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The India Story: ‘दुनिया का दवाखाना’ बनने का सफर

कभी दवाओं के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहने वाला भारत आज दुनिया भर में जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करने वाला प्रमुख देश बन चुका है।

Last Updated- December 30, 2024 | 12:24 AM IST
The India Story: The journey of becoming ‘the pharmacy of the world’ ‘दुनिया का दवाखाना’ बनने का सफर

करीब 25 साल पहले भारत का दवा उद्योग कहां था और अब वह कितना आगे निकल चुका है, यह समझने के लिए हमें 1970 के दशक में वापस जाना होगा जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को वैज्ञानिक यूसुफ हामिद का एक संदेश मिला था। हामिद अब प्रमुख औषधि कंपनी सिप्ला के गैर-कार्यकारी अध्यक्ष हैं। उन्होंने पूछा था कि क्या भारतीयों को जीवनरक्षक दवा (हृदय रोग की दवा प्रोप्रानोलोल) से वंचित रहने देना चाहिए क्योंकि उसके आविष्कारक को हमारी त्वचा का रंग पसंद नहीं है?

उसके बाद जो हुआ वह आज भारत की कॉरपोरेट गाथा का हिस्सा है। देश में पेटेंट कानून को रातोंरात बदल दिया गया। इससे हामिद जैसे भारतीय औषधि उद्योग के अग्रदूतों को विनिर्माण प्रक्रियाओं में मामूली संशोधन करने और पेटेंट वाली दवाओं के जेनेरिक दवा तैयार करने की अनुमति मिल गई। नए कानून में ऐसा प्रावधान किया गया कि कंपनियां केवल उत्पाद बनाने की प्रक्रिया का ही पेटेंट करा सकती हैं, उत्पाद का नहीं। साथ ही पेटेंट के तहत विशेष सुरक्षा अवधि केवल 7 वर्षों तक ही जारी रहेगी।

कई साल बाद भारत बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते का हस्ताक्षरकर्ता देश बन गया। यह समझौता 1 जनवरी, 1995 से प्रभावी हुआ था। विश्व व्यापार संगठन के सभी सदस्य देशों पर यह समझौता लागू होता है। भारत ने कुछ समय बाद इस समझौते पर अमल करने के लिए अपने पेटेंट कानूनों में संशोधन किया। इससे दवाओं के लिए का उत्पाद पेटेंट की शुरुआत हुई। इससे आविष्कारकों को विनिर्माण प्रक्रिया की परवाह किए बिना 20 वर्षों के लिए विशेष अधिकार प्रदान किए। मगर इस समझौते के बाद पिछले 25 वर्षों के दौरान अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) पर भारतीय औषधि कंपनियों के निवेश में जबरदस्त वृद्धि हुई है। इस प्रकार भारतीय औषधि कंपनियां वैश्विक औषधि मूल्य श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गईं।

भारत में औषधि क्षेत्र का स्वरूप निर्धारित करने में पेटेंट अधिनियम की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसने रिवर्स इंजीनियरिंग को प्रोत्साहित किया जिससे भारतीय कंपनियों को अलग-अलग प्रक्रियाओं के जरिये एक ही दवा का उत्पादन करने की अनुमति मिली। पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुए संशोधनों ने कंपनियों को नवाचार के लिए प्रेरित किया। मगर हालिया मसौदा पेटेंट (संशोधन) नियम, 2023 ने विशेषज्ञों के बीच चिंताएं बढ़ा दी हैं। उन्हें डर है कि इससे सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाओं की समय पर उपलब्धता बाधित हो सकती है।

