वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण उपभोग में भी कमी आ रही है, जिसके कारण नौवहन (शिपिंग) सेवाओं की मांग में भी गिरावट आ रही है।
इसके साथ आपूर्ति के मांग के मुकाबले बढ़ जाने जैसे कई डर उद्योग के दिलों में समाए हुए हैं, जिसकी वजह से कच्चे तेल और उसके उत्पादों की ढुलाई में लगे टैंकरों तथा लौह अयस्क और कोयले की आपूर्ति में लगे मालवाहक जहाजों के भाड़े की दरों में तेज गिरावट हुई है।
बाल्टिक ड्राई इंडेक्स और बाल्टिक डर्टी टैंकर इंडेक्स इस साल मई और जुलाई में अपने उच्चतम स्तर से लगभग 40 प्रतिशत तक गिर चुके हैं। बाल्टिक ड्राई इंडेक्स शिपिंग शुष्क जिंसों और बाल्टिक डर्टी टैंकर इंडेक्स कच्चे तेल की लागत को मापते हैं।
इसका असर नौवहन कंपनियों की शेयर कीमतों पर साफ दिखाई देता है, जो सेंसेक्स में मई तक 19 से 42 प्रतिशत की ऊंचाई बनाए हुए थीं और अब 15 प्रतिशत गिरावट का दौर देख रही हैं। भारती शिपयार्ड ऐंड शिपिंग कॉर्पोरेशन को छोड़ दें, जिसका रिटर्न घाटे में चला गया था, जुलाई से स्थितियां बेहतर होती दिखाई दे रही हैं। ज्यादातर कंपनियों का रिटर्न सेंसेक्स के 12.5 प्रतिशत से काफी कम रहा है।
जहां पेट्रोलियम उत्पादों के अमेरिकी उपभोग में कमी के कारण तेल की मांग में कमी और टैंकरों के मालभाड़े की दरों में भी गिरावट हुई है। चीन में निर्माण गतिविधियों में मंदी और ओलंपिक के शुरू होने से पहले फैक्टरियां बंद होने से जिंसों और थोक जहाजों की मांग घटी है।
जबकि स्थितियां अनुकूल नहीं लग रहीं, तब किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए? यहां हम टैंकरों, ड्राई बल्क, कंटेनरों और विशेष जहाजों के बारे में बात करेंगे ताकि भारतीय नौवहन कंपनियों और पोत निर्माताओं के लिए अल्पावधि से मध्य अवधि तक भाड़ा दरों, जहाजों की आपूर्ति और विकास की संभावनाओं का पता लगाया जा सके।
मांग और भाड़े की दरें
टैंकर की भाड़े की दरें
समुद्र से मिलने वाले वैश्विक कारोबार में 36 प्रतिशत से भी अधिक टैंकरों से मिलता है जो नौवहन कारोबार का सबसे बड़ा क्षेत्र है। पिछले कुछ समय से टैंकर बाजार में उथल-पुथल मची हुई है।
दूसरी तिमाही (सुस्त अवधि) में टैंकर की दरों में गिरावट देखी जा सकती है, जिसमें अटलांटिक और प्रशांत बेसिन के बीच में तेल कार्गो की अधिक गतिविधियां होती हैं और इसमें थोड़ा बहुत हाथ ऐसे जहाजों का भी होता है जो ड्राई बल्क या ऑफशोर जहाजों में तब्दील हो जाते हैं।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि टैंकरों की मांग में गिरावट का दौर बना रहेगा और इसकी वजह से कुछ समय के लिए किराए की दरें भी कम रहेंगी। मौसमी बदलावों के चलते हो सकता है उद्योग में उछाल देखा जा सके। भारतीय राष्ट्रीय शिप मालिकों के संघ के महासचिव एस एस कुलकर्णी का कहना है, ‘अन्य चीजों के साथ मौसमी बदलाव खासतौर पर सितंबर और अक्टूबर के दौरान खराब मौसम और सर्दियों की कठोरता अगली दो तिमाहियों के लिए टैंकरों के भाड़े की दरों को तय करेंगी।’
