कभी कभार सार्वजनिक आंकड़ों में भारी विरोधाभास देखने को मिलता है।
उदाहरण के लिए, आधिकारिक आकलन दर्शाते हैं कि चौथी तिमाही के परिणामों के आधार पर साल 2008-09 में सकल घरेलू उत्पादों की विकास दर (जीडीपी ग्रोथ रेट) 6.5 से 7.1 प्रतिशत के बीच रहेगी। अंतिम बजट के आकलन के मुताबिक साल 2009-10 में जीडीपी ग्रोथ रेट लगभग 5 प्रतिशत रहेगी।
साल 2008-09 के मुकाबले इसमें 1.5 प्रतिशत की कमी देखने को मिल रही है। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपनी पीठ थपथपा रहा है और दावा कर रहा है कि साल 2009-10 में जीडीपी का ग्रोथ अन्य कई देशों की तुलना में बेहतर रहेगा।
आम धारणा यह है कि विश्व युध्द-2 के बाद की यह सबसे बुरी मंदी है। आम धारणा यह भी है कि जीडीपी में कारोबार की हिस्सेदारी से यह बात साबित होती है कि भारत वैश्विक तौर पर पहले से कहीं अधिक एकीकृत है। इसलिए, भारत को साल 1991-92 के बाद के सबसे बुरे दौर से गुजरना पड़ सकता है। हालांकि, आकलनों को तेजी से होने वाले सुधार की आशा के साथ नहीं मिलाया जा सकता।
साल 1997-98 और 2001-02 से लेकर 2002-03 की मंदी में जीडीपी घट कर 4.3 प्रतिशत या उससे कम हो गई थी। अगर यह मंदी सबसे बुरी है तो जीडीपी चार प्रतिशत के स्तर तक जानी चाहिए। सलाहकारों के अनुसार जीडीपी ग्रोथ का निचला स्तर साल 2009-10 के 5 प्रतिशत की तुलना में 3 प्रतिशत अधिक विश्वसनीय जान पड़ता है।
अधोविन्दु चाहे जो भी हो लेकिन बेहतर यही है कि यह जल्दी आ जाए। आधिकारिक आंकड़ों की अवस्था और आकलनों के राजनीतिकरण को देखते हुए विरोधाभास जल्द समाप्त होने की संभावना नहीं है। बजटीय अनुमान आशावादी साबित होगा और पुनरीक्षित अनुमान में भारी गिरावट देखी जाएगी। लेकिन जीडीपी के बारे में संदेह होने से कंपनियों के मूल्यांकन पर असर होता है।
ऐतिहासिक तौर पर भारतीय कंपनियों की आय-वृध्दि महंगाई के साथ जीडीपी ग्रोथ का ढाई गुना रही है। थोक मूल्य सूचकांक साल दर साल आधार पर घट कर 2.5 प्रतिशत के स्तर से भी कम हो गया है और अनुमान है कि इसमें और कमी आएगी। चलिए मान लेते हैं कि साल 2009-10 में यह औसतन 3 प्रतिशत रहेगा।
जीडीपी ग्रोथ 3 प्रतिशत के साथ हम भारतीय कंपनियों की प्रति शेयर आय 10 से 11 प्रतिशत होने की बात कर रहे हैं। अगर जीडीपी 4.5 प्रतिशत होता है तो प्रति शेयर आय लगभग 14 प्रतिशत होगी। हालांकि यह गणना मोटे तौर पर की गई है लेकिन गणना के जाने माने तरीके से भी लगभग समान आंकडे मिलते हैं।
अगर इन संख्याओं को मानक मूल्यांकन माडल में समाहित कर देखें तो सूचकांक स्तर पर भारी भिन्नता नजर आती है। अगर सही मूल्य प्राइसअर्निंग टु ग्रोथ 1 माना जाए तो बाजार का प्राइस टु अर्निंग 10 से 15 के बीच हो सकता है जो जीडीपी ग्रोथ और कंपनियों की प्रति शेयर आय के गुणक पर निर्भर करता है। इसमें 50 फीसदी का फर्क है।
ब्याज दर माडल का इस्तेमाल करें जहां 364 दिन के जोखिम रहित ट्रेजरी बिल पर 4.5 प्रतिशत के हिसाब से हमें प्राइस टु अर्निंग 22 का मिलता है। वाणिज्यिक उधारी दर अभी भी लगभग 9 से 10 प्रतिशत जितना अधिक है और इसके अनुसार प्राइस टु अर्निंग 10 से 11 होना चाहिए। मंदी के दौरान निवेशक रूढ़िवादी हो जाते हैं।
हम मान लेते हैं कि 10 का प्राइस टु अर्निंग मांग में रहेगा। वह भी तब जब कंपनियां प्रति शेयर आय 10 प्रतिशत या उससे अधिक प्राप्त करने में सक्षम हों। पिछली चार तिमाहियों के प्रति शेयर आय की तुलना में निफ्टी का प्राइस टु अर्निंग लगभग 12 रहा है और अक्टूबर 2008 में यह प्राइस टु अर्निंग 11 से भी नीचे आ गया था। इसका मतलब हुआ कि रूढ़िवादी निवेशकों के लक्ष्य के दायरे में कई ब्लू चिप कंपनियां हैं।
अन्य अनुपातों जैसे प्राइस बुक वैल्यू और लाभांश फल पर निगाह डालें तो पता चलता है कि कई शेयरों का कारोबार सही मूल्यों पर या उससे कम पर किया जा रहा है। अगर साल 2009-10 की प्रति शेयर आय को दहाई अंकों तक जाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है तो अगले 12 महीनों में निफ्टी लगभग 2100 के स्तर पर पहुंच सकता है।
निश्चय ही, अगर प्रति शेयर आय 15 प्रतिशत की हो, वाणिज्यिक उधारी दर घट जाए और ब्याज दर माडल ठीक-ठाक रहे तो निफ्टी 4400 से अधिक के स्तर पर भी पहुंच सकता है। नकदी की कमी और वर्तमान परिस्थिति में निवेशकों द्वारा जोखिम उठाने से परहेज को देखते हुए उत्कृष्ट मूल्यांकन की कल्पना करना कठिन है। इक्विटी में निवेश से होने वाला पूंजीगत लाभ दो साल या उससे अधिक की समयावधि में ही लाभ दे सकता है।