भारत 1980 के दशक के उत्तरार्ध में दवाओं का शुद्ध आयातक से दुनिया भर में जेनेरिक दवाओं का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता देश बन गया। साल 1995 तक का भारत से दवाओं का निर्यात 50.4 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया था। साल 2023-2024 तक निर्यात तेजी से बढ़कर 27.9 अरब डॉलर तक पहुंच गया और 2024-25 में यह आंकड़ा 31 अरब डॉलर रहने का अनुमान है। पिछले दो दशक के दौरान भारत का औषधि उद्योग- घरेलू एवं निर्यात- में करीब 20 गुना वृद्धि हुई और वह 1999 में 3 अरब डॉलर से बढ़कर 2024 में 58 से 59 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है।

एक प्रमुख भारतीय औषधि कंपनी के पूर्व सीईओ ने अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर कहा कि पिछले पेटेंट दौर में हमारा ध्यान प्रक्रियाओं के विकास पर था। उन्होंने कहा, ‘2000 के दशक तक हमारे आरऐंडडी खर्च का 60 से 65 फीसदी हिस्सा प्रक्रिया इंजीनियरिंग एवं रिवर्स इंजीनियरिंग पर होता था और नोवल मॉलिक्यूल के विकास पर महज 5 फीसदी हिस्सा ही खर्च होता था। मगर 2005 के बाद इसमें काफी बदलाव हुआ है और अब आरऐंडडी मद का 30 से 35 फीसदी हिस्सा नवोन्मेषी अनुसंधान पर खर्च हो रहा है।’

जायडस लाइफसाइंसेज के चेयरमैन पंकज पटेल की कंपनी ने 12 वर्षों के शोध के बाद 2013 में मधुमेह और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने वाली दवा के लिए नई मॉलिक्यूल लिपाग्लिन (सरोग्लिटाजर) विकसित की। उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ दशकों में भारत दुनिया की फार्मेसी के रूप में उभरा है।’ भारत मात्रा के लिहाज से 20 फीसदी वैश्विक दवाओं और 60 फीसदी वैश्विक वैक्सीन की आपूर्ति करता है।

पटेल ने कहा, ‘भारत कम लागत वाली जेनेरिक, वैक्सीन और सस्ती दवाओं का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन चुका है।’ उन्होंने उम्मीद जताई कि यह क्षेत्र 2030 तक 130 अरब डॉलर को पार कर जाएगा और 2047 तक 400 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। उन्हें विश्वास जताया कि अगले दो दशक के दौरान काफी नवाचार दिखेंगे जिससे नई पेटेंट वाली भारतीय दवाएं आएंगी।

डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज के चेयरमैन सतीश रेड्डी भी इसी तरह की उम्मीद जताई। उन्होंने कहा कि भारत अब अमेरिका को 40 फीसदी जेनेरिक दवाओं और ब्रिटेन को 25 फीसदी दवाओं की आपूर्ति करता है। उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर भारत दवा उत्पादन में मात्रात्मक लिहाज से तीसरे पायदान पर और मूल्य के लिहाज से 14वें पायदान पर है। रेड्डी ने जोर देकर कहा, ‘मौजूदा 50 अरब डॉलर के मूल्य को बढ़ाकर साल 2030 तक 130 अरब डॉलर करने के लिए नवाचार काफी महत्त्वपूर्ण होगा। हमारे उद्योग में न केवल आकार एवं पहुंच बल्कि क्षमता, जटिलता एवं नवाचार में भी जबरदस्त वृद्धि दर्ज करने की क्षमता है।’

वैश्विक महामारी से मिली रफ्तार

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के पूर्व महानिदेशक बलराम भार्गव ने अपने संस्मरण गोइंग वायरल में लिखा है, ‘वह एक नाटकीय रात थी।’ उसी रात यहां के वैज्ञानिकों ने पाया कि सार्स-कॉव-2 वायरस भारतीय तटों तक पहुंच गया है।