पिछले साल मौसम शांत और सर्दियां इतनी कठोर नहीं थीं, जिसकी वजह से टैंकर की दरें घट गईं। इस साल जैसा कि तटीय तूफान ‘गुस्ताव’ के गुरुवार तक अमेरिकी खाड़ी तट तक पहुंचने की उम्मीद है, भाड़े की दरें तेज हो सकती हैं। तीन साल पहले कैटरीना और रिटा ने 100 से अधिक प्लैटफॉर्म तबाह कर दिए थे और इसकी वजह से उस क्षेत्र में तेल उत्पादन का 92 प्रतिशत और प्राकृतिक गैस का उत्पादन 83 प्रतिशत कार्य अस्थाई तौर पर बंद हो गया था।
भाड़े की दरें 50 हजार डॉलर प्रति दिन के आस-पास मंडरा रही हैं, एक बार फिर दुरुस्त हो जाएंगी, जब पुराने मालवाही पोतों को कबाड़ में डाल दिया जाएगा। केपीएमजी एडवाइजरी सर्विसेज के एसोसिएट निदेशक मनीष शर्मा का कहना है कि यह तब हो सकता है जब बंकर दरें (शिपिंग लाइन को चलाने में ईंधन लागत) मौजूदा स्तर पर बनी रहें, क्योंकि इन स्तारों पर इन जहाजों को चलाने में नुकसान होगा।
टैंकर की मांग
टैंकरों की मांग मुख्यतौर पर तेल की मांग पर निर्भर करती है। विश्लेषकों का अनुमान है कि विकसित देशों, जिन्होंने आर्थिक सहकारिता एवं विकास संगठन (ओईसीडी) बनाया है, में तेल का उपभोग 1.2 प्रतिशत से गिर कर 2009 में 4.8 करोड़ बैरल प्रति दिन हो सकती है।
ओईसीडी देशों में घटती मांग के बावजूद अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का मानना है कि आगे बढ़कर आपूर्ति में अवरोध (ओपेक का उत्पादन रिकॉर्ड तेजी पर है), रिफायनरी की सीमाओं (मरम्मत मामले) और उभरते हुए बाजारों में मांग वृध्दि के चलते मांग-आपूर्ति की स्थिति कठिन होने वावली है।
विशेषज्ञों का कहना है कि एशियाई क्षेत्र में (भारत और चीन) में उपभोग वृध्दि 2009 में 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 1.81 करोड़ बैरल प्रति दिन हो जाएगी, जो ओईसीडी में उपभोग वृध्दि में आई गिरावट को पूरा कर लेगी।
पश्चिमी एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में बढ़ती उत्खनन गतिविधियों और बढ़ती रिफायनरी क्षमताओं (2012 तक 98 लाख बैरल प्रति दिन की रिफायनरी क्षमता में 57 प्रतिशत का इजाफा) के साथ और जानते हुए कि मांग केंद्र (पश्चिमी यूरोपअमेरिका) कच्चे तेल और रिफायनिंग स्रोत देशों से दूर स्थित हैं, उम्मीद है कि आगे टैंकर की किराया दरों में जबरदस्त इजाफा होगा।
ड्राई बल्क पोत
किराये की दरें और मांग
मई 2008 में बाल्टिक ड्राई इंडेक्स में ऊंचाई के ऐतिहासिक स्तर 11,793 को छूने के बाद भाड़े की दरें पिछले दो महीनों में चीनी मांग में मंदी की वजह से गिर चुकी हैं। ड्राई बल्क कार्गो में लोहे और कोयले की मात्रा लगभग आधी होती है, इसलिए इन जिंसों की मांग का सीधा असर भाड़े की दरों पर और जहाजों के लिए ऑर्डर पर पड़ता है।
