facebookmetapixel
Editorial: अनिश्चितता से बढ़ी चमक, सोने-चांदी की कीमतों में रिकॉर्ड उछालहमारे शहरों को जलवायु संकट से बचाने में फाइनेंस कमीशन की अहम भूमिकागुणवत्ता और जवाबदेही पर आधारित होने चाहिए सड़कों के ठेके : वालियापाकिस्तान का असली चेहरा: इस्लाम नहीं, भारत-विरोध और सेना का कब्जाचढ़ने और गिरने वाले शेयरों का अनुपात बढ़ा, बाजार में शुरुआती तेजी देखी गईअगले संवत के लिए भारतीय शेयर बाजारों का दृष्टिकोण अधिक सकारात्मक और आशावादी है: महेश पाटिलपीआई इंडस्ट्रीज का शेयर 6 महीने के निचले स्तर पर, जून तिमाही में निर्यात और घरेलू बाधाओं से गिरावटEquity Capital Market: भारत में इक्विटी पूंजी बाजार और निवेश बैंकिंग सौदों ने निवेश बैंकरों की भरी झोलीलिस्टेड REITs ने निफ्टी रियल्टी और सेंसेक्स को पीछे छोड़ते हुए ऑफिस लीजिंग में दिए आकर्षक रिटर्नतीन तिमाहियों की गिरावट के बाद आवास बाजार को अब त्योहारों से आस

महाराष्ट्र के हुपरी की चांदी की पायलों ने गांव से लेकर विदेशों में अपनी पहचान बनाई, GI टैग के साथ दुनिया में मशहूर

हुपरी को कस्बा कहें या शहर कह लें मगर 12 गांवों के इस छोटे से इलाके में 1,200 से ज्यादा इकाइयां हैं, जहां चांदी के पारंपरिक आभूषण बनते रहते हैं

Last Updated- October 05, 2025 | 9:56 PM IST
Elegant Silver Chain Payal
प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

पायलों की छन-छन भारत में रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है और नन्ही-मुन्नी बच्ची से लेकर दादी-नानी तक के पांवों में पायलें झनकती रहती हैं। यूं तो देश भर में सुनार और जौहरी पायल बनाते-बेचते रहते हैं मगर इनकी कारीगरी के लिए महाराष्ट्र का एक छोटा सा कस्बा दुनिया भर में मशहूर है। राज्य के कोल्हापुर जिले के हुपरी कस्बे में सदियों से चांदी की पायल, झुमके, चूड़ियां और दूसरे गहने बनते आ रहे हैं।

हुपरी को कस्बा कहें या शहर कह लें मगर 12 गांवों के इस छोटे से इलाके में 1,200 से ज्यादा इकाइयां हैं, जहां चांदी के पारंपरिक आभूषण बनते रहते हैं। हुपरी की आबादी करीब 50,000 बताई जाती है और उनमें से लगभग 40,000 लोग इन इकाइयों या कारखानों में काम करते हैं। यहां चांदी का इतना काम होता है कि इसे चांदी नगरी या रजत नगरी भी कहा जाता है। अब तो चांदी की कारीगरी के लिए हुपरी को भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग भी मिल चुका है। जीआई टैग ने हुपरी की चांदी का बाजार बहुत बढ़ा दिया, यहां से निर्यात में भारी इजाफा हुआ और दुनिया इस शहर का नाम जान गई।

हुपरी चांदी हस्तकला उद्योग विकास फाउंडेशन के अध्यक्ष मोहन मनोहर खोत कहते हैं, ‘महाराष्ट्र के पारंपरिक डिजाइन वाली हमरी कला जीआई टैग मिलने से बहुत फैल गई मगर गहनों में सबसे ज्यादा पहचान पायल को ही मिली है। पहले इसके ग्राहक उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश समेत देश के हर राज्य के शहरों में थे, लेकिन अब दूसरे देशों में भी इसकी मांग बढ़ गई है। पहले ज्वैलर हमसे माल लेकर अपने हिसाब से बाजार में बेचते थे मगर अब हुपरी के कारीगर खुद ही कारोबारी बन गए हैं।

