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Paithani Saree: राजमहल की शाही बुनाई से आम घर तक पहुंची महाराष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर, बनी फैशन जगत की शान

महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी अपनी शाही बुनाई, रेशम और जरी के काम से आम घर-आंगन तक छाई और अब बदलते फैशन में नई पहचान बना रही है।

Last Updated- August 24, 2025 | 10:49 PM IST

रेशम की शानदार बुनाई, चमकीले रंग और जरी के सुनहरे पल्लू से सजी पैठणी साड़ी देखकर किसी का भी मन उसे खरीदने का हो जाता है। सदियों पहले केवल राजमहलों के रनिवासों में दिखने वाली पैठणी साड़ी आज आम घरों में भी पहनी जा रही है। बुनाई की अनूठी तकनीक, खास रेशमी कपड़े, जटिल डिजाइन और मखमली अहसास के लिए मशहूर पैठणी साड़ी में भी वक्त के साथ बहुत बदलाव आया है। दुनिया भर में अलग छाप छोड़ने वाली यह साड़ी अब आम महिलाओं के साथ पुरुषों को भी इतराने का मौका दे रही है।

पैठणी केवल साड़ी नहीं है बल्कि महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है। इसका नाम औरंगाबाद जिले के पैठण शहर के नाम पर पड़ा है, जहां करीब 2,000 साल से ये साड़ियां बनाई और पहनी जा रही हैं। कहते हैं कि जब इस साड़ी की शुरुआत हुई तो यह शहर ‘प्रतिष्ठान’ कहलाता था, जिसका नाम बाद में बदलकर पैठण हो गया। सोने की कढ़ाई वाली यह रेशमी साड़ी अपनी रुपहली छटा और किनारों के लिए मशहूर है और आज से करीब 1,500 साल पहले चालुक्य तथा राष्ट्रकूट काल में यह केवल राजसी पोशाक थी, जो आम जन की पहुंच से बाहर थी। बाद में इसे इसे पेशवाओं और निजाम का संरक्षण भी मिला। माना जाता है कि इनकी बुनाई की कला में फारस बुनकरों के आने के बाद काफी बदलाव आया।

जानकार बताते हैं कि पैठणी साड़ी को मूल रूप से राजघरानों के लिए ही बुना जाता था क्योंकि ये वैभव का प्रतीक थीं। मगर 17वीं और 18वीं शताब्दी में पैठण के फलते-फूलते हथकरघा उद्योग ने बुनकरों, सुनारों और व्यापारियों के साथ मिलकर इसे आम आदमी तक पहुंचा दिया। इस समय सबसे ज्यादा पैठणी साड़ी नासिक जिले के येओला शहर में बनती हैं। साड़ियों की रानी कहलाने वाली पैठणी किसी समय चांदी और सोने के धागों से तैयार की जाती थी मगर समय के साथ इनकी बुनाई में बदलाव आ गया। येओला में पैठणी साड़ी का पुश्तैनी कारोबा करने वाले किरण सरोदे कहते हैं कि उन्होंने बुनाई अपने पिता से सीखी और पिता ने दादा जी से सीखी।

25 लाख रुपये तक की साड़ी

पैठणी साड़ी में सोने-चांदी का काम अब बहुत कम हो गया है फिर भी ये आम लोगों की पहुंच से दूर ही रहती हैं क्योंकि इनका औसत दाम करीब 25,000 रुपये रहता है। इससे ज्यादा महंगी साड़ियां शोरूम में नहीं दिखतीं क्योंकि वे ऑर्डर पर ही बनाई जाती हैं। कारोबारी बताते हैं कि ऑर्डर पर 25 लाख रुपये तक कीमत की पैठणी साड़ी बनाई जाती हैं। पैठणी साड़ी अब पूरे भारत में खरीदी जा रही हैं मगर ज्यादातर खरीदार अब भी महाराष्ट्र से ही हैं क्योंकि यहां इनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है।

