पौड़ी गढ़वाल से लोकसभा सदस्य तीरथ सिंह रावत ने बुधवार को उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उनके शपथ ग्रहण करने से सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए एक समस्या का समाधान जरूर हो गया लेकिन कई और समस्याएं पैदा भी हो गई हैं। राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव में अब एक साल का वक्त बचा है और रावत ने अचानक और बेहद अजीब परिस्थितियों में अपने पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह ली है। त्रिवेंद्र चार साल तक राज्य की शासन-व्यवस्था की बागडोर अपने हाथों में थामे रहे और उन्होंने उत्तराखंड की नई राजधानी गैरसैंण बनाने के मुश्किल काम को अंजाम देने की कोशिश की और वह 18 मार्च को भाजपा सरकार के चार साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी में ही थे जब उनके ‘कामकाज की शैली’ को लेकर हो रही आलोचना की वजह से उन्हें पदमुक्त कर दिया गया। त्रिवेंद्र के लिए विधानसभा के 70 में से 57 विधायकों के बलबूते भाजपा के सभी हितों को समायोजित करने में मुश्किलें आ रही थी। हालांकि विधानसभा में भाजपा की सीटों के आंकड़े नहीं बदले हैं, ऐसे में नए मुख्यमंत्री को भी समान तरह की समस्या देखने को मिल सकती है। असंतुष्ट विधायक अपनी कम ताकत होने की शिकायतों के साथ ही मंत्री पद की मांग के साथ अपनी हताशा जाहिर कर रहे हैं।
अब बात त्रिवेंद्र की करें तो उन्होंने भी इस्तीफा देने से पहले अपना पद बचाए रखने के लिए काफी संघर्ष किया। पार्टी के एक दर्जन विधायक पिछले कई हफ्तों से दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं और इनमें से कई उनके करीबी माने जाते हैं। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को यह समझाने की पूरी कोशिश की कि सब कुछ उनके नियंत्रण में है और उनका विरोध करने वाले लोग भ्रष्टाचार को कतई बरदाश्त नहीं करने की उनकी नीति के कारण विरोध कर रहे हैं। लेकिन वह अपनी बात को रखने में नाकाम रहे। जब उन्हें अहसास हुआ कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है तब उन्होंने अपने नुकसान में कमी करने की रणनीति के तहत अपने सहयोगी शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत को अपनी जगह मुख्यमंत्री बनाने की पैरवी की। उन्होंने जितना इस बात पर जोर देने की कोशिश की कि नए मुख्यमंत्री इन्हीं विधायकों के बीच से होने चाहिए, उतना ही उलटा संदेश पार्टी नेतृत्व को गया कि मुख्यमंत्री कोई बाहरी ही होना चाहिए।
पार्टी नेताओं का कहना है कि इस तरह तीरथ सिंह रावत तस्वीर में आए। दिलचस्प बात यह है कि वह विधायक नहीं हैं (जिसका मतलब है कि भाजपा को एक विधानसभा सीट खाली कराने के लिए किसी विधायक का इस्तीफा चाहिए होगा जिस सीट पर नए मुख्यमंत्री छह महीने के भीतर चुनाव लड़ सकें। भले ही राज्य के विधानसभा चुनाव भी अगले छह महीने के भीतर हो जाएं)। उनके पास राज्य का कार्यभार संभालने और इसे चलाने के लिए चंद महीने का वक्त ही होगा। ऐसे में यह मुश्किल ही लगता है कि भाजपा विधानसभा की 70 सीटों में से 57 सीटें हासिल करने से और बेहतर रिकॉर्ड कैसे बना सकती है। ऐसे में सीटों की संख्या में कमी के लिए नए मुख्यमंत्री ही अनिवार्य रूप से दोषी ठहराए जाएंगे।
उत्तराखंड की भाजपा सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं। चमोली पनबिजली आपदा से प्रभावित लोगों के पुनर्वास और साल 2013 में आई केदारनाथ की प्राकृतिक आपदाओं के पीडि़तों के पुनर्वास के साथ-साथ सरकार को केंद्र सरकार द्वारा दिए गए नए निवेश प्रस्तावों को भी आगे बढ़ाने और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की रफ्तार को भी बढ़ाना है। अप्रैल में हरिद्वार में होने वाला कुंभ कोविड-19 महामारी की संक्रमण के इस दौर में ही आयोजित किया जाना है। ऐसे में यहां व्यवस्था पहले से बेहतर होनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संक्रमण की दर ज्यादा नहीं बढ़े क्योंकि देश भर से श्रद्धालु हरिद्वार आते हैं। पहली चारधाम यात्रा मई में शुरू होगी। इस पर भी बारीकी से नजर रखनी होगी और इसके आयोजन के लिए भी व्यापक तैयारी की जरूरत होगी।
जब उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था तब तीरथ सिंह रावत प्रदेश में शिक्षा मंत्री थे। वह 2007 विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए थे लेकिन 2013 में उन्हें पार्टी की जिम्मेदारियों को संभालने का मौका देते हुए उन्हें पार्टी की राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। वह 2015 तक प्रदेश अध्यक्ष रहे। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पार्टी के लिए नगर निगमों में मेयर के छह पदों में से चार पर जीत हासिल की। उन्होंने चौबट्टाखाल विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया जो फिलहाल भाजपा के खाते में है। जब वह पहली बार राजनीति में आए तब वह भाजपा के पूर्व नेता और मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (अवकाश प्राप्त) के चेले थे। लेकिन बाद में हालात ऐसे बने कि उन्होंने 2019 में पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट पर खंडूड़ी के बेटे मनीष के खिलाफ चुनाव लड़ा था जो विपक्षी दल कांग्रेस के उम्मीदवार थे। मनीष उस चुनाव में हार गए और रावत लोकसभा चले गए।