लौह अयस्क के कुल वैश्विक आयात में 43 प्रतिशत हिस्सा देश के इस्पात निर्माताओं के होने और कोयला कारोबार के काफी बड़े हिस्से पर दबदबा होने की वजह से चीन एक अहम देश है। ओलंपिक की वजह से प्रदूषण वाले अपने उद्योगों को बंद करने की नीति के कारण चीनी उत्पादन में कटौती हुई है।
चीन में आयात होने वाले कोयले की मात्रा साल-दर-साल के आधार पर मई 2008 में 32 प्रतिशत घट गई और मई से जून में 36 प्रतिशत गिर गईं। तेज गिरावट की वजहें जहाजों की बढ़ी आपूर्ति और अंतरराष्ट्रीय मैरीटाइम संगठन के नियामों के चलते एकल टैंकरों को शुष्क थोक जहाजों में बदलने की वजह से भी आई है।
शर्मा का कहना है कि क्षमता आधार पर यहां 90 ऐसे जहाज हैं जो 25 साल पुराने हैं और उन्हें नए जहाजों से बदलने की जरूरत है। हालांकि इस क्षेत्र की ऑर्डर बुक सबसे बड़ी है, जिसकी वजह टैंकर बाजारों की नापसंद स्थिति है, जहां गिरती हुए किराए-भाड़े की दरें मालिकों को तेल की बचत करने के लिए जहाजों की रफ्तार को धीमा करने के लिए मजबूर कर रही हैं।
शर्मा का कहना है, ‘कुछ समय में दरों में सुधार हो सकता है, लेकिन भारत और दक्षिण अफ्रीका और चीन और ब्राजील के बीच कारोबार के नए मार्ग इस क्षेत्र में जिसों और कारोबार के लिए मांग को बढ़ा सकते हैं।’ कुछ रिसर्च कंपनियां इस क्षेत्र पर मंदी का रुख अपनाए हुए हैं।
ब्लूमबर्ग की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार गोल्डमैन सैक्स को उम्मीद है कि बाल्टिक ड्राई इंडेक्स अगले साल औसतन 40 प्रतिशत गिरेगा और वैश्विक आर्थिक मंदी के डर की वजह से 2010 में और 47 प्रतिशत गिरेगा। हालांकि ड्राई बल्क कारोबार में दरें जो पिछले कुछ महीनों से ऊपर-नीचे हो रही हैं अगली दो तिमाहियों में साफ होंगी।
कंटेनरऑफशोर पोत
कंटेनर
जहां औसतन भाड़े की दरें 2008 के पहले सात महीनों में मामूली सी ऊपर हैं, वे साल-दर-साल नीचे गिर रही हैं और जुलाई के लिए नीचे का रुख दिखा रही हैं। जहां छोटे पोत प्रतिदिन के लिए 12 हजार डॉलर के लगभग में मिल रहे हैं, वहीं बड़े पोत 36,500 डॉलर प्रतिदिन में उपलब्ध हैं, जो पिछले वर्ष के मुकाबले थोड़ी कम कीमत है।
हाल में भाड़े की दरें अमेरिका में घटती मांग की वजह से गिरी हैं, जिसकी झलक प्रशांत महासागर में जहाज में लादी हुई वस्तुओं के कारोबार में और कंटेनर जहाजों के बेड़े में शामिल होने वाली नई क्षमताओं में अतिवृध्दि के रूप में देखी जा सकती है।
12 लाख टीईयू (बीस फुट के बराबर इकाई) वाली मौजूदा क्षमता में 6.7 लाख टीईयू से अधिक को अगले चार साल में शामिल किया जा रहा है, जिसमें से अधिक मात्रा में 2009 और 2010 में शामिल किए जाएंगे। ऊंची जहाज ईंधन की लागत और खाली कंटेनर जहाजों के साथ मिलकर सुस्त मांग ने शिपिंग कंपनियों के लिए पैसे बनाने को काफी मुश्किल कर लिया है।
