबियस कार्पस पर लगे प्रतिबंधों को 2017 में जाकर समाप्त किया। 25 जून, 1975 और 21 मार्च, 1977 के बीच आपातकाल के दौरान भारतीय गणराज्य के बुनियादी विचारों को मजाक बना दिया गया। यह दिखाता है कि जब लोकतंत्र की रक्षा के लिए जिम्मेदार लोग उसे जानबूझकर कमजोर करते हैं तो इसके कितने बुरे परिणाम सामने आते हैं। उन तमाम सबक को भूलना नहीं चाहिए।