Pharma and health care funds: हेल्थ-केयर थीम पर आधारित दो म्युचुअल फंड—डीएसपी निफ्टी हेल्थ केयर इंडेक्स फंड (DSP Nifty Health care Index Fund) और बड़ौदा बीएनपी परिबास हेल्थ एंड वेलनेस फंड (Baroda BNP Paribas Health and Wellness Fund)— के नए फंड ऑफर (NFOs) ने हाल ही में बाजार में दस्तक दी है। फंड हाउस डीएसपी की नई स्कीम में सब्सक्रिप्शन बंद हो गया है। हालांकि बड़ौदा बीएनपी परिबास का नया फंड फिलहाल निवेश के लिए खुला हुआ है। फार्मा और हेल्थ केयर कैटेगरी ने बीते एक साल में औसतन 15.8% का दमदार रिटर्न दिया है, जो इस अवधि में दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला इक्विटी सेगमेंट रहा है।
विश्व बैंक के अनुसार, पिछले 100 वर्षों में औसत आयु तीन गुना हो गई है। बड़ौदा बीएनपी परिबास एसेट मैनेजमेंट कंपनी के चीफ इन्वेस्टमेंट ऑफिसर – इक्विटी संजय चावला कहते हैं, “जैसे-जैसे जीवनकाल बढ़ता है, दवाओं और स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग की प्रवृत्ति भी बढ़ती है।”
भारत का हेल्थ केयर खर्च जीडीपी का 4% से भी कम है, जो ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से काफी पीछे है—इन देशों में यह आंकड़ा 7–9% के बीच है। कोटक एएमसी की सीनियर एग्जीक्यूटिव वाइस-प्रेसिडेंट, सीनियर फंड मैनेजर और हेड – इक्विटी रिसर्च शिबानी सरकार कुरियन कहती हैं, “जैसे-जैसे भारत मिडिल इनकम इकोनॉमी की ओर बढ़ेगा, हेल्थकेयर पर खर्च प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना में कहीं तेज गति से बढ़ेगा।”
हेल्थकेयर सेक्टर में फार्मा कंपनियां, अस्पताल, डायग्नोस्टिक्स और सीडीएमओ (कॉन्ट्रैक्ट डेवलपमेंट एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑर्गनाइजेशन) शामिल हैं—और इन सभी के ग्रोथ ड्राइवर्स अलग-अलग हैं। फार्मा कंपनियों की आय में घरेलू बिक्री की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा होती है। भारत का ब्रांडेड फार्मा मार्केट लगभग 27 अरब डॉलर का रेवेन्यू जेनरेट करता है। मिरे असेट इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स (इंडिया) के फंड मैनेजर वृजेश कसेरा कहते हैं, “बढ़ती डिस्पोजेबल इनकम, जागरूकता और इंश्योरेंस की पहुंच इन फंड्स के प्रदर्शन के प्रमुख कारक होंगे।” जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों (जैसे हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और मोटापा) के मामलों में बढ़ोतरी घरेलू फार्मा इंडस्ट्री की बिक्री को तेज करने में मदद कर सकती है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका भारतीय फार्मा कंपनियों का सबसे बड़ा बाजार बना हुआ है, जहां वॉल्यूम के लिहाज से बिकने वाली जेनरिक दवाओं में 40% से ज्यादा हिस्सेदारी भारतीय कंपनियों की है। कसेरा का मानना है कि पेटेंट खत्म होने और फाइलिंग में बढ़ोतरी की वजह से विकसित बाजारों में निर्यात और बढ़ेगा।
कुरियन कहती हैं, “भारतीय कंपनियां अब सिर्फ जेनरिक दवाओं के सप्लायर से आगे बढ़कर स्पेशलिटी और कॉम्प्लेक्स जेनरिक्स बनाने की ओर बढ़ रही हैं। इससे इनकी प्रॉफिटेबिलिटी में संरचनात्मक रूप से इजाफा होगा।” भारत को केमिस्ट्री से जुड़ी सेवाओं के मजबूत आधार, बौद्धिक संपदा सुरक्षा में सुधार और बेहतर गवर्नेंस का लाभ मिल रहा है। अमेरिका के बाहर सबसे ज्यादा GMP (गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेज) अप्रूव्ड प्लांट्स भारत में हैं।