महंगाई का असर

चांदी से घर चलाने वाले कारीगरों और कारोबारियों को पिछले कुछ अरसे से चांदी ने ही परेशान कर रखा है। सपरट भागते चांदी के दाम का असर गहनों पर भी पड़ा है। यहां अमूमन 25 ग्राम से 500 ग्राम तक वजन की पायल बनती हैं। कुछ महीने पहले जो पायल 5,000 रुपये में मिल जाती थी अब 11,000 रुपये में भी मुश्किल से मिल पा रही है। कारोबारी कहते हैं कि चांदी के सबसे ज्यादा गहने मध्य वर्ग ही खरीदता है मगर इन दामों पर उसके लिए भी इन्हें खरीदना मुश्किल हो गया है, जिसका असर उनके कारोबार पर पड़ सकता है। लेकिन कोल्हापुर ज्वैलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भरत ओसवाल को लगता है कि बिक्री बेशक कम हो मगर कुल कारोबार पर असर नहीं पड़ेगा क्योंकि सोने के मुकाबले चांदी की मांग हमेशा ही बनी रहेगी।

हुपरी में चांदी की मूर्ति (रामकड़े) भी खूब बनती हैं, जिनकी देश-विदेश में जमकर मांग है। यहां 20 ग्राम वजन से लेकर ग्राहकों की मांग के हिसाब से भारी वजन तक के रामकड़े बनते हैं। कारोबारियों की दलील है कि चांदी महंगी होने पर गहने बेशक न खरीदे जाएं मगर देवी-देवताओं की मूर्तियां और दूसरा सामान खरीदना बंद नहीं किया जाएगा।

दुनिया भर में झनकेगी हुपरी की पायल

रत्नाभूषण निर्यात संवर्द्धन परिषद (जीजेईपीसी) के मुताबिक पिछले वित्त वर्ष में हुपरी से 20.84 करोड़ डॉलर का माल निर्यात किया गया था। यहां से ज्यादातर निर्यात अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, ऑस्ट्रेलिया, हॉन्गकॉन्ग, जर्मनी, इटली, स्पेन और थाईलैंड को होता है।

सरकार हुपरी को सूरत के हीरों की तर्ज पर चांदी के गहनों का प्रमुख निर्यात केंद्र बनाने की कोशिश में है। जीजेईपीसी के चेयरमैन किरीट भंसाली बताते हैं कि उनकी संस्था महाराष्ट्र सरकार, कोल्हापुर जिला उद्योग केंद्र और अन्य पक्षों के साथ मिलकर हुपरी में बुनियादी ढांचा मजबूत करने, कारीगरों का हुनर निखारने और तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर काम कर रही है। सरकार यहां से सीधे निर्यात शुरू करना चाहती है। इसके लिए डाक विभाग से बात चल रही है। कारीगरों और व्यापारियों को दस्तावेज और बैंक प्रक्रियाओं के बारे में सिखाया जा रहा है।

फैशन रैंप पर जलवा

हुपरी की पायल भी कोल्हापुरी चप्पलों के पीछे चलने को तैयार हैं। इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि पिछले दिनों इतालवी फैशन कंपनी प्राडा और कोल्हापुरी चप्पल से जुड़े विवाद को सुलझाने के लिए जब प्राडा की टीम कोल्हापुर पहुंची तो उसने हुपरी के पायल और गहने बनाने वाले कारीगरों से भी बात की। महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्री ऐंड एग्रीकल्चर के अध्यक्ष ललित गांधी ने बताया कि प्राडा ने हुपरी के चांदी कारीगरों के साथ सहयोग की संभावनाएं तलाशने के लिए जल्द ही एक तकनीकी टीम भेजने का अश्वासन दिया है। उसके बाद से ही हुपरी के कारीगरों को उम्मीद लग गई है कि प्राडा के जरिये उनका हुनर भी फैशन के रैंप पर पहुंचेगा और दुनिया भर में लोकप्रिय हो जाएगा।

पायल पर चढ़ा फैशन का रंग

कोई जमाना था, जब भारी वजन और पचासों घुंघरुओं से भरी पायलें पहनना शान और रसूख की बात मानी जाती थी। मगर वक्त बदलने के साथ और नौकरीपेशा बनने के साथ ही महिलाओं ने पायल पहनना बहुत कम कर दिया। मगर इसका यह मतलब नहीं है कि पायलें खत्म हो जाएंगी। हुपरी चांदी हस्तकला उद्योग विकास फाउंडेशन के अध्यक्ष मोहन मनोहर खोत कहते हैं कि पायल की मांग कभी कम नहीं होगी। नए-नए डिजाइन आएंगे और चले जाएंगे मगर पारंपरिक डिजाइन टिककर रहेंगे क्योंकि खास मौकों पर पर आज भी भारी पायल पहनने का रिवाज है, जो हमेशा रहेगा।

