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याचिका पर सुनवाई के लिए कुछ धनराशि जमा करने की शर्त

Last Updated- December 08, 2022 | 12:45 AM IST

सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में फैसला दिया है कि रिकवरी के खिलाफ याचिका को सुनवाई के लिए मंजूर करने के लिए अविवादित राशि का एक हिस्सा जमा करने को कहा जा सकता है।


सदर्न सेल्स ऐंड सर्विसेज बनाम साउरमिल्क डिजाइन ऐंड हैंडल्स जीएमबीएच के मामले में फैसला दिया है कि किसी पक्ष से उसकी याचिका पर सुनवाई के लिए शर्त के तौर पर गैर-विवादित राशि का एक हिस्सा जमा करने को कहा जा सकता है।

इस मामले में विदेशी कंपनी ने भारतीय कंपनी के खिलाफ 4 करोड़ रुपये की वसूली के लिए एक मामला दर्ज कराया। बाद में यह मामला बेंगलुरु के दीवानी न्यायाधीश के पास पहुंच गया जिन्होंने इस मुकदमे की सुनवाई के लिए शर्त थोप दी। इसके बाद भारतीय कंपनी इस निर्णय के खिलाफ कर्नाटक उच्च न्यायालय में पहुंच गई।

उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि कंपनी को सुनवाई से पूर्व गैर-विवादित राशि का 55 फीसदी हिस्सा जमा करना होगा। अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश 37 के आधार पर उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि कर दी।

इसमें यह स्पष्ट किया गया कि पहले सुनवाई बगैर किसी शर्त के की जाती थी। लेकिन 1977 में संहिता में संशोधन के बाद दीवानी न्यायालय गैर-विवादित राशि का एक हिस्सा जमा करने की शर्त लगा सकता है।

मध्यस्थता समझौते पर दस्तखत जरूरी नहीं

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि यदि एक पक्ष ने भले ही औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हों, तो भी मध्यस्थता पर आम सहमति बन सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीसी(इंडिया) लिमिटेड बनाम पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयूट (पीजीआई), चंडीगढ़ के मामले में यह फैसला दिया।

मामला यह था कि पीजीआई ने पल्स ऑक्सीमीटर के लिए निविदा आमंत्रित की थी। कंपनी उन्नीसी ने इसके लिए ऑफर दिया और इसे पीजीआई ने स्वीकार कर लिया था। पीजीआई की स्वीकृति के बाद उपकरणों की आपूर्ति की गई थी।

हालांकि कंपनी ने अपने हस्ताक्षर के साथ एक एग्रीमेंट भी पीजीआई को भेजा था, लेकिन उसने इसे हस्ताक्षर के साथ नहीं लौटाया। बाद में पीजीआई ने उपकरणों की गुणवत्ता को लेकर शिकायत की और कंपनी पर धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया तथा धरोहर राशि जब्त कर ली।

उसने यह भी कहा कि इस सौदे के लिए कोई समझौता कार्यान्वित नहीं किया गया और इसमें मध्यस्थता का कोई अनुच्छेद नहीं है। लेकिन कंपनी मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए चंडीगढ़ के जिला न्यायाधीश की शरण में पहुंच गई। न्यायाधीश ने पाया कि इसमें मध्यस्थता के बारे में कोई अनुच्छेद नहीं है।

अपील किए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निविदा दस्तावेज में ही मध्यस्थता संबंधी अनुच्छेद था। चूंकि पीजीआई ने दस्तावेज स्वीकार कर लिया था इसलिए इस मामले में मध्यस्थता का अनुच्छेद था। ऐसे में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से एक मध्यस्थ को नियुक्त करने को कहा गया।

अस्थायी श्रमिकों की बहाली नहीं

सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय और श्रम न्यायालय के उस फैसले को निरस्त कर दिया जिसमें यूपी शुगर ऐंड केन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन से अस्थायी श्रमिकों के एक समूह की स्थायी आधार पर बहाली करने को कहा गया था।

कॉरपोरेशन ने सर्वोच्च न्यायालय में की गई अपील में कहा कि इन श्रमिकों को अक्टूबर-अप्रैल के पेराई सत्र के बीच रखा गया था। इन श्रमिकों को स्थायी तौर पर नियुक्त करना प्रबंधकीय कार्य है जिसमें श्रम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

चीनी मिल मजदूर संघ, जिसने श्रमिकों के इस मुद्दे को उठाया था, ने तर्क पेश किया कि इन श्रमिकों ने गैर-पेराई सत्र के दौरान भी काम किया था, हालांकि उन्हें कम भुगतान किया गया था, और इसलिए वे स्थायी कर्मचारी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया और निगम के पक्ष में फैसला दिया है।

धान की नीलामी की अनुमति

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह फिरोजपुर में बड़ी मात्रा में पड़े धान की नीलामी की अनुमति दे दी। यह अनाज सड़ने के कगार पर पहुंच गया था। सतनाम एग्रो इंडस्ट्रीज और पंजाब स्टेट सिविल सप्लाइज कॉरपोरेशन लिमिटेड के बीच एक विवाद के कारण यह अनाज भंडार पड़ा हुआ था।

शुरू में न्यायालय ने नुकसान से बचाने के लिए दोनों पक्षों को धान के इस भंडार की सार्वजनिक नीलामी के जरिये बिक्री करने का सुझाव दिया था। न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक नीलामी  अदालत द्वारा ही संचालित की जाएगी और इससे प्राप्त होने वाली राशि किसी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में रख दी जाएगी ताकि उस पर ब्याज मिल सके। इस मुद्दे पर व्यापक सहमति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, फिरोजपुर से सार्वजनिक नीलामी आयोजित करने को कहा है।

ऑर्टेल कम्युनिकेशंस की याचिका खारिज

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह केबल ऑपरेटर ऑर्टेल कम्युनिकेशंस लिमिटेड की उस याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें राज्य सरकार की नीति के खिलाफ उड़ीसा उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी। इस नीति में बिजली के एक खंभे पर सिर्फ एक केबल की ही अनुमति दी गई है।

सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस नीति के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश पर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। ऑर्टेल उड़ीसा में केबल टीवी, ब्रॉडबैंड इंटरनेट और टेलीफोनी सेवाएं मुहैया कराने वाली प्रमुख कंपनी है।

उच्च न्यायालय ने इस साल मई में राज्य सरकार को एक ऐसी नीति बनाने का निर्देश दिया था जिसमें हर किसी को इलेक्ट्रिक खंभे की सुविधा हासिल करने का मौका समान रूप से मिल सके। उच्च न्यायालय ने प्रतिद्वंद्वी मल्टी-सिस्टम ऑपरेटर वैरायटी एंटरटेनमेंट लिमिटेड द्वारा दायर याचिका पर यह फैसला दिया था।

First Published - October 20, 2008 | 12:42 AM IST

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