वायु प्रदूषण पर नियंत्रण करने के लिए ऐसी बातचीत की जरूरत है जो एक खास क्षेत्र के एयरशेड का ध्यान रखती हो, क्योंकि हवा गतिमान है और वह कृत्रिम कानूनी दायरों से परे है। बता रहे हैं के पी कृष्णन
अब सभी यह समझते हैं कि उत्तर भारत में हवा की गुणवत्ता हमारे समय में जन स्वास्थ्य से जुड़ी सबसे बड़ी नाकामियों में शामिल है। करोड़ों लोग इस प्रदूषित हवा के नकारात्मक प्रभाव से दो-चार हैं। यह खराब हवा बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती है और मध्यम आयु वर्ग के लोगों की स्थिति को तेजी से बिगाड़ती है।
जब हम समस्या के हल के बारे में सोचते हैं तो पहली बाधा आंकड़ों की आती है। हवा की गुणवत्ता को मापने के लिए पूरे देश में स्टेशन स्थापित करने की आवश्यकता है। जरूरत है कि ये स्टेशन सही ढंग से काम करें और उनका आंकड़ा सटीक ढंग से बाहर जाए। दूसरी परत ‘स्रोत’ से जुड़ी है। हवा की निरंतर निगरानी के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता होती है और यह हर राज्य के सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों का काम है।
इसके बाद हम धूल को स्रोत पर ही रोक देते हैं। खेतों में फसल अवशेषों को जलाना एक बड़ा स्रोत हो सकता है। यह कृषि और खाद्य व्यवस्था की खराब नीतियों की जटिलता का परिणाम है।
भारतीय खाद्य व्यवस्था की लागत सरकारी खजाने पर पड़ती है और लोगों को बहुत अधिक अनाज खिलाकर तथा हवा को विषाक्त करके उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है। कुल मिलाकर यह कल्पना करना मुश्किल है कि सार्वजनिक नीतियों का इससे बुरा मिश्रण भला क्या हो सकता है?
इस क्षेत्र में एक स्थानीय पहलू भी है। आस-पड़ोस में पार्क का होना या बच्चों के लिए खेल के मैदान का होना अपने प्रभाव में स्थानीय होता है। ऐसे में स्थानीय सरकार भी सार्वजनिक बेहतरी लाने में मदद कर सकती है।
राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों के दरमियान कई सार्वजनिक वस्तुएं और सेवाएं हैं। उदाहरण के लिए मध्यवर्ती राजमार्ग जिन्हें ‘क्षेत्रीय’ कहा जाता है तथा जिन्हें भारतीय संविधान राज्यों को प्रदान करता है।
यह विडंबना ही है कि हमने स्थानीय नियमन की समस्याओं को हल करने के तरीके विकेंद्रीकृत शासन में तलाशे लेकिन बेहतरी के सबसे बुनियादी तत्त्व यानी स्वच्छ हवा पर ही ध्यान नहीं दिया गया।
हवा की गुणवत्ता एक कठिन समस्या है क्योंकि इसे हल करने के लिए कई राज्यों को एक साथ मिलकर प्रयास करना होता है। घनी आबादी के कारण उत्तर प्रदेश इस प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित होता है जबकि प्रदूषण नियंत्रण का दारोमदार पंजाब और हरियाणा पर है।
विभिन्न सरकारों के बीच वित्तीय वित्त पोषण को लेकर एक किस्म का सहयोग है। अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद फाइनैंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की कल्पना की गई और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया ने उसे आगे बढ़ाया। अगले वर्ष एफएटीएफ ने धनशोधन के खिलाफ तथा आतंकियों को वित्तीय मदद से निपटने के लिए वैश्विक प्रवर्तन वाले नियमन प्रस्तुत किए। कई देशों के बीच आपस में बातचीत हुई ताकि इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए स्थानीय नीति संबंधी ढांचों में संशोधन किया जा सके।
इसी प्रकार जब लीमन ब्रदर्स का संकट उत्पन्न हुआ और पूरी दुनिया लगभग घुटनों पर आ गई तो वैश्विक वित्तीय समुदाय एक बार फिर एकजुट हुआ ताकि पूंजी पर्याप्तता और बैंकिंग नियमन को लेकर बाध्यकारी वैश्विक मानक तैयार किए जाएं। यह आवश्यक था क्योंकि पूंजी गतिशील है और उसे प्रभावी तौर पर ऐसे नियमन की आवश्यकता होती है जहां पूरी दुनिया को एक माना जाता हो।
