उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अगर किसी के परिसरों में छापामारी या छानबीन के दौरान किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ आपत्तिजनक साक्ष्य पाए गए तो तीसरा पक्ष आयकर अधिनियम की धारा 153सी के जद में आएगा। छापा 1 जून 2015 से पहले पड़ा हो या उसके बाद पड़ा हो, यह नियम दोनों हालत में लागू होगा।
धारा 153सी राजस्व विभाग को अघोषित आय एवं परिसंपत्तियों के मामले में किसी अन्य व्यक्ति या तीसरे पक्षों के खिलाफ कार्रवाई करने, नोटिस जारी करने और आय की समीक्षा करने का अधिकार देती है।
शीर्ष न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय का इसी मामले से संबंधित 2014 का आदेश निरस्त कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वित्त विधेयक, 2015 द्वारा धारा 153सी में किया गया संशोधन पुराने मामलों पर भी लागू होगा। इसका एक मतलब यह भी है कि तीसरे पक्ष के खिलाफ उठाए गए कदम इस प्रावधान के तहत आएंगे और सभी विचाराधीन और भविष्य में होने वाली कार्रवाई इस धारा की जद में आएगी।
पेप्सिको इंडिया के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2014 में धारा 153सी में दूसरे व्यक्ति या तीसरे पक्ष के लिए इस्तेमाल में लाए गए शब्द की सीमित व्याख्या की थी। इसके बाद सरकार ने 2015 में इस धारा में संशोधन किया, जो 1 जून 2015 से लागू हो गया।
मगर इस बात पर विवाद बना रहा कि धारा किन मामलों में लागू होगी और 1 जून 2015 से पहले के मामलों पर भी लागू होगी या नहीं। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि पेप्सिको मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ‘सीमित’ और ‘संकीर्ण’ व्याख्या किए जाने के बाद इस संशोधन की जरूरत पड़ी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधायिका जिस दोष को दूर करना चाह रहा रहा था उच्च न्यायालय का आदेश उसकी राह में आड़े आ रहा था। अदालत ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी उस गलत कृत्य को सजा देने की राह में आड़े आ रहा था, जिसके लिए यह विधान किया गया था।
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि जो व्याख्या विधान की भावना को श्रेष्ठ रूप से प्रदर्शित करती है उसे ही तरजीह मिलनी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने जिस तरह सीमित व्याख्या की थी, उसके कारण संशोधन की जरूरत आन पड़ी।
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि धारा 153सी का मकसद जिस व्यक्ति के खिलाफ छापेमारी की गई है उसके अलावा दूसरे लोगों को भी इसके जद में लाना है। जब इस धारा में संशोधन नहीं किया गया था तब भी छापे की जद में आए व्यक्ति के पास मिले किसी तीसरे पक्ष के कागजात के आधार पर उस पक्ष के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती थी।
शीर्ष न्यायालय ने यह तर्क भी खारिज कर दिया कि पुराने मामलों पर यह धारा लागू होने से व्यक्तियों के अधिकार प्रभावित होंगे। न्यायालय ने कहा कि यह तर्क आकर्षक जरूर प्रतीत होता है मगर निरस्त किए जाने योग्य है।