Women Employment in Urban India: भारत के शहरी इलाकों में रेगुलर सैलरी पर काम करने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी कम होती जा रही है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के लेटेस्ट तिमाही डेटा की एनालिसिस से पता चलता है कि वित्त वर्ष 24 की सितंबर तिमाही (FY24Q2) में नौकरियों को लेकर महिलाओं की हिस्सेदारी नए निचले स्तर पर पहुंच गई। इसकी मुख्य वजह यह भी है कि कंपनियां अब अपने कर्मचारियों को ऑफिस बुला रही हैं।
PLFS (Periodic Labour Force Survey ) डेटा की एनालिसिस से पता चला है कि नौकरियों पर काम करने वाली कुल महिलाओं में रेगुलर सैलरी पर काम करने वाली महिलाओं की संख्या वित्त वर्ष 24 की दूसरी तिमाही में घटकर 52.8 फीसदी हो गई है, जबकि वित्त वर्ष 24 की पहली तिमाही में यह 54 प्रतिशत थी। जब से राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ने वित्त वर्ष 2019 की तीसरी तिमाही में तिमाही के आधार पर PLFS सर्वे जारी करना शुरू किया है, यह पिछले छह सालों में किसी भी तिमाही में वेतन रोजगार में महिलाओं की सबसे कम हिस्सेदारी है। वित्तीय वर्ष 2011 की पहली तिमाही में मजदूरी के काम में महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 61.2 प्रतिशत थी।
रोजगार के ‘वर्तमान साप्ताहिक स्थिति’ (CWS) माप का उपयोग करते हुए यह सर्वेक्षण किसी व्यक्ति को एक सप्ताह की निश्चित अवधि के दौरान उसके द्वारा किए गए काम को देखता है और उसके मुताबिक उसके रोजगार को क्लासिफाई करता है यानी काम के अनुसार यह बांटता है कि वह व्यक्ति क्या कर रहा है, जैसे- स्व-रोजगार (self-employed), नियमित वेतन/वेतनभोगी कर्मचारी (regular wage/salaried employee) और आकस्मिक श्रम यानी कैजुअल लेबर। सर्वेक्षण से पता चला है कि स्व-रोजगार महिलाओं की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2024 की पहली तिमाही में 39.2 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 की दूसरी तिमाही में 40.3 प्रतिशत हो गई, जबकि आकस्मिक श्रमिकों की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 24 की पहली तिमाही 6.8 प्रतिशत के मुकाबले वित्त वर्ष 2024 की दूसरी तिमाही में मामूली बढ़कर 6.9 प्रतिशत हो गई।
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नियमित वेतन या सैलरी वाले कामों में, श्रमिकों को नियमित रूप से फिक्स्ड वेतन मिलता है और आम तौर पर इसे एक कैजुअल वर्कर के रूप में काम करने या स्व-रोजगार के मुकाबले एक बेहतर रोजगार माना जाता है क्योंकि कैजुअल वर्कर या स्व-रोजगार में उन लोगों की भी गिनती कर ली जाती है जो कृषि क्षेत्रों में अवैतनिक घरेलू मदद के रूप में काम कर रहे हैं या एक छोटा सा उद्यम चला रहे हैं।
टीमलीज सर्विसेज (TeamLease Services ) की को-फाउंडर रितुपर्णा चक्रवर्ती का कहना है कि भारत में महिला रोजगार को बहुत ही अजीब स्थिति का सामना करना पड़ता है। उनकी शिक्षा के स्तर में वृद्धि श्रम बल में बढ़ती भागीदारी में तब्दील नहीं होती है, और इससे श्रम बल में कम भागीदारी तो होती ही है, साथ ही मजदूरी के काम में भी महिलाओं की हिस्सेदारी कम होती जाती है।
उन्होंने कहा, ‘जैसा कि पहले से ही देखा जा सकता है, महिलाओं के बीच शिक्षा के स्तर में वृद्धि के बाद भी वे घर पर रहकर घरेलू काम और बच्चों की देखभाल करती हैं। इसीलिए शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी दर ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले कम है। इसके अलावा, महामारी के बाद कंपनियां अपने कर्मचारियों को ऑफिस में वापस बुलाने लगी हैं। चूंकि, बड़ी संख्या में महिलाएं घर पर रहना और घरेलू काम करना पसंद कर रही हैं, इसलिए उनके प्रोफेशन में अचानक से रुकावट दिखने लगी है।
हालांकि शहरी क्षेत्रों में नौकरीपेशा और नौकरी की तलाश करने वाली महिलाओं सहित श्रम बल भागीदारी दर (लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट-LFPR) में सुधार हुआ है, जो इस वित्तीय वर्ष में सितंबर तिमाही में छह साल के उच्चतम 24 प्रतिशत को छू गया है, फिर भी अगर ग्रामीण इलाकों से तुलना करें तो यह काफी कम है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए. 2022-23 के लिए नवीनतम वार्षिक PLFS रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी शहरी कार्यबल के लिए 20.2 प्रतिशत के मुकाबले 30.5 प्रतिशत थी।
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इसी तरह के विचार रखते हुए, श्रम अर्थशास्त्री केआर श्याम सुंदर कहते हैं कि महिलाएं अक्सर अपनी प्रोफेशनल ग्रोथ के लिए काम करने के बजाय पारिवारिक आय के पूरक (supplement) के लिए श्रम बाजारों में हिस्सा लेती हैं यानी काम करती हैं।