अमेरिका में झींगे को अक्सर ‘राष्ट्रीय जुनून’ माना जाता है। वहां इसे विभिन्न रूपों में खाया जाता है। उसे बैटर में पकाकर, तलकर, भाप में पकाकर, उबालकर अथवा कॉकटेल सॉस के साथ परोसा जाता है। इसलिए 2 अप्रैल को जब डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने जवाबी शुल्क लगाने की घोषणा की तो देश भर के झींगा प्रेमी सबसे अधिक मायूस हो गए।
अमेरिका से करीब 13,000 किलोमीटर अधिक दूर आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के लक्ष्मीपुरम-पल्लीपलेम क्षेत्र के हरेभरे इलाके में बुजुर्ग झींगा किसान केबी गंगाधर राव ने जवाबी शुल्क के बारे में कभी नहीं सुना था। लेकिन अब वह तेलुगु, टूटी-फूटी अंग्रेजी और हिंदी की मिलीजुली भाषा में ट्रंप शुल्क के प्रभाव को साफ तौर पर बता पा रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘ट्रंप मेरे झींगा कारोबार को नुकसान पहुंचा रहे हैं।’ राव जैसे तमाम झींगा किसानों को हाल के वर्षों में वायरस की मार झेलनी पड़ी थी। अब उन्हें अमेरिका में उच्च शुल्क का दंश महसूस हो रहा है क्योंकि इससे झींगे की कीमतों में 10-15 फीसदी की गिरावट दिख सकती है। उन्हें लगता है कि ट्रंप शुल्क उनकी पूरी कमाई को ही खत्म कर देगा।
यह केवल राव की ही कहानी नहीं है। आंध्र प्रदेश में 1.4 लाख से अधिक किसान और करीब 20 लाख लोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर जलीय कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। राज्य में यह क्षेत्र करीब 2.12 लाख हेक्टेयर में फैला हुआ है जहां मछली के साथ-साथ झींगे का भी पालन किया जाता है। हालांकि अमेरिका को केवल 50 से कम काउंट की सीमा में सिर्फ श्रिम्प किस्म का ही निर्यात किया जाता है, लेकिन 100, 90, 80, 70 और 60 काउंट वाली अन्य किस्मों की कीमतों में भी भारी गिरावट देखी गई है। इन किस्मों को मुख्य तौर पर चीन, यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया, जापान एवं अन्य एशियाई बाजारों में भेजा जाता है।
राव ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘कोविड महामारी के बाद से ही हम संघर्ष कर रहे हैं। बीमारी एक प्रमुख चिंता की बात है। पिछले पांच साल के दौरान न केवल उपकरणों और दवाओं के दाम बढ़े हैं बल्कि बिजली दरें भी बढ़ गई हैं। कुछ साल पहले तक 60 काउंट वाले झींगे के लिए मुझे करीब 400 रुपये मिलते थे, लेकिन अब बमुश्किल 300 रुपये मिल पा रहे हैं।’
झींगे के आकार को प्रति किलोग्राम संख्या के आधार पर मापा जाता है। अगर एक किलोग्राम में झींगे की संख्या कम है तो उसका मतलब वह बड़े आकार में है। राव ने एक संवाददाता से बातचीत करते हुए उम्मीद जताई कि उनकी चिंताएं राज्य या केंद्र सरकार तक पहुंच सकती हैं। ट्रंप की घोषणा के बाद कीमतों में औसतन 40 से 50 रुपये प्रति किलोग्राम की गिरावट आई है। मुख्य रूप से अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले 30-50 गिनती वाले झींगे का भाव अब 300 से 415 रुपये प्रति किलोग्राम है।
ऑनलाइन खबरों के अनुसार, न्यूयॉर्क शहर में झींगे की कीमतें 6.99 से 39 डॉलर प्रति पौंड (लगभग आधा किलोग्राम) तक हैं। इससे साफ तौर पर पता चलता है कि झींगा किसानों को वह कीमत नहीं मिल पा रही है जिसके वे हकदार हैं। झींगा उत्पादन से जुड़े एक कर्मचारी एम राम ने झिझकते हुए बताया कि उन्हें 13,000 रुपये महीना वेतन मिलता है। यह इस बात का संकेत है कि किसी उत्पाद का उचित मूल्य रास्ते में ही किस प्रकार खो
जाता है। पल्लीपलेम से करीब 10 किलोमीटर दूर पश्चिमी गोदावरी जिले के भीमावरम मंडल में गुटलापाडु नामक एक गांव है। गुटलापाडु की यात्रा करने पर पता चलता है कि तटीय आंध्र प्रदेश में झींगा पालन का क्या मतलब है।