नकली का बोलबाला

महाराष्ट्र में दुल्हनें आम तौर पर पैठणी पहनती हैं मगर आसमान छूती कीमतों के कारण नकली पैठणी की बिक्री जमकर होने लगी है। पीढ़ियों से पैठणी साड़ी बनाने और बेचने वाले पटेल साड़ी एंड ड्रेस के मालिक बिपिन पटेल का कारखाना येओला में और शोरूम ठाणे में है। वह बताते हैं कि बाजार में सामान्य पैठणी 11,000 रुपये से 14,000 रुपये, फैंसी पल्लू वाली पैठणी 14,500 से 18,000 रुपये, बुनिया पैठणी 20,000 से 25,000 रुपये और टर्निंग पैठणी 50,000 रुपये से 2 लाख रुपये तक में बिकती हैं। लेकिन सूरत के कारखानों में सिंथेटिक धागे से बनी पैठणी की नकल 800 रुपये से 3,000 रुपये में मिल जाती है। आम लोगों में इसी की मांग ज्यादा है।

कारोबारी बताते हैं कि आम शोरूम में महाराष्ट्र की असली पैठणी साड़ियों के 100-150 पीस बिक जाते हैं और बेंगलूरु के पावरलूम में बनी सिल्क की 200-300 साड़ियां बिक जाती हैं। दिलचस्प है कि सूरत के मिल से आई करीब 1,500 साड़ी हर महीने बिक जाती हैं। पैठणी साड़ियों के विक्रेता विजय भाई कहते हैं कि कंप्यूटर के जमाने में दस्तकारी की महंगी साड़ी का फोटो लेकर झट से ब्लूप्रिंट बना लिया जाता है और हूबहू दिखे वाली साड़ी तैयार हो जाती है। उन्हें यह ठीक भी लगता है क्योंकि इससे हर तबके को अपनी पसंद का माल पहनने का मौका मिल जाता है।

पुरानी साड़ी के नए रंग

सदियों की विरासत वाली पैठणी साड़ी में लोगों की पसंद और समय के साथ बदलाव बी देखा जा रहा है। अब कुर्ता, लहंगा, ईवनिंग गाउन, पर्स जैसे उत्पादों के लिए पैठणी कपड़ा बनाया जा रहा है, जिसकी शादी-ब्याह में काफी मांग रहती है। 5.5 मीटर लंबी पैठनी साड़ी की मांग हमेशा रहती है मगर बाजार में 4 मीटर के कपड़े और मोटे बॉर्डर की नई मांग आई है, जिसका इस्तेमाल लहंगा, डिजाइनर ब्लाउज, अंतरपथ आदि बनाने में किया जाता है।

दलन महाराष्ट्रचे की सह संस्थापक पूर्णिमा शिरीषकर कहती है कि पारंपरिक पैठणी साड़ियां केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रह गई हैं बल्कि अब इनके कई उत्पाद तैयार हो रहे हैं। पुरुषों के लिए भी पैठणी कुर्ता, धोती, पगड़ी, जैकेट और शॉल तैयार किए जा रहे हैं। छोटे बच्चों की पोशाक भी इस कपड़े से तैयार हो रही है, जिसकी विदेशी बाजार में भी तगड़ी मांग है।

अस्तित्व के लिए बदलाव जरूरी

पिछले कुछ समय में देश-विदेश में पैठणी साड़ियों के संरक्षण और प्रसार ने जोर पकड़ा है। पारंपरिक बुनाई तकनीकों को बनाए रखने और देसी कारीगरों की मदद करने के प्रयासों ने इस ऐतिहासिक परिधान में नई रुचि पैदा कर दी है। महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर के अध्यक्ष ललित गांधी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना-माना ब्रांड प्राडा भी पैठणी साड़ी पर काम करना चाह रहा है।

व्यापारियों की संस्था कैट के राष्ट्रीय मंत्री शंकर ठक्कर कहते हैं कि वैश्वीकरण बढ़ने के साथ ही पैठणी साड़ियों ने भी अंतरराष्ट्रीय फैशन जगत में जगह बना ली है, जहां उनकी अनूठी शिल्पकला और सांस्कृतिक महत्त्व को सराहा जा रहा है। बाजार में बने रहने के लिए पैठणी से जुड़े दूसरे उत्पाद भी मदद कर रहे हैं और इसका बाजार करीब 800 करोड़ रुपये सालाना तक पहुंच चुका है।

