झारखंड में विधान सभा चुनावों की तारीख नजदीक आते ही अनुसूचित जनजाति बहुल निर्वाचन क्षेत्रों को राजनीतिक दल ज्यादा तवज्जो देने लगे हैं। ये सीट प्रदेश की कुल विधान सभा सीट में से एक तिहाई से ज्यादा हैं। झारखंड की कुल 81 विधान सभा सीट में से 28 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं।
प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों का महत्त्व का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक वहां के कुल 13 मुख्यमंत्रियों में से सिर्फ एक रघुवर दास को छोड़कर सभी आदिवासी रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के रघुवर दास पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री थे। दिलचस्प है कि वह प्रदेश के पहले ऐसे मुख्यमंत्री भी रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल भी पूरा किया। दास साल 2014 से 2019 तक मुख्यमंत्री थे।
झारखंड में विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ से साल 2019 में विधान सभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) से प्रमुख आदिवासी नेताओं के दल बदल पर भरोसा कर रही है। इनमें प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन और बाबूलाल मरांडी एवं अर्जुन मुंडा जैसे अन्य नेताओं के साथ-साथ अपनी सहयोगी पार्टियाें झारखंड स्टूडेंट यूनियन के नेता भी शामिल हैं।
इस साल के लोक सभा चुनावों में भाजपा झारखंड में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित पांचों सीट पर चुनाव हार गई। लेकिन, पार्टी ने 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में तीन-तीन सीट जीती थीं। दूसरी ओर, झामुमो, कांग्रेस और अन्य घटक दलों के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन आदिवासी बहुल इलाकों में अपना गढ़ बरकरार रखने की कोशिश कर रहा है।
आदिवासी मतदाताओं को लुभाने के लिए पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान की घोषणा की थी। यह 79,150 करोड़ रुपये की कल्याणकारी योजना है, जिससे देश के 5 करोड़ आदिवासियों को फायदा होने की उम्मीद है। मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं ने भी आदिवासियों की घटती आबादी के साथ-साथ नौकरी के अवसर में कमी के कारण झारखंड से आदिवासियों के पलायन के मुद्दे को उठाया है।
राज्य सरकार ने भी अपनी एक पेंशन योजना में बदलाव करते हुए दलितों, आदिवासियों, महिलाओं के साथ-साथ हाशिये पर रहने वाले लोगों की वृद्धावस्था पेंशन के लिए योग्यता आयु को 60 साल से कम कर 50 साल कर दिया है। मगर सरकार ने साल 2024-25 के बजट में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्गों के कल्याण के लिए अपने कुल व्यय का सिर्फ 3 फीसदी आवंटित किया है, जो अन्य राज्यों के 3.5 फीसदी के औसत से कम है।
जहां एक ओर राजनीतिक दल अपने अभियान को बढ़ा रहे हैं और आदिवासी मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं, वहीं साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 26.2 फीसदी है, जो सभ्य जीवन जीने के लिए संघर्षरत हैं।
तीन से पांच आदिवासी सीट वाले अधिकतर जिलों में साल 2019-21 के दौरान बहुआयामी गरीबी राज्य के औसत से अधिक थी, जो देश में सिर्फ बिहार के बाद कम थी। रांची इसमें अपवाद था मगर राज्य की राजधानी होने के अलावा जिले में अनुसूचित जनजातियों के लिए सात में तीन सीट ही आरक्षित हैं। निश्चित रूप से साल 2019-21 के दौरान राज्य के दो तिहाई आदिवासी जिलों में औसत से अधिक बहुआयामी गरीबी थी। उस अवधि के दौरान इन सभी जिलों में राष्ट्रीय औसत से अधिक लोग गरीबी में बसर कर रहे थे।
ऐसे समय में जब विशेषज्ञ राष्ट्रीय स्तर पर उच्च ऋण-जमा अनुपात का मुद्दा पर चिंता जता रहे हैं, केवल तीन आदिवासी जिले ऐसे हैं जहां बैंकिंग प्रणाली में जमा के मुकाबले कर्ज 50 फीसदी से अधिक है। तीन से पांच आदिवासी सीट वाले जिले ऐसे हैं जहां बैंकिंग तंत्र में ऋण के मुकाबले जमा आधे से कम है। पूरे प्रदेश में ऋण-जमा अनुपात सिर्फ 45 फीसदी ही रहा, जो प्रदेश की ऋण मांग के बारे में काफी कुछ कहता है।
साल 2011 की सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना से पता चलता है कि देश की 12वीं सबसे बड़ी आदिवासी आबादी वाले झारखंड में करीब 7 फीसदी आदिवासी परिवार ऐसे थे जो उस साल हर महीने 10 हजार रुपये से अधिक कमाते थे।