भारतीय वाहन विनिर्माताओं द्वारा नए मॉडल पेश करने में ‘अंतिम चरण वाले इंजीनियरिंग बदलावों’ की वजह से देर होती है। यह ऐसी समस्या है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की प्रतिस्पर्धी क्षमता को प्रभावित कर सकती है। प्रबंधन परामर्श से जुड़ी एक फर्म के अध्ययन में आज यह जानकारी दी गई।
वेक्टर कंसल्टिंग ग्रुप के अनुसार करीब 80 प्रतिशत मूल उपकरण विनिर्माताओं (ओईएम) ने ‘बाधाएं’ बताई हैं। वेक्टर के प्रबंध साझेदार रवींद्र पातकी ने कहा, ‘भारत में यह देर ज्यादा होती है और इलेक्ट्रिक वाहनों के मामले में तो और भी ज्यादा है। अगर हमारा वाहन विकास धीमा है तो आशंका है कि भारत दुनिया से पिछड़ जाएगा। चीन अपने वाहनों को 18 से 24 महीनों में विकसित कर रहा है जबकि हम अब भी करीब 36 से 60 महीनों में।’
उन्होंने कहा, ‘डिजाइन में बाद वाले चरण के बदलाव लॉन्च में रुकावट डाल रहे हैं, आपूर्तिकर्ताओं की क्षमता कम कर रहे हैं और वैश्विक वाहन बाजार में भारत की प्रतिस्पर्धी क्षमता को प्रभावित कर रहे हैं।’
अध्ययन में कहा गया है कि आम धारणा के विपरीत किसी वाहन का शुरुआती प्रोटोटाइप तैयार करने और सत्यापन के बाद भी इंजीनियरिंग बदलाव खत्म नहीं होते। आदर्श बात तो यह है कि प्री-प्रोडक्शन में बदलाव 15 प्रतिशत से कम, लॉन्च के बाद उत्पादन में 8 प्रतिशत या उससे कम तथा उत्पाद में स्थिरता आने के बाद यह बदलाव 3 प्रतिशत से कम रहने चाहिए। अलबत्ता, विकास चक्र के बाद वाले चरणों में भी ऐसे बदलाव अधिक होते हैं।
केवल 6 प्रतिशत ओईएम ही इस आदर्श का पालन करती हैं, 13 प्रतिशत ओईएम हल्का उतार-चढ़ाव बताती हैं और 81 प्रतिशत ओईएम ‘इस पैटर्न के मुकाबले खासा बड़ा अंतर’ दिखाती हैं। ऐसा हरेक बदलाव डिजाइन, टूलिंग, बार-बार के सत्यापन या सॉफ्टवेयर अपडेट में फिर से काम किए जाने की जरूरत बता सकता है। इससे मॉडल पेश करने के तय समय में देर होती है और लागत बढ़ जाती है।
ये बदलाव आपूर्तिकर्ताओं को भी प्रभावित करते हैं। लगभग 57 प्रतिशत पुर्जा विनिर्माताओं ने कहा कि अंतिम चरण में बार-बार के बदलाव का मतलब यह है कि उनकी टीमों को लगातार दोबारा काम और समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। इन्हें परियोजनाओं के बीच संसाधनों को बार-बार बदलना पड़ता है।