कोविड वैक्सीन के मोर्चे पर भारत वैश्विक स्तर पर अग्रणी रहा और उसने कई उपलब्धियां हासिल कीं। पहला स्वदेशी रूप से विकसित डीएनए वैक्सीन, जायकॉव-डी (जाइडस लाइफसाइंसेस) थी। इसके अलावा इसमें भारत का पहला प्रोटीन सब-यूनिट वैक्सीन कॉर्बेवैक्स (बायोलॉजिकल ई), उसका पहला एमआरएनए वैक्सीन जेमकोवैक (जेनोवा बायोफार्मा) और दुनिया का पहला इंट्रानेजल कोविड-19 वैक्सीन, इनकोवैक (भारत बायोटेक) शामिल हैं। भारत में लोगों को दी गई कोविड वैक्सीन की दी गई 2.2 अरब खुराक में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) की कोविशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सिन का प्रमुख योगदान रहा।

पैनेसिया बायोटेक के सीएमडी राजेश जैन ने कहा, ‘यह एक अनूठी घटना थी जिसने दिखाया कि किस प्रकार हमारी व्यवस्था अस्पताल में बिस्तरों से लेकर टीका एवं दवाओं को तेजी से उपलब्ध करा सकती है।’ उन्होंने यह भी कहा कि काम की गति अब वैश्विक महामारी से पहले के स्तर पर लौट आई है। उन्होंने कहा, ‘वह एक असाधारण दौर था जब शोध की पूरी क्षमता एक ही लक्ष्य पर केंद्रित थी। मगर अब कंपनियां विभिन्न परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं।’ उदाहरण के लिए, पैनेसिया डेंगू के टीके पर आईसीएमआर के साथ सहयोग कर रही है।

हालांकि एक स्थायी बदलाव यह है कि हम अब कैसे भविष्य के किसी अज्ञात खतरे को लेकर कैसा नजरिया बनाते हैं। जैन कहते हैं, ‘दुनिया अब एक अप्रत्याशित और नए खतरे के लिए तैयार हो रही है और इसके लिए वैश्विक स्तर पर तुरंत प्रतिक्रिया देने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ ने अगली महामारी के लिए तैयार रहने के लिए राष्ट्रीय स्तर के अधिकारियों की मदद के लिए एक चेकलिस्ट जारी की है।’

भारत में कोविड-19 टीके का कवरेज सफलता की मिसाल बना जिसके तहत 12 वर्ष और इससे अधिक उम्र के टीके के योग्य 95 प्रतिशत आबादी को टीके की कम से कम एक खुराक दी गई जबकि 88 प्रतिशत ने टीके की दोनों खुराक ली।
मात्रा के आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी टीका निर्माता कंपनी एसआईआई अब ग्लोबल साउथ में कोएलिशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस (सीईपीआई) नेटवर्क का हिस्सा है जो भविष्य में बीमारी के प्रकोप से बचाव के लिए तेज और समान प्रतिक्रिया का समर्थन करता है। इस अभियान के तहत महामारी के खतरे की पहचान किए जाने के 100 दिनों के भीतर ज्ञात या नई संक्रामक बीमारियों के बचाव के लिए नए टीके तैयार करना है।

जैन का कहना है कि टीका उद्योग का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उनके पास दूसरे चरण के क्लिनिकल परीक्षण के लिए कई टीके और मंच तैयार हैं और उन्हें जल्द ही अग्रणी स्तर पर पहुंचाया जा सके। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इन टीका उम्मीदवारों के लिए बाजार सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि सरकार, उद्योग का समर्थन करे।

अगला 25 वर्षः एआई, जैविक दवा

फार्मा क्षेत्र से जुड़े दिग्गजों का मानना है कि वर्तमान और भविष्य की बीमारियों से बचाव में जैविक दवाओं (बायोलॉजिक्स) की अहम भूमिका होगी। पटेल कहते हैं, ‘करीब 11,000 ऐसे दुर्लभ और बीमारियां हैं जिनका कोई इलाज नहीं है और कुछ ऐसी उपेक्षित क्षेत्र विशेष बीमारियां हैं जिनका समाधान करने की जरूरत है।’

