कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम का कहना है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को उपकर के साथ-साथ पेट्रोल और डीजल से जुड़े करों और व्यक्तिगत आयकर पर अधिभार में कटौती करके लोगों के हाथों में अधिक पैसा देना चाहिए। मोरारजी देसाई के बाद सबसे अधिक नौ बार बजट पेश करने वाले पूर्व वित्त मंत्री ने एक साक्षात्कार में इंदिवजल धस्माना से शिक्षा, स्वास्थ्य, पीएम किसान, मनरेगा जैसे शहरी योजनाओं आदि के आवंटन के बारे में बात की। प्रमुख अंश:
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में अपने हाल के एक लेख में आपने लिखा है कि पहले अग्रिम अनुमानों से पता चला है कि आर्थिक वृद्धि, उपभोग के माध्यम से हो रही है लेकिन बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से उपभोग की दर भी प्रभावित हो रही है। महंगाई कम करने और रोजगार बढ़ाने के लिए बजट में क्या किया जा सकता है?
भारत की अर्थव्यवस्था के उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था होने के नाते, वृद्धि के अन्य तीन इंजनों को जरूर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जब मैंने पिछले सत्र में वित्त मंत्री से पूछा कि चारों में से कौन सबसे ज्यादा संभावनाओं से भरा इंजन हैं तो वह निजी निवेश को लेकर काफी सतर्क थीं। उन्होंने निर्यात को लेकर उम्मीद जाहिर की। लेकिन यह प्रासंगिक नहीं है।
ऐसे में वास्तविकता यह है कि अगर मांग कम होगी तब खपत-संचालित वृद्धि प्रभावित होगी। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अधिक पैसा लोगों, विशेष रूप से कर भुगतान करने वाले वर्ग के हाथों में हो। स्पष्ट रूप से मेरे विचार में पूंजीगत व्यय अच्छा है और वित्त मंत्री ने जितना कहा है उससे कहीं ज्यादा हो सकता है। उन्हें निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भी कुछ करना चाहिए और उन्हें उपभोक्ताओं के हाथों में अधिक पैसा रहने देने के बारे में भी कुछ करना चाहिए।
इसका मतलब व्यक्तिगत आयकर की सीमा बढ़ाना या कर की दरों में बदलाव करना है?
मैं कई कराधान प्रणालियों का विरोध करता हूं। उन्होंने (सरकार) पहले ही कराधान की एक सीधी प्रणाली के साथ छेड़छाड़ की है जिसमें 10, 20 और 30 प्रतिशत की दरें शामिल हैं। शुरुआती वर्ग के लिए 10 फीसदी और शीर्ष वर्ग के लिए 30 फीसदी और इसके बीच के वर्ग के लिए 20 फीसदी की दर तय थी। उन्होंने कोई छूट नहीं वाली कर व्यवस्था लागू करके इसे और मजबूत कर दिया है। इस पर हामी भरने वाले कई लोग नहीं होंगे। मुझे डर है कि सरकार छूट न देने की कर प्रणाली के अपने पसंदीदा सिद्धांत को आगे बढ़ाने और उसमें कुछ रियायतें देने पर जोर दे सकती है।
मुझे लगता है कि वित्त मंत्री को लोगों के हाथों में अधिक पैसा आने देने के लिए कुछ करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि वह बचत को प्रोत्साहित कर सकती हैं और वह अधिभार में कटौती कर सकती हैं। मुझे लगता है कि बुनियादी ढांचे को प्रभावित किए बिना भी वित्त मंत्री के पास तीन या चार विकल्प उपलब्ध हैं। मैं देखूंगा कि वह कौन सा विकल्प चुनती है। मुझे लगता है कि वह अधिभार में कटौती करने के साथ ही पेट्रोल और डीजल पर उपकर और करों को कम कर सकती हैं।
हाल के दिनों में, केंद्र सरकार ने अधिभार और उपकर लगाने का सहारा लिया है जिससे राज्यों में हस्तांतरण कम होता है। क्या राज्यों को उनका बकाया देने के लिए बजट में इनमें भी कटौती करनी चाहिए?
वित्त आयोग ने सिफारिश की कि राज्यों में हस्तांतरण 42 प्रतिशत तक होना चाहिए और जम्मू कश्मीर के दो केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद यह 41 प्रतिशत हो गया। लेकिन प्रभावी रूप से केवल 30 प्रतिशत ही राज्यों को हस्तांतरित किया जाता है। जाहिर है कि केंद्र सरकार, राज्यों की कीमत पर मुनाफा कमा रही है। मुझे लगता है कि वित्त आयोग द्वारा तैयार किए गए हस्तांतरण फॉर्मूले का पालन किया जाना चाहिए।
यह एक स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र आधारभूत सिद्धांत है। केंद्र सरकार लोगों के हाथों में अधिक पैसा कैसे रहने दे सकती है इसके लिए मैं पहले ही कह चुका हूं कि स्पष्ट तौर पर कीमतों में कटौती की जाए और यह करों में कटौती या पेट्रोल और डीजल के उपकरों में कटौती के माध्यम से या आयकर पर अधिभार में कटौती के माध्यम से संभव है।
आपने कहा कि वित्त मंत्री इस बात से सहमत थीं कि निजी निवेश की रफ्तार धीमी है। क्या बजट में पूंजीगत खर्च पर ध्यान देना चाहिए?