मुंबई में चांदी के गहनों के सबसे बड़े विक्रेताओं में शुमार सिल्वर एम्पोरियम के निदेशक राहुल मेहता का कहना है कि पायलों की मांग कम नहीं हुई बल्कि युवा पीढ़ी की पसंद बदल गई। लड़कियां अब दोनों पैरों में पायल पहनने के बजाय केवल एक पैर के लिए फैशनेबल पायल की मांग करती हैं। उन्हीं के हिसाब से डिजाइन भी तैयार किए जाते हैं मगर इन सबके बीच हुपरी की पायलों की मांग पहले से ज्यादा बढ़ गई है। कारोबारियों का कहना है कि इस समय पुराने और रजवाड़ों से जुड़े डिजाइनों की मांग अचानक बढ़ गई है और उनकी बिक्री जमकर हो रही है। उनका कहना है कि पायलों को अंतरराष्ट्रीय फैशन रैंपों ने नई जिंदगी दे दी है। विक्टोरियन, मेसोपोटैमियन और रोमन शैली के गहने इसी तरह वापसी कर चुके हैं। दस साल पहले गले में चोकर पहनने का फैशन बढ़ा था और 2021 के करीब बेली चेन का दौर आया, जिसे शनैल से लेकर डिऑर तक सबने भुनाया। अब टखनों के गहनों और पायल की बारी आ रही है।

सदियों पुराना हुपरी का हुनर

हुपरी में चांदी की कारीगरी 13वीं शताब्दी में शुरू हुई थी मगर यह शिल्प सन् 1500 ईस्वी के आसपास फला-फूला, जब अंबाबाई मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर बनने के साथ ही आभूषणों के सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक रिश्ता तैयार हो गया, जिससे चांदी केवल विलासिता नहीं रह गई बल्कि धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं में भी इसकी जरूरत होने लगी। कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज के संरक्षण में यह कला और भी तेजी से फली-फूली। उसके बाद यहां के लोगों की जिंदगी पायल, कंगन, घुंघरू, चांदी के बर्तन, फूलदान और मूर्तियां बनाने में ही बीतने लगी। हुपरी के कारीगरों ने चांदी के सभी उत्पाद बनाने में महारत हासिल कर ली।

1900 के शुरुआती दशकों में यहां कृष्णजी रामचंद्र पोतदार और अमन पोतदार के घरों में सुनारी का काम होता था। उस समय राजाओं के हाथी और घोड़ों के लिए चांदी के गहनों की खूब मांग थी, जिसे पूरा करने के लिए पोतदार परिवारों ने सोने का काम छोड़कर चांदी का काम शुरू किया। उन्होंने अपने गांवों में दूसरी बिरादरी के लोगों को भी इस काम में जोड़ा और यह कला घर-घर पहुंच गई। इसीलिए हुपरी में हर जाति के महिला-पुरुष इस काम में पारंगत हैं।

घर-घर में गढ़ी जातीं पायल

हुपरी में गहने बनाने के लिए रोजाना करीब 3 टन चांदी की खपत होती है। कारखानों में आम तौर पर चांदी की 30-30 किलोग्राम की सिल्लियां आती हैं। इन सिल्लियों को जरूरत के मुताबिक काटकर भट्ठी में पिघलाया जाता है। पिघली चांदी को पतले स्लैब के सांचों में डाला जाता है, जहां वह जल्दी से जम जाती है। गर्म स्लैब को पानी में डुबोकर डिजाइन के हिसाब से रोलिंग मशीनों से काट दिया जाता है। कई पीढ़ियों से इसी काम में लगे अमर कुलकर्णी बताते हैं कि कारखानों में चांदी पिघलाने, रोल करने और सोल्डरिंग जैसे भारी काम पुरुष ही करते हैं। मगर तारों से पायल गढ़ने, घुंघरू जोड़ने और डिजाइन को सजाने जैसे बारीक काम महिलाओं के सुपुर्द होते हैं। बच्चों को इस काम से दूर रखा जाता है मगर ज्यादातर काम घरों के भीतर ही होता है, इसलिए बच्चे भी साथ में लगकर काम सीख जाते हैं। इसीलिए हुपरी के घर-घर में बच्चे बड़े होते-होते कारीगर बन जाते हैं।

First Published - October 5, 2025 | 9:56 PM IST

संबंधित पोस्ट