फार्मा उद्योग को लगता है कि वर्ष 2023 बढ़ती लागत, पेटेंट और नवोन्मष वाला होगा। सिप्ला की कार्यकारी वाइस-चेयरपर्सन और इंडियन फार्मास्युटिकल अलायंस (आईपीए) की उपाध्यक्ष समीना हमीद ने सोहिनी दास से वर्ष 2022 में उद्योग के रुझानों और भविष्य के बारे में बात की। संपादित अंश:
कोविड-19 दवा कंपनियों के घरेलू कारोबार का अहम हिस्सा था। अब जबकि कोई कोविड-19 बिक्री नहीं है, तो ऐसे में कंपनियां अपनी भारत रणनीति को किस तरह दुरुस्त कर रही हैं?
यह एक निश्चित सीमा तक सुधार और पुनर्कल्पना से संबंधित है क्योंकि कोविड के दौरान भारत के लिहाज से संभव हर आपूर्ति श्रृंखला बिंदु पर प्रत्येक दवा पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित था और यह काफी कुछ युद्ध में जाने जैसा था, इसलिए कंपनी ने इसी पर ध्यान केंद्रित किया तथा हम बीमारी से जूझ रहे थे – संगठन के भीतर और पारिस्थितिकी तंत्र दोनों में ही, इसलिए यह उफान के खिलाफ कारगर था। अब जब कोविड कम हो गया है और एक काफी विकसित टीकाकरण कार्यक्रम भी है, जिसने अविश्वसनीय रूप से अधिकांश भारत को कवर किया है, ऐसे में हम भारत में कोविड के बहुत कम मामले देख रहे हैं।
जहां तक संगठनों की बात है, तो मैं अपने बारे में बोलूंगा। हमारे पास चिकित्सीय क्षेत्रों में एक काफी बड़ा पोर्टफोलियो था और कोविड की वजह से बड़ा जोर रहा, चाहे वह श्वसन दवाओं के लिए हो या फिर एंटी-इन्फेक्टिव ड्रग्स के लिए। तो, हम उत्पादों के विकास, नवोन्मेष करने के संबंध में आगे बढ़ रहे हैं और चिकित्सीय क्षेत्र में आगे दौड़ रहे हैं। हमारी बिक्री का एक बड़ा हिस्सा कोविड उत्पादों वाला था, लेकिन काफी जल्द ही अन्य कारोबार भी लौट आए हैं – बाल चिकित्सा कारोबार वगैरह, जो कोविड के दौरान हाशिए पर चला गया था।
जरूरी दवाओं की नई राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) के बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या आप कहेंगे कि भारत में मूल्य निर्धारण विनियमन कड़ा है?
मूल्य निर्धारण के संबंध में मुझे लगता है कि यह हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है और एनएलईएम मरीजों, सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता और भविष्य की नीतिगत दिशा के बीच संतुलन बनाने के संबंध में है। इसलिए, निश्चित रूप से पुरानी बीमारियों से परे, यह बात काफी सराहनीय है कि एनएलईएम ने रोगाणुरोधी प्रतिरोध के खतरे पर ध्यान देने की कोशिश की है, जो अब न केवल भारत के लिए, बल्कि विश्व स्तर पर भी एक अहम मसला बन चुका है।
बदकिस्मती से लागत में इजाफा जारी है और चीन द्वारा कोविड मसला हल नहीं किए जाने से रह-रहकर लॉकडाउन हो रहे हैं, जो कच्चे माल की आवाजाही पर असर डाल रहे हैं। इसलिए दामों में काफी ज्यादा उतार-चढ़ाव है और यह हर फार्मा कंपनी के लिए काफी चुनौतीपूर्ण है, खास तौर पर शीर्ष 50 या शीर्ष 100 के लिए, जो वास्तव में गुणवत्ता मानक बनाए रखती हैं। ये कंपनियां अधिक गुणवत्ता वाले कच्चे माल तक पहुंच के लिए एनएलईएम श्रेणी की दवाओं में अधिक संघर्ष करेंगी। अब यूक्रेन में युद्ध चल रहा है और हमें माल ढुलाई की कीमतों में इजाफा दिख रहा है, तेल और गैस की कीमतें बढ़ चुकी हैं।
दवा कंपनियां उत्पादन लागत को किस तरह नियंत्रण में रख रही हैं?
मुझे लगता है कि पूरी तरह से डिजिटलीकरण, मशीन लर्निंग और रोबोटिक्स की ओर रुख हो गया है। एक ओर आप प्रौद्योगिकी के साथ अपने विनिर्माण क्षेत्र में बदलाव कर रहे हैं, दूसरी ओर शुरुआत करने के लिए आपका पूंजीगत व्यय अधिक होता है, लेकिन तब आपकी कुल इकाई लागत कम हो जाती है। इसलिए अधिक स्वचालित होने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, जो प्रति इकाई लागत कम करने में मदद करेगा।
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क्या हम चीन के अलावा एपीआई के लिए वैकल्पिक स्रोत विकसित करने पर विचार कर रहे हैं?
हां, सही बात, हम ऐसा कर रहे हैं। जहां हम स्थानापन्न कर सकते हैं, हम गुणवत्ता और आपूर्ति के समान स्तर के लिए ऐसा करेंगे। लेकिन सभी एपीआई भारत में विनिर्मित नहीं होते हैं। तो, स्पष्ट रूप से चीन से हटकर दुनिया भर में वैकल्पिक विक्रेता बनाए जा रहे हैं।
पेटेंट से हटने वाली प्रमुख दवाओं के अवसर को भारतीय फार्मा कंपनियां किस तरह देखती हैं?
हां, मुझे लगता है कि बड़ा अवसर है, लेकिन साथ ही बहुत प्रतिस्पर्धा भी है क्योंकि हर कोई इन मोलेक्यूल को बनाने की तैयारी में है क्योंकि आपके पास अनुसंधान एवं विकास विनिर्माण प्रक्रिया निर्माण के लिए पर्याप्त समय था क्योंकि हर ओर पेटेंट खत्म होता दिख रही है। इसलिए, मुझे लगता है कि यह भारत के लिए अच्छा है।