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प्रवासी से सेवा लीजिए तो फिर कर भी दीजिए!

Last Updated- December 07, 2022 | 4:06 PM IST

ऐसे प्रवासी जिनकी भारत में उपस्थिति नहीं है और उसके बाद भी वे विदेशों से ही भारतीयों को अपनी सेवाएं दे रहे हों तो क्या सेवा पाने वाले व्यक्तियों पर कर लगाया जाना चाहिए।


यह भारतीय सेवा कर कानून के दायरे में आने वाला एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में अक्सर सवाल पूछा जाता है। भारतीय प्रवासियों की ओर से जो सेवाएं पाते हैं उन्हें सेवा का आयात कहना भी शायद गलत नहीं होगा तो क्या ऐसे में उन पर सेवा कर लगाना उचित होगा। इस लेख में हम इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे।

पहली बार सेवा कर कानून में 1997 में संशोधन किया गया था ताकि सेवा प्राप्त करने वाले उपभोक्ताओं पर कर लगाया जा सके। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने इस व्यवस्था को 1999 में लघु उद्योग भारती के मामले में खारिज करते हुए कहा था कि वित्तीय कानून 1994 में इस बात की व्यवस्था नहीं है कि सरकार सेवा का लाभ उठाने वाले लोगों से भी कर वसूल सके जैसा कि सेवा प्रदान करने वालों से लिया जाता है।

इस फैसले को ध्यान में रखते हुए आवश्यक संशोधन भी किए गए थे ताकि सेवा का लाभ उठाने वाले व्यक्तियों से कर नहीं वसूला जा सके। इसे उच्चतम न्यायालय ने भी आगे बनाए रखा। इन विकासों पर ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि यहीं से भारतीय सेवा कानून में ‘रिवर्स चार्ज’ प्रावधानों की शुरुआत होती है।

ऐसा प्रवासी भारतीय जिसका भारत में कोई दफ्तर नहीं हो और उसके बाद भी भारतीयों को सेवाएं दी जा रही हों तो उस पर कर वसूलने के लिए सेवा कर कानून 1997 के रूल 2(1)(डी)(4) को अधिसूचना संख्या 122002-एसटी तारीख 1 अगस्त, 2002 के जरिए शामिल किया गया था।

इसमें कहा गया था कि ऐसा व्यक्ति जो भारत में रहता हो और किसी प्रवासी भारतीय की ओर से दी जा रही सेवा का लाभ उठा रहा हो या फिर दूसरे शब्दों में कहें कि सेवाओं का आयात कर रहा हो तो उसे कर चुकाना आवश्यक होगा। हालांकि कर का भुगतान किस तरीके से किया जाना है और कौन से ऐसे लोग हैं जिन्हें कर चुकाना है इसका उल्लेख वित्तीय कानून की धारा में 68 में किया गया है।

जहां धारा 68 के उपबंध (1) में बताया गया है कि सेवा प्रदाता को कर का भुगतान करना जरूरी है, वहीं उपबंध (2) जो सेवा कर कानून के निर्माण के समय से ही लागू है उसमें कहा गया है कि किन लोगों को यह कर चुकाना है और किन किन तरीकों से।

इस तरह जहां सेवा कर कानून के रूल 2 (1)(डी)(4) में प्रावधान था कि कर वसूली के दायरे में आने वाली सेवाएं जो प्रवासियों की ओर से मुहैया कराई जाती हैं उन पर 1 अगस्त, 2002 से कर लगाया जाना चाहिए। पर फिर आगे इन सेवाओं के बारे में स्वतंत्र रूप से अधिसूचना जारी कर कहा गया कि 1 जनवरी, 2005 से इन पर कर वसूला जाएगा।

इसके लिए धारा 68 (2) में अवश्यक संशोधन भी किए गए थे। इन परिस्थितियों के चलते अनिश्चितता फैल गई है और इस मामले पर बहस उठने लगी है। यह जानना जरूरी है कि रूल 2 (1)(डी)(4) के साथ साथ धारा 68 (2) में शामिल सेवाएं भी टैक्सेबल सेवाओं के दायरे में आती हैं।

