मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों को लेकर एक ओर तो डर और आक्रोश का माहौल है ही, वहीं दूसरी ओर जिम्मेदारी और नुकसान का मसला भी उठेगा।
हालांकि इस बारे में कोई शक नहीं है कि जो कुछ हुआ उसे प्रबंधन के लिए रोक पाना मुमकिन नहीं था। फिर भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह होगा कि क्या इन होटलों ने आतंकवादी हमले के खिलाफ बीमा कराया था।
ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि उन्होंने पब्लिक लाइबलिटी इंश्योरेंस पॉलिसी के साथ साथ कुछ ऐसी बीमा पॉलिसी करा रखी थीं। पर अगर ऐसा नहीं है तो फिर कंपनियां बीमा पॉलीसियों के तहत क्लेम का पूरा फायदा नहीं उठा पाएंगी।
तो ऐसे में अगर बीमा कवर पर्याप्त नहीं हो तो (यहां 750 करोड़ रुपये की सीमा है) तो क्या ऐसे में क्या इस हमले के शिकार या फिर उनके परिवार वाले नुकसान की भरपाई के लिए दावा कर सकेंगे? इस दावे का आधार यह हो सकता है कि होटल प्रबंधन ने अपने ग्राहकों की सुरक्षा के लिए पुख्ता कदम नहीं उठाए थे।
क्या एक जनहित याचिका दायर कर ऐसे मामलों में कानून निर्माताओं और सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है? सरकार ने ही आतंकवाद और उससे होने वाले नुकसान से निपटने के लिए ठोस नीतियां और कानून नहीं तैयार किये थे। अगर ऐसे कानून बनाए गए होते और सुरक्षा एजेंसियां मुस्तैद होतीं तो इन हमलों को रोका जा सकता था।
अमेरिकी सरकार आतंकवादी हमलों को रोक पाने में विफल रही कानूनों को लेकर उठे विवाद से इतना परेशान हो चुकी थी और वह नुकसान के लिए तीसरी पार्टी के दावों के बारे में बात भी नहीं करना चाहती थी। इसे देखते हुए सरकार ने तीसरी पार्टी की जिम्मेदारियों और दावों पर ही रोक लगा दी।
ऐसी कार्यवाहियां उस राष्ट्र के लिए काम कर सकती हैं जहां पहली बार इस तरह की आतंकवादी घटनाएं घटी हों। और इन कार्यवाहियों से यह सुनिश्चित कर लिया गया है कि ऐसी घटना फिर से न होने पाएं।
पर भारत में मुआवजे के लिए कोई मेकेनिज्म नहीं है। 11 सितंबर की घटना के बाद कई देशों ने आतंकवाद बीमा कानून बनाया जिसके तहत ऐसा प्रावधान था कि कोई भी व्यवस्था इस तरह के आतंकवादी घटनाओं की जिम्मेदारी ये मुंह मोड़ता हो तो उसका प्रभाव न हो।
दूसरे शब्दों में कहें तो इस कानून का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि बीमा कंपनियां सभी तरह की संपत्तियों जैसे मकानों, सड़कों, सुरंग, हवाईअड्डों आदी के लिए आतंकवाद के खिलाफ बीमा उपलब्ध कराएं। अगर इन बातों पर विचार करें तो क्या कंपनियों के खिलाफ आपराधिक जिम्मेदारियों को लेकर मामला दर्ज किया जा सकता है।
स्पष्ट तौर पर नहीं। पर इस घटना को भोपाल गैस त्रासदी या फिर उपहार सिनेमा आगजनी कांड से जोड़ कर देखना कहीं से भी सही नहीं होगा क्योंकि मुंबई के होटलों में हुए इन हमलों में तो होटल के कर्मचारियों ने अपनी जान पर खेलकर कई ग्राहकों की जान बचाई। पर फिर भी कुछ सवालों को लेकर बहस तो होनी ही है।
होटल में बड़ी भारी संख्या में हथियार और विस्फोटक लाए गए थे जिसके सहारे आतंकवादियों ने लंबे समय तक पुलिस के खिलाफ गोलीबारी की। इतने अधिक हथियारों को रातों रात तो होटल में पहुंचाना मुमकिन नहीं है तो फिर होटल के प्रबंधन को इसकी भनक क्यों नहीं लगी।
इन हथियारों को कहां लाकर रखा गया था और इसे सुरक्षित रखवाने के लिए होटल का कौन सा कर्मचारी आतंकवादियों के साथ मिला हुआ था। और अगर होटल का कोई कर्मचारी इसमें मिला हुआ था तो फिर इसकी गाज किन लोगों पर गिरेगी?
क्या इसके लिए कंपनियों से पूछताछ की जा सकती है और क्या इसके लिए निदेशकों को भी जिम्मेदार ठहराया जाए? सच्चाई तो यह है कि कंपनियों की आपराधिक जिम्मेदारी का मसला दिन पर दिन जटिल होता जा रहा है।
इस साल देश में कुछ बड़ आतंकवादी हमले हुए पर उसके बाद भी सरकार ने अब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। केवल खास जगहों पर कुछ समय के लिए सुरक्षा इंतजामों को चुस्त कर दिया गया। इस्लामाबाद में जब मैरियट होटल पर हमला हुआ तो उसके बाद भी होटल उद्योग इसे लेकर सतर्क नहीं हुआ।
ग्राहकों की सुख सुविधा के लिए तो इन होटलों में तमाम तरह के इंतजामात किए जाते हैं पर ग्राहकों की सुरक्षा के नाम पर कोई पहली नहीं की गई थी।आपदा प्रबंधन कानूनों का महत्व तब ही है जब सही मायने में इन्हें लागू किया जाए।