ऐसा इसलिए होना चाहिए कि वे एक ऐसे सिद्धांत का अनुसरण कर रहे हैं जिसके मुताबिक सार्वजनिक निवेश, निजी निवेश में लगाया जाएगा। मैंने भाजपा के सत्ता में आने से पहले इसके बारे में नहीं सुना था। वे सही हो सकते हैं, वे आर्थिक सिद्धांत पर गलत भी हो सकते हैं। मैं उस पर टिप्पणी नहीं करने जा रहा हूं। लेकिन फिर निजी निवेश क्यों कम है?
जब मैंने पिछले सत्र में वित्त मंत्री से पूछा कि उन्होंने फिक्की और सीआईआई को निवेश नहीं करने पर क्यों फटकार लगाई थी तब उन्होंने कहा कि उनसे मिलना और उनसे निवेश करने का आग्रह करना, उनका काम है। यह सब ठीक है लेकिन आपको जवाब ढूंढना होगा कि वे निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं। वे सभी नकदी से समृद्ध हैं, उनकी हरेक कंपनी के पास विशाल भंडार है। लेकिन वे निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? उन्हें वास्तव में अपनी सरकार की नीतियों पर गौर करना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि निवेश क्यों नहीं हो रहा है।
कोविड महामारी के बाद से ग्रामीण इलाकों में अब भी संकट है। क्या बजट में पीएम किसान के लिए आवंटन बढ़ा देना चाहिए और इसे हरेक परिवार के लिए 8,000 रुपये कर दिया जाना चाहिए?
पीएम किसान एक विवादास्पद योजना है। पीएम किसान का लाभ उस व्यक्ति को मिलता है जिसके नाम पर जमीन है। इसका मतलब है कि इसका लाभ वास्तव में उस व्यक्ति को नहीं मिलता है जो किसान है। इसका फायदा जमीन के मालिकों को मिलता है जो अब किसान नहीं रहे। हमने पीएम किसान की सूची में फर्जीवाड़े से जुड़ी रिपोर्ट देखी है। मैं वास्तविक खेतिहर लोगों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये या 8,000 रुपये देने पर आपत्ति नहीं कर रहा हूं।
लेकिन एक ऐसा तरीका होना चाहिए जिसके जरिये अधिक सरकारी हस्तक्षेप के बिना लोगों के हाथों में पैसा आ सके। ऐसा करने का तरीका, जीएसटी में कटौती करना, पेट्रोल और डीजल पर करों में कटौती करना, पेट्रोल और डीजल की कीमतों में भी कटौती करना है। यह तरीका सीधे तौर पर उपभोक्ता के हाथ में पैसे का स्वचालित हस्तांतरण करना है। इसमें कोई चयन की बात नहीं है और न ही इसमें कोई मानव हस्तक्षेप है।
कोविड के बाद शहरी क्षेत्रों में रहने वाले कमजोर तबके के लोग भी अधिक दबाव में है। क्या बजट में शहरी क्षेत्रों के लिए भी मनरेगा जैसी योजना की कोशिश की जानी चाहिए?
सीएमआईई के अनुसार, शहरी बेरोजगारी आठ प्रतिशत से अधिक है। मुझे लगता है कि शहरी क्षेत्रों में मनरेगा जैसी योजना जरूर लागू की जानी चाहिए। एक या दो राज्यों ने पहले ही इस तरह की योजना लागू की है। लेकिन ऐसी योजना तैयार करना बेहद जटिल है।
कोविड ने स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया है। स्वास्थ्य पर लोगों के खर्च कम करने और शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए बजट में क्या प्रावधान होना चाहिए?
उन्हें स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए आवंटन बढ़ाना चाहिए। मुझे लगता है कि एक बेहतर तरीका यह है कि राज्यों को अधिक धन हस्तांतरित किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि राज्य स्वास्थ्य और शिक्षा पर अतिरिक्त रकम खर्च करें। आखिरकार समाज के सभी वर्गों तक स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी सेवाएं देने की जिम्मेदारी राज्यों की है। अगर राज्यों के पास पैसा नहीं है तो केंद्र सरकार के लिए अपने बजट में पैसा आवंटित करना पर्याप्त नहीं होगा। प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक एवं स्कूली शिक्षा देने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है।