कुलकर्णी का कहना है कि कंटेनरों में भेजी जाने वाली इस्पातबंडलों में बंद रबर, पैलेट्स या डिब्बों को मात्रा में होने वाले इजाफा से गिरती मांग की कमी को पूरा किया जा सकता है। उनका कहना है कि भारत सरीखे देशों में जहां सिर्फ 40 से 50 प्रतिशत थोक में माल कंटेनरों से भरे कार्गो के रूप में भेजा जाता है, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा दोगुना है और इसकी वजह से कंटेनरों की मात्रा में आगे इजाफा हो सकता है। विश्लेषकों का मानना है कि अधिक बंकर लागत और क्षमताओं की आपूर्ति कंटेनर जहाजों के क्षेत्र को धक्का पहुंचा सकती है।
ऑफशोर
115-120 डॉलर प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमतों और उत्खनन गतिविधियों में वृध्दि के साथ ऑफशोर आपूर्ति पोतों को किराए पर देने की मांग बढ़ रही है। दुनियाभर में 1,760 प्लैटफॉर्म आपूर्ति पोतों के साथ जिनका इस्तेमाल उनकी क्षमता के 100 प्रतिशत तक किया जा रहा है, गहरेपानी में ड्रिलिंग रिगों का दैनिक भाड़ा ऊपर बढ़ते हुए 7 लाख डॉलर हो गया है।
वित्त वर्ष 2008 में 120 अनूठे भारतीय ऑफशोर पोतों के लिए 900 किराए पर लेने के आवेदनों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ऑफशोर पोतों की मांग भी बढ़ेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि 265 नए पोतों के लिए वैश्विक ऑर्डरों के बावजूद तेल के लिए बढ़ रही मांग इस अतिरिक्त क्षमता को खपाने में मदद करेगी। 1,500 डेडवेट टन से कम वाली श्रेणी के 72 प्रतिशत प्लैटफॉर्म आपूर्ति पोत 20 वर्ष से अधिक पुराने हैं, इन पोतों को बदलने से किराए की दरों में जबरदस्त इजाफे को बरबरार रखा जा सकता है।
निष्कर्ष
कारोबार के नए मार्गों के खुलने से चीन में मांग बढ़ने की संभावना है। पुराने जहाजों को कबाड़ में डालने और पोतों की आपूर्ति के घटने का मतलब है कि अगली दो तिमाहियों में भाड़े की दरों और लगभग हर क्षेत्र के जहाजों की मांग में बढ़ेतारी होगी, जो वित्त वर्ष 19 तक कम से कम बनी रहेगी, जब अधिक क्षमता और नए पोतों की वजह से भाड़े की दरों में गिरावट होगी।
जहां वित्त वर्ष 2010 से उम्मीद है कि भारतीय शिपिंग कंपनियां अपने पीई गुणकों में 3:5 से लेकर 6.6 गुना वृध्दि करेगी, वहीं दो सूचीबध्द जहाज निर्माण में लगी कंपनियां भारती शिपयार्ड और एबीजी का पीई गुणक क्रमश: 4.1 और 6.5 रहेगा। इस तरह कुछ भारतीय कंपनियों में से मर्केटर अपने कारोबार को लाइंस तलमार्जन और ऑफशोर की आरे बढ़ाएगी ताकि कारोबार पर मंडरा रहे जोखिम को कम किया जा सके।
इसके अलावा अधिक संख्या में दीर्घावधि किराए दरों पर पोतों से, हाजिर दरों में गिरावट के कारण कमाई पर मामूली सा असर दिखाई दे रहा है। जहाज निर्माण कंपनियों के लिए बिक्री के मुकाबले ऑर्डरों की संख्या अधिक है (भारती शिपयार्ड के पास वित्त वर्ष में बिक्री से 7.6 गुना अधिक)।
ग्रेट ईस्टर्न शिपिंग