किसी देश का बैंक दूसरे देश में कामकाज कर सकता है और वित्तीय अस्थिरता उत्पन्न कर सकता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि कम से कम अहम बैंकिंग नियमन को सुसंगत बनाया जाए और मानकीकृत किया जाए।
हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए विभिन्न सरकारों को अपनी राष्ट्रीय सीमाओं से परे जाकर सहयोग करना होगा। द इकॉनमिस्ट में उल्लिखित विशेषज्ञों के मुताबिक दक्षिण एशिया की तीन राजधानियों कोलंबो, ढाका और काठमांडू में एक तिहाई से भी कम प्रदूषण शहर के भीतर से आता है।
भारतीय पंजाब के प्रदूषण का करीब 30 फीसदी पाकिस्तान में उत्पन्न होता है जबकि बांग्लादेश के प्रमुख शहरों का 30 फीसदी प्रदूषण भारत से जाता है। यूरोप और चीन में आसपास के विभिन्न भौगोलिक इलाकों में एयरशेड के जरिये सहयोग किया जाता है।
विश्व बैंक के विशेषज्ञों ने भारत के लिए छह प्रासंगिक एयरशेड (एयरशेड एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र होता है जहां आमतौर पर प्रदूषक फंस जाते हैं और सभी के लिए समान गुणवत्ता वाली वायु उपलब्ध होती है) को चिह्नित किया है। ये व्यापक क्षेत्र हैं जहां विभिन्न शहरी, प्रांतीय और राष्ट्रीय क्षेत्र शामिल हैं।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन छह में से चार राष्ट्रीय सीमाओं से परे तक विस्तारित हैं। एक तो पूर्वी ईरान से लेकर पश्चिमी अफगानिस्तान और दक्षिणी पाकिस्तान तक है। जबकि दूसरा भारत के अधिकांश उत्तरी भाग तथा पश्चिमी बांग्लादेश तक फैला हुआ है। बैंकों के मॉडल के अनुसार प्रदूषण नियंत्रण को लेकर जितने समन्वित प्रयास किए जाएंगे वे उतने ही किफायती और कम लागत वाले होंगे।
एक खास एयरशेड के सभी अंशधारकों को आंकड़ों, शोध तथा नीति निर्माण के मोर्चे पर आपस में सहयोग करना होगा। जैसा कि द इकॉनमिस्ट का कहना है, इससे उन्हें प्रदूषण नियंत्रण के अपेक्षाकृत आसान या कम लागत वाले स्वरूपों को प्राथमिकता देने में मदद मिलेगी।
उदाहरण के लिए कोयला चालित बिजली स्टेशनों को बंद करने जैसे कठिन या महंगे प्रकारों की तुलना में ईंट भट्ठों को विनियमित करना।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा आसपास के इलाके में हवा की गुणवत्ता के प्रबंधन के लिए सांविधिक आयोग का गठन किया है।
इसका लक्ष्य हवा की गुणवत्ता से जुड़ी दिक्कतों को हल करने के लिए शोध एवं समन्वय करना है। एक कमी तो साफ नजर आ रही है: यह वह एयरशेड नहीं है जो वैज्ञानिक विश्लेषण से उभरा हो।
इसके बाद आता है सहयोग, विवाद निस्तारण और मिलजुलकर समस्या को हल करने का कठिन काम। जैसा कि ऊपर जोर दिया गया है, डेटा की भूमिका पर बहुत अधिक जोर देना कठिन है। जन स्वास्थ्य अधिकारियों को एसपीएम यानी सस्पेंडेड पर्टिकुलेट मैटर और स्रोत के स्तर पर आंकड़ों को छांटने की आवश्यकता है। यह वह आंकड़ा है जो राज्य सरकारों तथा शहरी सरकारों की ओर से संचालित हजारों मीटरों से जुटाया जाता है। तथ्यों और शोध का यह माहौल वार्ता के लिए सही माहौल तैयार करेगा।
व्यापक तौर पर वार्ताओं को सहयोग की भावना के बीच आकार लेना चाहिए। दक्षिण एशिया के देशों को स्वाभाविक नुकसान है क्योंकि यूरोप के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की तुलना में यहां देशों के बीच आपसी द्वंद्व ज्यादा है।
भारत के भीतर भी बेहतर नतीजों के लिए आपस में अच्छे व्यवहार की दरकार है। उसके पश्चात दुष्ट प्रकृति के कारक भी एक समस्या हैं जो बहुत बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाते हैं और प्रदूषण नियंत्रण में शामिल होने से इनकार करते हैं। इसके लिए नए प्रकार के नीतिगत उपायों और संपत्ति अधिकारों की अवधारणा के विकास की आवश्यकता होगी।
*(लेखक पूर्व लोक सेवक, सीपीआर में मानद प्रोफेसर और कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य हैं)