सन 2009 में अमेरिका के एक शीर्ष शोधकर्ता रामास्वामी सुब्रमण्यन ने बेंगलूरु के प्रतिष्ठित नैशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) में इंस्टीट्यूट फॉर स्टेम सेल बायोलॉजी ऐंड रिजनरेटिव मेडिसन की स्थापना की चुनौती स्वीकार की। राम ने चिकित्सकीय शोध और उद्योग जगत को एक साथ लाने के लिए सी-कैंप के रूप में एक इन्क्यूबेटर की भी स्थापना की।
उनका 10 वर्षों का कार्यकाल मिलेजुले नतीजों वाला साबित हुआ। इंस्टीट्यूट ने वह सब हासिल किया जिस पर किसी बड़े वैज्ञानिक संस्थान को नाज होगा। मिसाल के तौर पर उच्चस्तरीय अधोसंरचना और वैश्विक प्रतिष्ठा वाले वैज्ञानिकों मसलन क्योटो विश्वविद्यालय के कोउइची हसेगावा आदि वहां आए। सी-कैंप में करीब 50 कंपनियां सालाना सहयोग आधारित शोध में शामिल हुईं और यह अपने स्तर पर काम करने लायक हो गया।
बहरहाल, मूल उद्देश्य पूरा नहीं हो सका जिसके तहत पांच या छह जटिल शोध समस्याओं को चिह्नित करके जीवन विज्ञान की दिशा में अहम प्रगति करने की अपेक्षा थी। डॉ. सुब्रमण्यन कहते हैं कि उन्होंने इनस्टेम में अपने कार्यकाल के दौरान खुद कुछ महत्त्वपूर्ण और उत्कृष्ट शोध परियोजनाओं पर काम किया लेकिन शोध के लिए जिस अनुदान का वादा किया गया था उसे मिलने में देरी के कारण परियोजना लंबित होती गई तथा अन्य वैश्विक शोधकर्ता आगे निकलते चले गए। इन वजहों को समझना आवश्यक है क्योंकि इनकी वजह से भारतीय शोध प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
भारत सरकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में लगातार नए आईआईटी और आईएसईआर स्थापित किए हैं। देश की भारी भरकम आबादी को देखते हुए भारत वैश्विक शोधकर्ताओं को काफी समृद्ध और विविधता से भरा डेटा उपलब्ध कराता है। इससे उन्हें उभरते बाजारों के बारे में अधिक जानकारी मिल पाती है। कई भारतीय और वैश्विक वैज्ञानिक इन प्रयोगशालाओं में बेहतरीन शोध कर रहे हैं तो अंतर कहां है?
परिणाम बनाम उत्पादन: यह एक शाश्वत समस्या है जहां पूरा ध्यान प्रतिष्ठित जर्नल्स में अकादमिक पर्चे प्रकाशित कराना, न कि ऐसी वास्तविक क्लिनिकल ऐप्लिकेशंस तैयार करना जिसके लिए इस सेंटर को तैयार किया गया था। समय के साथ उसका मूल उद्देश्य कहीं खो सा गया।
शोध अनुदान केवल कागजों पर: सरकार शोध के लिए बजट आवंटित करती है लेकिन इसके लिए आवंटित फंड या तो वितरित नहीं होते हैं या फिर काफी देरी से दिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि विभागीय सचिव इससे अनजान हैं लेकिन वे असहाय अवश्य हैं। वे दरअसल व्यवस्था के हाथों बंधे हुए हैं। वित्तीय सलाहकारों के हाथों जो आमतौर पर अंडर सेक्रेटरी स्तर के होते हैं और जिन्हें नकदी के मामलों में अधिकार प्राप्त होते हैं। ये वित्त मंत्रालय में व्यय सचिव के अधीन होते हैं। इसके परिणामस्वरूप विभागीय सचिवों के पास फंड बांटने की शक्ति बहुत कम रहती है।