निजी क्षेत्र में देश की सबसे बड़ी शिपिंग कंपनी ग्रेट ईस्टर्न (जीई) के पास 41 जहाजों का बेड़ा है और उनमें से भी 70 फीसदी टैंकर हैं। कंपनी की योजना चालू वित्त वर्ष में 16.20 करोड़ डॉलर निवेश करके दो बड़े रेंज के टैंकर उत्पादों का अधिग्रहण करने की है।
कंपनी की योजना वित्त वर्ष 2010-12 के दौरान 43.33 करोड़ डॉलर के निवेश के जरिए नौ ड्राई बल्क और प्रोडक्ट टैंकर अधिग्रहण करने की है। टैंकर भाड़े के किराये में बढ़ोतरी से कंपनी को फायदा ही हुआ है क्योंकि कंपनी के पास अधिकतर टैंकर ही हैं। इसके 55 फीसदी बेड़े के सौदे हाजिर कीमतों के आधार पर होते हैं।
वित्त वर्ष 2009 की पहली तिमाही में राजस्व में 15 फीसदी की कमी के बावजूद हाई टैंकर और एकमुश्त भाड़े के किराये में इजाफे के चलते कंपनी साल दर साल के आधार पर राजस्व में 10 फीसदी की बढ़ोतरी करने में कामयाब रही है। अगले तीन वित्तीय वर्ष में इसके बेड़े में 19 जहाज और जुड़ जाएंगे। हाजिर कीमतों में उतार-चढ़ाव कंपनी को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन बढ़िया मांग कंपनी के लिए फायदेमंद ही साबित होगी।
ग्रेट ऑफशोर
ग्रेट ऑफशोर कच्चे तेल की ऊंची कीमतों, ऑफशोर निवेश में तेजी और देसी के साथ-साथ वैश्विक बाजारों में जहाजों के किराये में बढ़ोतरी का फायदा उठाने के लिए एकदम तैयार है। णकंपनी अलग-अलग तरह के 41 जहाजों का संचालन करती है। इसने बीती 28 अगस्त को ही हाई-एंड एएचटीएसवी का अधिग्रहण किया है और एक जैक अप रिग और एमएसवी का ऑर्डर दिया है जिसके मई 2009 तक मिलने की उम्मीद है।
पिछले दो साल के दौरान कंपनी के राजस्व में 39 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और वित्त वर्ष 2008 के दौरान कंपनी का राजस्व 745.9 करोड़ रुपये हो गया। बेड़े में कुछ और इजाफे के बाद वित्त वर्ष 2010 तक कंपनी के राजस्व में 300 से 350 करोड़ रुपये का और इजाफा हो जाएगा। साथ ही यदि कंपनी विलय और अधिग्रहण के जरिये गहरे पानी में ड्रिलिंग के काम में भी उतरती है तो भी कंपनी का फायदा ही होगा।
मर्केटर लाइंस
भविष्य की योजनाओं को लेकर मर्केटर लाइन्स की 45 करोड़ रुपये खर्चने की योजना है। इस योजना के तहत एक रिग,दो ड्रेजर्स, एक वीएलसीसी और दो कैरियर लेने की है। इसके अलावा ड्रेजिंग, ऑफशोर और कोयला उत्खनन के क्षेत्र में काम शुरू करने से कंपनी के राजस्व में इजाफा ही होगा।
भाड़े की हाजिर कीमतों में कमी से मुनाफे पर असर पड़ेगा। टैंकरों और ड्राई बल्क कार्गो की बढ़ती मांग से ऑफशोर और ड्रेजिंग कारोबार में कंपनी की संभावनाएं बढ़िया दिख रही हैं। कंपनी अपने चार ड्रेजरों के जरिये रोजाना 18,000 का सकल मुनाफा कमा रही है। (चार्टर रेट के मुताबिक यह 25,000 डॉलर प्रतिदिन के करीब बैठता है) कंपनी के पास ऑफशोर कारोबार में भी फायदा उठाने की योजना है।
