जल्द ही भारत के स्मार्टफोन यूजर्स को ऐसा नया नेटवर्क मिलने वाला है, जो बिना किसी मोबाइल टावर के काम करेगा। यानी जंगल, पहाड़, रेगिस्तान या गांव जैसे इलाकों में भी आप कॉल, मैसेज और इंटरनेट इस्तेमाल कर सकेंगे। और वो भी अपने मौजूदा फोन से, बिना कोई नया सैटेलाइट फोन खरीदे। इस तकनीक को Direct-to-Device (D2D) कहा जाता है, जिसमें मोबाइल सीधे सैटेलाइट से जुड़ता है। भारत में इसकी शुरुआत सबसे पहले Vodafone Idea (Vi) करेगी, जिसने अमेरिका की AST SpaceMobile कंपनी से साझेदारी की है।
AST SpaceMobile अमेरिका की बड़ी सैटेलाइट कंपनी है, जिसमें Google, AT&T, Verizon, Vodafone Plc और Rakuten जैसी दिग्गज कंपनियों ने निवेश किया है। ये कंपनी अब तक 6 लो-अर्थ ऑर्बिट (LEO) सैटेलाइट लॉन्च कर चुकी है और कुल 243 सैटेलाइट भेजने की योजना है। Vi और AST की साझेदारी भारत के उन इलाकों में D2D नेटवर्क देने के लिए है, जहां मोबाइल टावर नहीं हैं या नेटवर्क बहुत कमजोर है। इसके लिए यूजर्स को न नया फोन बदलना पड़ेगा, न ही कोई सैटेलाइट डिवाइस खरीदनी होगी।
इस मैदान में मुकाबला जबरदस्त है। एलन मस्क की Starlink, Apple का Globalstar, Amazon का Kuiper, Lynk Global और Iridium जैसी कंपनियां भी भारत में D2D सर्विस शुरू करने की तैयारी में हैं। Starlink के पास पहले से 7,800 सैटेलाइट हैं, जिनमें से 600 D2D तकनीक को सपोर्ट करते हैं। कंपनी अमेरिका में T-Mobile के साथ इसका ट्रायल कर चुकी है और अब भारत में Reliance Jio और Airtel के साथ बातचीत कर रही है।
Jio और Airtel के पास देश की सबसे बड़ी यूजर बेस है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि ये दोनों कंपनियां Starlink के साथ मिलकर D2D सेवा भारत में शुरू कर सकती हैं और रेवेन्यू शेयर कर सकती हैं।
Apple की नई iPhone सीरीज़ (iPhone 14 और इसके बाद वाले मॉडल) पहले से Globalstar के ज़रिए सैटेलाइट कनेक्टिविटी सपोर्ट करती है। भारत में करीब 5 करोड़ iPhone यूज़र हैं, जिन्हें D2D के ज़रिए SOS और मैसेजिंग जैसी सेवाएं मिल सकती हैं।
D2D यानी डायरेक्ट-टू-डिवाइस तकनीक खास इसलिए मानी जा रही है क्योंकि इसके लिए न तो किसी नए फोन की ज़रूरत है और न ही महंगे सैटेलाइट फोन की। मौजूदा 4G और 5G स्मार्टफोन पर ही यह तकनीक काम करेगी। दूसरा बड़ा फायदा यह है कि मोबाइल कंपनियों को कोई नया स्पेक्ट्रम खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। वे अपने मौजूदा स्पेक्ट्रम, जैसे 2100 MHz, के जरिए ही सैटेलाइट से नेटवर्क सेवा दे सकेंगी।
हालांकि मोबाइल नेटवर्क भारत की 99% आबादी तक पहुंच चुका है, लेकिन अब भी देश के केवल 50–60% भौगोलिक हिस्से में ही सही मायनों में नेटवर्क मौजूद है। यानी देश के पहाड़ी, वनवासी, रेगिस्तानी और सीमा से लगे इलाकों में नेटवर्क अक्सर गायब रहता है। यहां तक कि बड़े शहरों में भी कई ‘dead zones’ ऐसे हैं जहां सिग्नल कमजोर होता है या कॉल ड्रॉप की समस्या आती है। ऐसे सभी इलाकों में D2D तकनीक गेमचेंजर साबित हो सकती है, क्योंकि यह सीधे सैटेलाइट से जुड़ेगी और नेटवर्क की सीमाएं तोड़ेगी।
एक टेलीकॉम कंपनी के सीनियर अधिकारी ने कहा, “शुरुआत में लगभग 5% स्मार्टफोन यूज़र इस सेवा को अपनाएंगे। ये सेवा प्रीमियम होगी, जैसे इंटरनेशनल रोमिंग – यानी थोड़ा महंगा पैकेज मिलेगा, लेकिन सुविधा भरपूर होगी।” इससे टेलिकॉम कंपनियों को 10–15% तक का अतिरिक्त रेवेन्यू भी मिल सकता है।
अभी सरकार से सिफारिश की गई है कि सैटेलाइट कंपनियों को L-band (1–2 GHz) और S-band (2–4 GHz) वाला स्पेक्ट्रम दिया जाए। इन फ्रीक्वेंसी बैंड की खास बात ये है कि ये बारिश, बादलों या घने जंगलों में भी अच्छे सिग्नल देते हैं। अगर सरकार यह स्पेक्ट्रम सैटेलाइट कंपनियों को दे देती है, तो उन्हें मोबाइल कंपनियों की जरूरत नहीं पड़ेगी। वे सीधे यूज़र के फोन तक नेटवर्क पहुंचा सकेंगी — वो भी बिना सिम कार्ड बदले, सिर्फ eSIM के ज़रिए। यानी आपको सिम नहीं बदलनी, बस सॉफ्टवेयर से कनेक्शन मिल जाएगा। टेलीकॉम कंपनियां इससे डरी हुई हैं क्योंकि उन्होंने स्पेक्ट्रम नीलामी में भारी पैसे दिए हैं, जबकि सैटेलाइट कंपनियों को कम दाम पर यही सुविधा मिल जाएगी।
D2D तकनीक का भविष्य अब इस बात पर टिका है कि सरकार इसको लेकर क्या नीति बनाती है। टेलीकॉम कंपनियां चाहती हैं कि सरकार इस बारे में साफ नियम बनाए। कुछ कंपनियों का कहना है कि D2D कोई नई सर्विस नहीं, बल्कि सिर्फ एक नई टेक्नोलॉजी है और यह 3GPP जैसे अंतरराष्ट्रीय मानकों के तहत आती है, इसलिए इसके लिए सरकार से अलग से कोई इजाजत लेने की ज़रूरत नहीं है। वहीं कुछ दूसरी कंपनियां मानती हैं कि अभी जो नियम बने हैं, वे सिर्फ जमीन पर चलने वाले नेटवर्क के लिए हैं। इसलिए D2D जैसी सैटेलाइट से जुड़ी सर्विस के लिए नए नियम बनाने होंगे।