जब महाराज किशन भान जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव थे तब वह किसी तरह की देरी बरदाश्त नहीं करते थे और खुद ही फंड मंजूर करते थे या फिर व्यय सचिव को ऐसा करने के लिए कहते थे। परंतु उनके उत्तराधिकारियों में से कोई ऐसा नहीं कर सका। अगर शोध अनुदान समय पर नहीं आएगा तो वास्तविक काम अनिश्चित बना रहेगा। समय बीतने के साथ कई महत्त्वाकांक्षी शोध प्रयास अपनी धार खो देते हैं क्योंकि अफसरशाही और लालफीताशाही के साथ-साथ महंगे उपकरण और रीएजेंट आयात करना मुश्किल होता है।
बाहरी फंडिंग जुटाने के जोखिम: ऐसा नहीं है कि निजी दानदाता किसी तरह का योगदान करना नहीं चाहते। ऐसे अवसरों पर जब निजी दानदाताओं ने शोध बजट में महत्त्वपूर्ण योगदान किया तब अफसरशाही के इन्हीं वित्तीय सलाहकारों ने सरकारी योगदान कम करने की अनुशंसा की। या फिर वे पैसे के खर्च के संदर्भ में जवाबदेही की मांग करते हैं। भले ही वह पैसा निजी क्षेत्र से आया हो।
इतना ही पर्याप्त नहीं था। जो फैमिली फाउंडेशन शोध के समर्थन में आगे आए वे पैसे के खर्च के हिसाब के बजाय यह जानना चाहते थे कि शोध कार्य में कितनी प्रगति हुई। परंतु वैज्ञानिक भी परिणामों की जवाबदेही लेना नहीं चाहते थे। वे वही उपयोगिता प्रमाणपत्र पेश कर देते जो वे अफसरशाही के साथ साझा किया करते थे। यह अंतहीन समस्या है। एक के बाद एक सरकारें शोध संस्कृति विकसित करने और उसे जारी करने के विचार से तालमेल नहीं बिठा सकी हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का बमुश्किल 0.6 फीसदी ही शोध पर व्यय करता है जबकि वैश्विक औसत 1.8 फीसदी है।
शोध संस्थान जितनी जल्दी आत्मनिर्भर हो जाएंगे और सरकार पर आर्थिक निर्भरता समाप्त कर लें उनके लिए उतना ही बेहतर होगा और वे अपनी शोध प्राथमिकताओं की दिशा में बढ़ पाएंगे। एक उम्मीद की किरण भी नजर आ रही है। न केवल भारत में बल्कि प्रवासी भारतीयों की ओर से परोपकारी पूंजी में भी इजाफा हो रहा है। डॉ. सुब्रमण्यन स्वयं ऐसे ही एक प्रयास का हिस्सा हैं जिसका नाम है: इग्नाइट लाइफ साइंस फाउंडेशन। इसकी स्थापना ऐसे शीर्ष वैज्ञानिकों ने की है जो दानदाताओं और शीर्ष शोधकर्ताओं के साथ मिलकर खास परियोजनाओं पर काम करते हैं। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में ऐसे संस्थान देश में शोध क्षेत्र की कमियों को भरने का प्रयास करेंगे।
नादिर गोदरेज, किरण मजूमदार शॉ, स्मिता कृष्णा, जी वी प्रसाद, सुनील हांडा, कृष गोपालकृष्णन, नंदन और रोहिणी निलेकणी और कई अन्य दीर्घकालिक परोपकारी उद्यमी तथा कई अन्य लोग इस बात को समझ रहे हैं कि भारतीय विज्ञान क्षेत्र की फंड से जुड़ी दिक्कतों को दूर करना आवश्यक है। इसका एक स्वाभाविक लाभ यह है कि इसके साथ कोई संस्थागत बोझ नहीं है। इग्नाइट इन चुनौतियों को समझता है कि दानदाता दान देना चाहते हैं और फिर वह विभिन्न संस्थानों के जानेमाने वैज्ञानिकों की टीम के साथ काम करता है।
देखना होगा कि यह पूंजी भंडार बढ़ता है या नहीं। फिलहाल के लिए देश में तकनीक सक्षम युवाओं की नई पौध अपनी संपदा वैज्ञानिक शोध में लगाती नहीं दिखती। भारतीय प्रवासियों में से नई पीढ़ी के उद्यमियों को साथ लेने के सुपरिणाम सामने आ सकते हैं, खासतौर पर अगर ये दानदाता भारत के बाहर भी भारतीय वैज्ञानिकों को अधिक से अधिक सम्मेलनों में शामिल होने और वैश्विक शोध केंद्रों में काम करने के लिए अनुदान दें तो और भी अच्छा होगा।