मार्च 2009 में इसके बेड़े में एक रिग शामिल हो जाएगा जिससे भी इसे फायदा होगा। मोजांबिक और इंडोनेशिया में इसकी कोयला खदानों (30 लाख टन भंडार) से भी इसकी झोली में बहुत कुछ आएगा। दीर्घ अवधि के अनुबंधों और अलग-अलग क्षेत्रों में कारोबार से अगले दो साल में कंपनी के राजस्व में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है।
वरुण शिपिंग
एलपीजी ट्रांसपोर्टिंग सेगमेंट में वरुण शिपिंग बड़ी कंपनी है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां जितनी एलपीजी देश में मंगाती हैं, उसका 70 फीसदी यही कंपनी लाती है। देश की बढ़ती ऊर्जा जरुरतों के चलते कंपनी को फायदा पहुंचेगा क्योंकि उसमें भी आयात पर निर्भरता कंपनी के लिए फायदेमंद है।
जहाजों की कमी से भाड़े की दरों में भी कमी आने की गुंजइश नहीं है। कंपनी का बेड़ा अधिकतर हाइड्रोकार्बन के क्षेत्र में ही लगा है। इसमें 12 एलपीजी कैरियर, तीन डबल हॉलल एफरमैक्स क्रूड टैंकर्स, एक प्रोडक्ट टैंकर और पांच एएचटीएसवी शामिल हैं। शायद यही वजह है कि कार्गोटैंकर रेट में हालिया कमी से से कंपनी कम ही प्रभावित हुई है। कंपनी ऑफशोर गतिविधियों में खासतौर से ध्यान दे रही है।
इसी के चलते ऑफशोर से होने वाला राजस्व वित्त वर्ष 2007 में जहां महज 3.55 फीसदी (23.9 करोड़) था वहीं वित्त वर्ष 2008 में बढ़कर यह 19.46 फीसदी (165.5 करोड़ रुपये) हो गया। चालू वित्त वर्ष में कंपनी की 25 फीसदी वृद्धि का अनुमान है।
एबीजी शिपयार्ड
एबीजी शिपयार्ड, सबसे बड़ी और तेजी से बढ़ती जहाज निर्माण कंपनी है। तेल अन्वेषण और दूसरी गतिविधियों के लिए जहाजों की मांग से कंपनी को बहुत फायदा पहुंचा है। इसका इस साल का ऑर्डर 8,985 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है जो कि खंपनी के इस वर्ष के राजस्व से 8.1 गुना अधिक है।
कंपनी ने विपुल शिपयार्ड का अधिग्रहण किया है और वर्ष 2009 से इसका परिचालन भी शुरू हो जाएगा। कंपनी दक्षिण गुजरात में 300 एकड़ जमीन पर 1,200 करोड़ रुपये के निवेश से सबसे बड़ा शिपयार्ड बनाने जा रही है। तीन साल में यहां से उत्पादन शुरू हो जाएगा और साल भर में 6 से 8 बड़े जहाज (करीब 2,000 करोड़ रुपये के) बन सकेंगे।
जहाजों की मरम्मत के क्षेत्र में भी कंपनी बढ़िया प्रदर्शन कर रही है। अगले तीन साल में एबीजी के 35 से 40 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान है।
भारती शिपयार्ड
भारती शिपयार्ड, देश में जहाज निर्माण उद्योग के क्षेत्र की दूसरी बड़ी कंपनी है। यह अलग-अलग किस्म के जहाज बनाती है जिनमें कार्गो से लेकर टैंकर तक शामिल हैं। ऑफशोर में बढ़ रही गतिविधियां, कंपनी के लिहाज से बढ़िया ही हैं।
ऑफशोर रिग के निर्माण में उतरने से कंपनी को दीर्घ अवधि में फायदा होगा। अगले तीन साल में कंपनी का राजस्व 35 से 40 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है। 1,050 करोड़ रुपये के निवेश से दाभोल और मंगलूर की दो परियोजनाएं वर्ष 2011 तक पूरा होने की उम्मीद है। क्षमता बढ़ने से कंपनी तेजी से ऑर्डर पूरा कर सकती है।