भारत में निवेश से जुड़ी संभावनाएं तो अपार हैं परंतु प्रतिस्पर्धा भी तीक्ष्ण है और इसे ध्यान में रखते हुए उसे अपनी व्यापार नीति उदार बनाने की आवश्यकता है। बता रही हैं अमिता बत्रा
इस महीने के शुरू में ताइवान की राजधानी ताइपे में मुझे शिक्षाविदों, विचारकों और कारोबारी समूहों के साथ चीन पर चर्चा करने करने का अवसर प्राप्त हुआ था। इसके अलावा वैश्विक मूल्य व्यवस्था (जीवीसी) में विविधता से संबंधित रणनीति और निवेश के एक वैकल्पिक गंतव्य के रूप में भारत की क्षमता, विशेषकर सेमीकंडक्टर एवं चिप विनिर्माण क्षेत्र पर भी व्यापक चर्चा हुई।
इन चर्चाओं के बाद मेरे मन में तनिक ही संदेह रह गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर नजरिया सकारात्मक रहा है। इसका कारण आर्थिक वृद्धि के स्तर पर न केवल भारत का मजबूत प्रदर्शन रहा है बल्कि, कदाचित इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कारण वैश्विक एवं क्षेत्रीय स्तर पर उथल-पुथल है।
पिछले पांच वर्षों के दौरान अमेरिका और चीन के बीच व्यापार एवं तकनीक में प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ गई है और तनाव भी उफान पर है। इसके अलावा यूक्रेन संकट के बाद भू-राजनीतिक बिखराव, जीवीसी विविधता रणनीति में मित्र देशों के बीच बढ़ता सहयोग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत का सामरिक महत्त्व आदि भी महत्त्वपूर्ण कारण रहे हैं।
ताइवान की कंपनियों के लिए चीन में कारोबारों पर बढ़ता नियामकीय शिकंजा और सत्ताधारी दल का मजबूत नियंत्रण कारोबार की दूसरी जगह तलाशना एक अतिरिक्त कारण हो गया है। इसके साथ ही पिछले कुछ वर्षों में भारत के साथ बढ़ता द्विपक्षीय सहयोग भी ताइवान की कंपनियों को आकर्षित कर रहा है।
मगर ये कारक भारत के पक्ष में निर्णायक बढ़त देने की क्षमता नहीं रखते हैं। एक दशक से अधिक समय तक वियतनाम उन कंपनियों के लिए पहली पसंद रहा है, जो चीन से बाहर अपना विनिर्माण कारोबार ले जाना चाह रही हैं। इसके लिए कंपनियों ने कई कारक एवं इनसे होने वाले लाभों का उल्लेख किया है।
मसलन, दक्षिण-पूर्व एशिया संघ (आसियान) के सदस्य देश के रूप में यह यूरोपीय संघ (ईयू), क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और कॉम्प्रिहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) में शामिल रहा है। इसके साथ ही भूमि एवं श्रम बाजार और विदेशी निवेश जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में वियतनाम में निरंतर सुधार होते रहे हैं।
जहां तक भारत की बात है, एफटीए के मोर्चे पर हाल में प्रगति जरूर हुई है मगर आरसेप में बातचीत के अंतिम चरण में पहुंच कर कदम पीछे खींचने से क्षेत्रीय निवेशकों को निराशा हुई है।
यह भी स्पष्ट है कि ताइवान के निर्यातोन्मुखी निवेशकों के लिए संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत का एफटीए ईयू के साथ चल रही एफटीए पर बातचीत की तुलना में अधिक मायने नहीं रखता है।
यह पहलू काफी महत्त्व रखता है क्योंकि पारिश्रमिक सहित तेजी से बढ़ती उत्पादन लागत, आधारभूत ढांचे में संभावित कमजोरी और उपलब्ध भूमि की कमी इस धारणा को बल दे रहे हैं कि वियतनाम विदेशी निवेश आकर्षित करने और आपूर्ति तंत्र स्थानांतरित करने के मामले में ऐसी स्थिति में पहुंच सकता है जहां से और अधिक विस्तार की गुंजाइश नहीं रह जाएगी। ईयू के साथ एफटीए पर वार्ता जल्द पूरी हो जाती है तो इससे भारत निवेश करने के लिहाज से तुलनात्मक रूप से अधिक आकर्षक हो जाएगा।
वियतनाम के अलावा दक्षिण-पूर्व एशिया की दूसरी एकीकृत अर्थव्यवस्थाओं के साथ भी भारत की तुलना की जा रही है। उदाहरण के लिए थाईलैंड और मलेशिया ताइवान की इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के लिए चीन का असरदार विकल्प समझे जाते हैं।
पैकेजिंग कंपनियां थाईलैंड का रुख कर रही हैं, वहीं असेंबली इकाइयां मलेशिया जा रही हैं। मलेशिया दक्षिण-पूर्व एशिया के उन देशों में शामिल रहा है, जो वैश्विक एवं क्षेत्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स मूल्य श्रृंखला के साथ सबसे पहले जुड़े हैं।
मलेशिया के पास उन विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के अनुभव एवं क्षमता दोनों मौजूद हैं जिनका चीन के साथ मोह भंग हो हो रहा है। इन उदाहरणों का हवाला देते हुए ताइवान के संभावित निवेशक भारत को मूल्य व्यवस्था के ऊपरी स्तर पर विदेशी निवेश को लेकर जिद छोड़ने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं।