उनका कहना है कि भविष्य के लिए तैयार दवा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी जैसे कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई), इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) और बड़े डेटा एनालिटिक्स बदलाव के साथ ही विनिर्माण, गुणवत्ता और शोध में अहम सुधार लाएंगे।
मार्च में रेड्डी की टीम ने ‘इमर्जिंग फ्रेमवर्क्स इन इनोवेशन’ पर सरकारी शोध संस्थानों, अकादमिक जगत और उद्योग से जुड़े विशेषज्ञों का एक सम्मेलन आयोजित कराया जिसके बाद एक श्वेतपत्र तैयार किया गया। इन सभी में इस बात को लेकर सहमति बनी की नवाचार एजेंडे में तकनीक की लागत, नई क्षमता की जरूरत, लंबी अवधि और असफलता की अधिक कीमत को ध्यान में रखना चाहिए।

इसके अलावा निजी जरूरतों के हिसाब से सीएआर-टी सेल थेरेपी जैसे इलाज की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से जुड़े स्टार्टअप डोसेरी के संस्थापक, प्रबंध निदेशक और वैश्विक सीईओ हर्षित जैन का कहना है कि व्यापक रणनीति के बजाय पर्सनलाइज्ड और डेटा आधारित रणनीति के चलते प्रमुख हितधारकों के एक दूसरे से जुड़ने के रुझान में भी बदलाव आना शुरू हो चुका है। वह कहते हैं, ‘एक डॉक्टर के तौर पर मुझे जिन चुनौतियों का कोई समाधान नहीं दिखता था अब उनका समाधान निकल रहा है।’पहले इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य सेवा रिकॉर्ड को संदेह से देखा जाता था लेकिन इसने अब पेपर फाइलों की जगह ले ली है और टेलीमेडिसिन के जरिये मरीजों को घर पर ही सेवाएं मिल रही हैं और एआई के जरिये इलाज में मदद मिल रही है।

वर्ष 2001 में इसरो ने आंध्र प्रदेश के अरगोंदा में एक ग्रामीण अस्पताल और चेन्नई के अपोलो हॉस्पिटल के बीच टेलीफोन पर आधारित मेडिकल परामर्श सेवाओं को सुगम बनाया। उस वक्त से भारत में टेलीमेडिसिन का विस्तार हो चुका है और महामारी के दौरान इसमें काफी तेजी आई। वर्ष 2023 में भारत में टेलीमेडिसिन बाजार 2.5 अरब डॉलर तक था। वर्ष 2032 तक इसका दायरा बढ़कर 16.9 अरब डॉलर हो जाएगा और इसमें सालाना 23.88 फीसदी चक्रवृद्धि दर से वृद्धि होगी।

अस्पतालों में अब मरीजों को जोड़ने के लिए डिजिटल मंचों का इस्तेमाल बढ़ा है और डेटा के जरिये अंदाजा मिलने पर व्यक्तिगत जरूरतों के हिसाब से भी सेवाएं दी जाने लगी हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय स्वास्थ्य सेवा की मांग बढ़ी है। फोर्टिस हेल्थकेयर के एमडी एवं सीईओ आशुतोष रघुवंशी का कहना है, ‘पिछले दो दशक में भारत ने खुद को मेडिकल पर्यटन के एक वैश्विक केंद्र के तौर पर स्थापित किया है और यहां प्रतिस्पर्द्धी कीमतों पर उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाएं दी जा रही हैं।’ वर्ष 2024 में इस क्षेत्र का मूल्य 1 लाख करोड़ रुपये के स्तर पर था और वर्ष 2034 तक यह 17.2 फीसदी सालाना चक्रवृद्धि दर से 4.3 लाख करोड़ रुपये के स्तर को पार कर लेगा।