कर वसूली के दायरे में उन लोगों को शामिल किया गया है जो प्रवासी हैं या फिर भारत के बाहर रहते हैं और उनका भारत में कोई कार्यालय नहीं है। चूंकि इसमें साफ साफ कहा गया है कि उन्हीं सेवाओं पर कर लगाया जा सकता है जो भारतीयों को प्रवासियों की ओर से प्रदान की गई है, ऐसे में वे सेवाएं कर वसूली के दायरे में नहीं आती हैं जिनका भारतीयों ने आयात किया हो।

जैसा कि पहले भी कहा गया है कि कर लगाए जाने को लेकर जो स्वतंत्र प्रावधान किए गए हैं उनको लेकर भी काफी विवाद उठ खड़ा हुआ है। पर रूल 2(1)(डी)(4) और धारा 68 (2) में जिन दो तारीखों का उल्लेख किया गया है उसको लेकर जो चुनौती पेश की गई है वैसी स्थिति इस मामले में नहीं है। हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड बनाम सीसीई (2008 वीआईएल-18) के एक हालिया मामले में ट्रिब्यूनल की बड़ी बेंच ने इस विवाद पर सुनवाई की थी।

इस मामले में कुछ पिछले फैसलों को लेकर बहुत विवाद उठा था और इसी को ध्यान में रखकर इस बेंच का गठन किया गया था। ट्रिब्यूनल ने धारा 68 (2) के प्रावधानों का विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पहले उन सेवाओं की पहचान की जाए जिनका लाभ उठाने वाले उपभोक्ताओं को कर चुकाना जरूरी है और इसकी जानकारी अधिसूचना जारी कर दी जानी चाहिए।

अधिसूचना जारी कर बताए जाने के बाद ही सेवाओं का लाभ उठाने वाले उपभोक्ताओं को पता चलेगा कि उन्हें कर चुकाना है और तब संबंधित कानूनों के जरिए उनसे कर वसूला जा सकता है। इस मामले में राजस्व विभाग की दलील थी कि केंद्र सरकार को यह हक है कि वह यह तय करे कि सेवा कर की वसूली किन लोगों से की जानी है और यह वसूली किन तरीकों से की जानी चाहिए।

ऐसे में भले ही धारा 68 (2) में टैक्सेबल सेवाओं को शामिल नहीं किया गया है पर उसके बावजूद इस रूल के जरिए यह खुद ब खुद परिभाषित होता है कि किन सेवाओं पर कर लगाया जाना है और किन लोगों पर कर चुकाने की जिम्मेवारी है। अंतत 1 अगस्त, 2002 से रूल 2 (1)(डी)(4) को शामिल किए जाने को कानून की निगाह में सही कहा जा सकता है और सेवा प्रदान करने के संबंध में रिवर्स चार्ज मेकैनिज्म को भी उपयुक्त कहा जा सकता है।

ट्रिब्यूनल ने इस दलील को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और यह फैसला सुनाया कि सबसे पहले धारा 68 (2) में उन सेवाओं का उल्लेख किया जाना जरूरी है जिन पर कर वसूला जाना चाहिए। इससे साफ हुआ कि धारा 68 (2) और रूल 2 (1)(डी) को एक दूसरे का पूरक समझा जा सकता है और कर वसूली के लिए दोनों ही में आवश्यक संशोधन किए जाने जरूरी हैं।

इस फैसले के बाद साफ हो गया कि सेवा का लाभ उठाने वाले लोगों से 1 जनवरी, 2005 के बाद की तारीख से ही कर वसूला जा सकता है इसके पहले की तारीख से नहीं। फैसले ने लंबे समय से चले आ रहे विवाद पर एक तरह से विराम लगा दिया।

First Published - August 11, 2008 | 1:36 AM IST

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