येओला ने दिया नया दम

महाराष्ट्र में नासिक का येओला और संभाजीनगर (औरंगाबाद) का पैठण इस साड़ी के दो प्रमुख उत्पादन केंद्र हैं। इन्हें इस शिल्प के लिए 2010 में जीआई टैग भी मिल चुका है। हालांकि यह शिल्प पैठण में शुरू हुआ और पनपा मगर 17वीं सदी के अंत में येओला शहर बसाते समय रघुजीबाबा पाटिल कुशल बुनकरों के कुछ परिवारों को अपने साथ पैठण से येओला ले आए। उन्हें अच्छा वेतन और सुविधाएं देकर रघुजीबाबा ने येओला को पैठणी साड़ी का प्रमुख केंद्र बना दिया।

इस शहर में अब करीब 3,000 लूम (करघे) हैं, जिनमें करीब 10,000 लोग काम करते हैं। ये लोग बुनाई के साथ ही रेशम तैयार करने, छांटने, रंगने और ब्लीच करने के काम में लगे हैं। येओला के कई बुनकर परिवार पैठणी साड़ियां बनाने में माहिर हैं और बेहद चटख रंग तथा जटिल बॉर्डर वाली साड़ियां तैयार करते हैं।

कैसे बनती हैं पैठणी साड़ियां

किरण सरोदे बताते हैं कि पैठणी साड़ी बनाने के लिए शहतूत का रेशम बेंगलूरु से मंगाया जाता है। कच्चा रेशम करीब 5,500 रुपये प्रति किलोग्राम पड़ता है और धागा 6,500 रुपये किलो मिलता है। रंगाई-छपाई आदि के समय करीब 25 फीसदी धागा खराब भी हो जाता है। साड़ी में इस्तेमाल होने वाली जरी गुजरात के सूरत से आती है और सोने की परत चढ़ी नकली जरी करीब 3,000 रुपये किलो पड़ती है। पेशवाओं के समय पैठणी साड़ी के किनारे और पल्लू शुद्ध सोने के बनाए जाते थे, जिनमें मजबूती लाने के लिए थोड़ा तांबा मिलाया जाता था। सोने और तांबे को मिलाकर महीन तार बनाया जाता था, जिसे जरी कहते थे। एक किलो जरी से 40 इंच के बड़े पल्लू वाली चार साड़ियां बनाई जा सकती हैं। शुद्ध रेशमी साड़ी के लिए करीब 1 किलो रेशमी धागे की जरूरत पड़ती है और पारंपरिक डिजाइन वाली पैठणी साड़ी तैयार करने में 15 से 30 दिन लग जाते हैं।

सबसे पहले रेशम की छंटाई की जाती है, धागों से गोंद निकाला जाता है, ब्लीच किया जाता है और आखिर में उसे रंगा जाता है। इसके बाद धागे को बाने में लपेटकर ताने जोड़े जाते हैं और बुनाई तथा डिजाइन का काम शुरू होता है। पारंपरिक बुनाई के लिए लकड़ी का करघा इस्तेमाल होता था मगर अब धातु के फ्रेम वाला करघा लिया जाता है। डिजाइन के हिसाब से बुनकर करघे पर 58 ताने के धागे लगाते हैं और बाने की मदद से साड़ी की डिजाइन तैयार करते हैं।

व्यापारी कांचन कपाडी सावजी कहते हैं कि पल्लू पर बारीक काम हो तो दो कारीगर काम करते हैं और बाकी साड़ी एक ही बुनकर तैयार कर देता है। आजकल पारंपरिक और ब्रोकेड पैठणी बनाई जाती हैं। पारंपरिक पैठणी में 28 इंच का कम बारीक बुनाई वाली पल्लू होता है, जिसे बनाने में कम समय लगता है। ब्रोकेड पैठणी साड़ी में 40 इंच का पल्लू होता है, जिसमें इतना बारीक काम होता है कि कुशल बुनकर ही तैयार कर पाते हैं।

सरोदे बताते हैं कि पैठणी साड़ियों में प्रकृति और अजंता की गुफाओं से प्रेरणा लेकर कमल, मोर, असावरी (फूल-लता) तोता, मैना, हंस, नारियल, अशरफी, बांगड़ी मोर (गोल डिजाइन वाला मोर) की आकृतियां बनाई जाती हैं। पैठणी साड़ी की खासियत है कि वह दोनों ओर से एक जैसी दिखती है, जिससे नकली और असली में अंतर करना आसान हो जाता है।

First Published - August 24, 2025 | 10:49 PM IST

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