2000 के दशक के शुरुआती चरण में भारत के मेडिकल टूरिज्म ने पड़ोसी देशों के मरीजों को आकर्षित किया और वे जटिल सर्जरी जैसे कि दिल से जुड़ी बीमारियों या विकलांगता संबंधी इलाज के लिए यहां आने लगे। रघुवंशी कहते हैं, ‘आज पश्चिम एशिया, अफ्रीका, राष्ट्रमंडल देशों, दक्षेस देशों, दक्षिण पूर्वी एशिया और प्रशांत महासागर से घिरे क्षेत्रों से लोग सालाना भारत आते हैं और कुल मेडिकल टूरिस्ट की तादाद 73 लाख है।’ उन्हें उम्मीद है कि राजस्व में मेडिकल टूरिज्म का योगदान मौजूदा 9 फीसदी से बढ़कर 12-13 फीसदी हो जाएगा।

डिजिटलीकरण से भी एक बड़ी आबादी तक सेवाएं दी जा सकेंगी और आगामी दशक पर इस पर सबसे ज्यादा जोर रहेगा। स्वास्थ्य सेवा कंपनियों को तकनीकी सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनी सिटियस टेक के सीईओ राजन कोहली का कहना है कि भारत की आबादी में मध्यम वर्ग का दायरा बढ़ने, आर्थिक वृद्धि बरकरार रहने से स्वास्थ्य सेवा खर्च में बढ़ोतरी होगी और इसके चलते सभी क्षेत्रों में बेहतर सेवाओं की मांग भी बढ़ेगी।

वह कहते हैं, ‘तकनीक का मानकीकरण और रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण अहम कदम साबित होगा। भारत जैमस्टैक का इस्तेमाल कर स्वास्थ्य सेवा रिकॉर्ड का केंद्रीकरण करने की राह पर है जो किसी और देश ने अब तक नहीं किया है। अगर हम स्वास्थ्य से जुड़े रिकॉर्ड में भी कुछ ऐसा कर पाते हैं तब यह हमारे नागरिकों के लिए एक बड़ा बदलाव होगा।’ वह कहते हैं कि आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन इस बदलाव में अहम भूमिका निभाएगा। भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में सालाना 5-6 अरब डॉलर का निवेश होता है जो कोविड के दौर से पहले 3-4 अरब डॉलर की तुलना में अधिक है। वर्ष 2028 तक स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़कर 285 अरब डॉलर तक होने का अनुमान है।

टाटा कैपिटल हेल्थकेयर फंड 2 की मैनेजिंग पार्टनर विशालक्षी चंद्रमौलि के मुताबिक वर्ष 2030 तक 14 करोड़ अतिरिक्त परिवारों का वर्गीकरण मध्यम वर्ग के तौर पर होगा जिससे स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र खर्चों में 3-4 गुना की बढ़ोतरी हो सकती है। बीमा के दायरे में सुधार की अहम भूमिका होगी। वह कहती हैं, ‘भारत के स्वास्थ्य बीमा कवरेज में सुधार हुआ है और यह वर्ष 2013 के 25 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2023 में 65 फीसदी हो गया है लेकिन अब भी करीब 35 फीसदी आबादी का बीमा नहीं हुआ है।’

डायबिटीज, दिल की बीमारी और कैंसर जैसी बीमारी का बोझ मौजूदा 16.9 लाख से बढ़कर वर्ष 2030 तक 22.6 लाख के स्तर पर पहुंच सकता है। भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारित के मुताबिक 1000 लोगों पर तीन अस्पताल बेड के अनुपात को पूरा करने के लिए अनुमानतः 24 लाख अतिरिक्त अस्पताल बेड की जरूरत होगी। चंद्रमौलि का कहना है, ‘इन व्यापक रुझानों और क्षेत्र के बेहतर प्रतिफल के मजबूत रिकॉर्ड को देखते हुए, हमें उम्मीद है कि हम सालाना करीब 5-6 अरब डॉलर निजी पूंजी आकर्षित कर सकते हैं।’

First Published - December 30, 2024 | 12:24 AM IST

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