विशेषकर, सेमीकंडक्टरों के लिए उच्च विनिर्माण या फैब्रिकेशन संयंत्रों के मामले में यह बात लागू होती है। इसका कारण यह है कि पहले से उपलब्ध आपूर्ति व्यवस्था की अनुपस्थिति में विदेशी निवेश आकर्षित करना आसान नहीं है।
सेमीकंडक्टर उत्पादन केवल एकल फैब्रिकेशन संयंत्र तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि, यह सघन एवं एक दूसरे से जुड़ी उत्पादन इकाइयों का पेचीदा जाल है और निकट भविष्य में इसे भारत में दोहरा पाना संभव नहीं दिख रहा है।
फैब्रिकेशन यूनिट स्थापित करना ताइवान की कंपनियों फॉक्सकॉन या पेगाट्रॉन के बूते से बाहर है। ये दोनों कंपनियां अनुबंध पर काम करती हैं। इस संदर्भ में अमेरिकी कंपनी माइक्रॉन टेक्नोलॉजी द्वारा भारत में सेमीकंडक्टर चिप लगाने की घोषणा को नीति निर्धारकों द्वारा अधिक वास्तविक नीतिगत पहल के रूप में देखा गया था।
ताइवान की फॉक्सकॉन का वेदांत के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने में विफलता वहां की दूसरी छोटी इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों के उत्साह पर पानी फेर गया।
अतिरिक्त-क्षेत्रीय तेजी से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं (ईएमई) में मैक्सिको को वैश्विक मूल्य व्यवस्था पर मित्र देशों के बीच बढ़ते सहयोग के लिहाज से मजबूत दावेदार के रूप में देखा जाता है। इसकी एक खास वजह यह है कि अमेरिका महंगाई नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा समझौता मैक्सिको के लिए हालात और अनुकूल बना रहा है।
चेक रिपब्लिक जैसे पूर्व यूरोपीय देश यूरोपीय वैश्विक मूल्य व्यवस्था के साथ अच्छी तरह जुड़े हैं और वे भी व्यवहार्य विकल्प माने जाते हैं। मगर यूक्रेन में युद्ध के कारण और विकासशील क्षेत्रीय रणनीतिक संदर्भ में कुछ चिंताएं जताई जा रही हैं।
हालांकि, यह भारत के हित में हो सकता है मगर यह संभावना अधिक टिकाऊ नहीं लग रही है। सभी प्रतिस्पर्द्धी तेजी से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाएं तुलनात्मक रूप से अधिक उदार एवं भारत की तुलना में निर्यातोन्मुखी समझी जाती हैं। ऐसा इसलिए भी है कि भारत ने विनिर्माण क्षेत्र और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र के कुछ खास सामान पर औसतन अधिक शुल्क लगा रखे हैं।
कुछ खास क्षेत्रों में आयात प्रबंधन प्रणाली की घोषणा और विदेशी निवेश के संबंध में कर नीतियों से भी यह बात जाहिर होती है। उत्पादन के तंत्रगत स्तर पर जुड़े होने के कारण अगर ऐसे नीतिगत उपाय रणनीतिक रूप से सही माने जाएं तब भी ये ताइवान की मझोली कंपनियों को अपनी आपूर्ति व्यवस्था भारत में स्थानांतरित करने से हतोत्साहित करते हैं।
इसकी तुलना में प्रतिस्पर्द्धी तेजी से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में अधिक स्पष्ट कारोबारी माहौल इन कंपनियों को अधिक अनुकूल लगता है।
अंत में, भारतीय बाजार का बड़ा आकार एक अच्छी बात है परंतु, विदेश निवेश आकर्षित करने के लिए एक तर्क के रूप में इसका इस्तेमाल सीमित महत्त्व ही रखता है।
ताइवान के निवेशकों के बीच मोटे तौर पर यह धारणा रही है कि भारतीय बाजार का आकार तो बड़ा है परंतु, स्थायी ग्राहक आधार तैयार करना और मुनाफा अर्जित करना और कारोबार को मजबूती देना मुश्किल काम है। भारत के लोग बाजार कीमतों को लेकर अत्यधिक संवेदनशील होते हैं इसलिए छोटे निवेशकों के लिए लंबे समय तक टिक पाना मुश्किल लग रहा है।
आईफोन असेंबली खंड से विस्ट्रॉन का निकलना इसी संदर्भ में देखा जाता है। ताइवान की तकनीकी कंपनी आसुस भारत में सस्ते मूल्य दायरे में सफल रही है मगर इसकी उपस्थिति छोटे गेमिंग खंड और पर्सनल कंप्यूटर बाजार तक ही सीमित रही है, इसलिए इससे दूसरी कंपनियां उत्साहित नहीं हो पा रही हैं।
अपाचे ताइवान की एकमात्र कंपनी है जिसने भारत में सफलता अर्जित की है। कंपनी कम हुनर एवं श्रम केंद्रित क्षेत्र में वैश्विक ब्रांड एडिडास के लिए जूते बनाती है।
इस लिहाज से उच्च तकनीक, सेमीकंडक्टर उद्योग में ताइवान से निवेश तभी आएगा जब भारत दुनिया की अग्रणी कंपनी को सफलतापूर्वक आकर्षित कर पाने में सफल रहता है। इसके अलावा भारत को अधिक निर्यातोन्मुखी होना पड़ेगा और व्यापार को लेकर दृष्टिकोण उदार बनाना होगा।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)