कॉन्ट्रैक्ट रिसर्च और मैन्युफैक्चरिंग एक उभरता हुआ ग्रोथ सेगमेंट है। चावला कहते हैं, “कई इनोवेटिव कंपनियां लागत में कटौती के लिए अपने रिसर्च और डेवलपमेंट (R&D) और मैन्युफैक्चरिंग का एक हिस्सा भारत को आउटसोर्स करने पर विचार कर रही हैं। पेटेंट कानूनों का सम्मान और कम लागत वाला मैन्युफैक्चरिंग माहौल भारत को सप्लाई चेन में एक अहम साझेदार बना सकता है।”
कुरियन का कहना है कि सीडीएमओ सेक्टर में भारत की ओर जो डिमांड शिफ्ट हो रही है—चीन के विकल्प के तौर पर—वह रुझान आने वाले कई वर्षों तक जारी रहने की संभावना है। अस्पतालों में भी तेजी से कॉरपोरेटाइजेशन हो रहा है। ज्यादातर क्षमता विस्तार ब्राउनफील्ड प्रोजेक्ट्स के जरिये किया जा रहा है। इससे वॉल्यूम ग्रोथ तो मिलेगी ही, साथ ही लंबी अवधि में मुनाफे में भी इजाफा होगा।
बाहरी जोखिमों में अमेरिका को होने वाले भारतीय दवा निर्यात पर संभावित टैरिफ शामिल हैं, जो फिलहाल अतिरिक्त शुल्क से छूट प्राप्त हैं। अगर ये टैरिफ लगाए जाते हैं, तो कम से कम निकट भविष्य में जेनेरिक दवाओं के मार्जिन पर असर पड़ सकता है। इसके अलावा, भारतीय मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में अनुपालन संबंधी चूक भी निर्यात में बाधा डाल सकती है।
घरेलू बाजार में भी कई तरह की चुनौतियां मौजूद हैं। कसेरा कहते हैं, “ऐसे बाजार में जहां ब्रांडेड दवाओं का बोलबाला है, वहां जेनेरिक दवाओं की हिस्सेदारी बढ़ने से ग्रोथ और मुनाफे पर असर पड़ सकता है।”
चावला कहते हैं, “सरकार ने ब्रांडेड दवाओं पर मूल्य नियंत्रण (प्राइस सीलिंग) लगाने की कोशिश की है। यह कंपनियों के पोर्टफोलियो का लगभग 18–20% हिस्सा है।”
कुरियन कहती हैं कि अगर मूल्य नियंत्रण उपायों के दायरे में बड़ा इजाफा होता है, तो इससे कंपनियों के मुनाफे पर बड़ा असर पड़ सकता है। भविष्य में रेगुलेशन अस्पतालों के मूल्य निर्धारण तक भी बढ़ सकता है।
फिलहाल हेल्थकेयर सेक्टर की वैल्यूएशन ऊंचे स्तर पर है। कसेरा कहते हैं, “यह सेक्टर अपने पिछले आंकड़ों के औसत के मुकाबले एक स्टैंडर्ड डिविएशन ऊपर ट्रेड कर रहा है।”
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ये फंड्स लॉन्ग टर्म निवेशकों के लिए बेहतर साबित हो सकते हैं। चावला कहते हैं, “ऐसे निवेशक जिनकी निवेश अवधि मध्यम से लंबी है और जो कम उतार-चढ़ाव वाले सेक्टर में पोर्टफोलियो का डायवर्सिफिकेशन करना चाहते हैं, वे फार्मा, हेल्थकेयर और वेलनेस थीम पर आधारित फंड्स पर विचार कर सकते हैं।”
प्लान अहेड वेल्थ एडवाइजर्स के चीफ फाइनेंशियल प्लानर विशाल धवन का कहना है कि ये फंड मेडिकल खर्च में बढ़ोतरी से बचाव (हेज) का एक विकल्प हो सकते हैं। हालांकि, वे चेताते हैं कि इन फंड्स में अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जुड़े जोखिम होते हैं, इसलिए जिन निवेशकों की प्राथमिकता सिर्फ घरेलू एक्सपोजर है, उन्हें इनसे बचना चाहिए।
धवन की सलाह है कि ऐसे फंड्स में इक्विटी पोर्टफोलियो का अधिकतम 10% ही निवेश करें और निवेश की अवधि 5–10 साल की रखें। वे आगे कहते हैं कि आक्रामक निवेशक यदि ज्यादा रिटर्न (अल्फा जेनरेशन) चाहते हैं, तो उन्हें एक्टिव फंड्स चुनने चाहिए, जबकि मध्यम जोखिम प्रोफाइल वाले निवेशकों के लिए इस क्षेत्र में पैसिव फंड्स बेहतर विकल्प हो सकते हैं।