पश्चिमी गोदावरी जिले के भीमावरम मंडल में गुटलापाडु में झींगा फार्म से लेकर नहरों और तालाबों तक हर जगह खारा पानी है जो तटीय आंध्र की खूबसूरती को दर्शाता है। ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र की पूरी अर्थव्यवस्था झींगा कारोबार पर ही निर्भर है। उसी इलाके के 30 वर्षीय युवा किसान हरि हर वर्मा ने झींगा व्यवसाय के उतार-चढ़ाव के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘यह एक ऐसा कारोबार है जिसके बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता। कभी-कभी पूरा उत्पादन ही वायरस के चपेट में आ जाता है और हमारी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है। इससे हमें काफी नुकसान होता है।’ वर्मा ने अपनी रॉयल एनफील्ड पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्टिकर लगा रखा था। उन्होंने उसी बाइक पर बिठाकर हमें गुटलापाडु की संकरी, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से होते हुए झींगा फार्मों को दिखाया। वर्मा ने अपने राजनीतिक विचार भी साझा किए। उन्होंने कहा, ‘युवाजन श्रमिक रैयतु कांग्रेस पार्टी की सरकार के कार्यकाल में हमारी सारी रियायतें छीन ली गईं। हमें बिजली सब्सिडी जैसी मदद भी नहीं मिली।’
गुटलापाडु के कोठा पुसलामारु इलाके में विश्वनाथ राजू ने आंध्र प्रदेश में झींगा पालन का इतिहास बताया। उनके पिता ने 1986 में झींगा पालन शुरू किया था। उस दौरान झींगे की वैश्विक मांग में उछाल आई थी। उन्होंने कहा, ‘1990 के दशक के आखिर में चंद्रबाबू नायडू सरकार ने झींगा कारोबार को बढ़ावा दिया जिससे हमारी जिंदगी बदल गई। अब मेरे पास करीब 60 एकड़ का झींगा फार्म है।’ जब उनके पिता ने झींगा पालन का काम शुरू किया था तो ब्लैक टाइगर झींगा (पेनियस मोनोडॉन) और कुछ हद तक भारतीय सफेद झींगा (पेनियस इंडिकस) ही बाजार में बिकते थे। बाद में इस कारोबार को व्हाइट स्पॉट सिंड्रोम वायरस ने बुरी तरह प्रभावित किया। पर्यावरण प्रेमियों की दलीलें सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने तटीय जल में झींगा पालन पर प्रतिबंध लगा दिया। मगर संसद में पारित एक कानून के जरिये किसानों को झींगा जलीय कृषि दोबारा शुरू करने में मदद मिली।
हालांकि भारतीय किस्मों में बीमारी, सुस्त वृद्धि और आकार में भिन्नता जैसी समस्या बनी रही। इन समस्याओं से निपटने के लिए भारत ने 2008 में विशिष्ट रोगजनक मुक्त प्रशांत सफेद झींगा (लिटोपेनेअस वन्नामेई) की शुरुआत की। यह एक ऐसा कदम था जो आंध्र प्रदेश के किसानों के लिए एक जबरदस्त बदलाव साबित हुआ। एक अन्य किसान वेणुगोपाल राजू करीब 30 एकड़ में झींगा पालन करते हैं। उन्होंने कहा, ‘अब हम केवल वन्नामेई का ही पालन करते हैं।’ भारत के कुल झींगा निर्यात में वन्नामेई की हिस्सेदारी 87 फीसदी है और उसका मूल्य करीब 4.25 अरब डॉलर है। केवल अमेरिका को ही 54 फीसदी निर्यात किया जाता है। उसके बाद चीन को 16 फीसदी और यूरोपीय संघ को 9 फीसदी निर्यात किया जाता है।
सीफूड एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय समिति सदस्य जगदीश थोटा ने कहा, ‘कुछ तिमाहियों से कीमतों में गिरावट के बारे में जारी चिंताएं सही नहीं हैं। घबराहट के कारण कीमतों में सभी किस्मों के लिए करीब 40 रुपये प्रति किलोग्राम की गिरावट आई थी। मगर अब उसमें धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। साथ ही अमेरिकी खरीदार अतिरिक्त शुल्क के प्रभाव को झेलने के लिए तैयार हैं। उसका बोझ किसानों पर नहीं डाला जा सकता है।’ उन्होंने कहा कि अभी भी इक्वाडोर जैसे प्रतिस्पर्धियों पर भारत की बढ़त बरकरार है।
बहरहाल तमाम तर्क-वितर्क के बीच भारत के झींगा किसान ट्रंप की नीतियों और अनिश्चितताओं के बीच फंसे हुए हैं।