अपनी हालिया भारत यात्रा के दौरान आईबीएम के चेयरमैन और मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) अरविंद कृष्ण ने कहा कि भारत को आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) के क्षेत्र में जेनरेटिव एआई समेत संप्रभु क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है।
भारतीय नीति निर्माताओं को उनकी सलाह को गंभीरता से लेना चाहिए। एआई, खासतौर पर मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग का इस्तेमाल हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ गया है। यह इस्तेमाल ई-कॉमर्स अनुशंसाओं से लेकर स्वचालित कारों तक हो रहा है।
परंतु ओपनएआई के चैट जीपीटी और डीएएलएल-ई, गूगल के बार्ड, एंथ्रोपिक के क्लॉड, मेटा के एललामा 2 जैसे जैसे जेनरेटिव एआई तथा ऐसे अन्य एआई के आगमन के बाद खेल पूरी तरह बदल गया है।
अरबों मानकों वाले जेनरेटिव एआई मॉडल असंगठित आंकड़ों का प्रसंस्करण करके नई सामग्री तैयार कर सकते हैं, वे स्वाभाविक भाषा में प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं, ढेर सारे आंकड़ों से नए रुझान तय कर सकते हैं और ऐसे विकल्पों और जवाबों को सामने रख सकते हैं जो औषधियों की खोज से लेकर वीडियो और ऑडियो तैयार करने तक हर क्षेत्र में चीजों में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकते हैं। इसका विश्व अर्थव्यवस्था और समाज पर उससे गहरा असर हो सकता है जितना कि हालिया अतीत की अन्य तकनीकों का होता रहा है।
कई भारतीय कंपनियां बहुत उत्साह के साथ जेनरेटिव एआई के क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। इनमें सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज और इन्फोसिस तथा दर्जन भर स्टार्टअप भी शामिल हैं। परंतु किसी भारतीय कंपनी ने अब तक अपना फाउंडेशनल मॉडल तैयार करने की बात नहीं की है।
भारतीय प्रौद्योगिकी कंपनियों और यहां तक कि भारत सरकार का ध्यान भी ऐप्लिकेशन के क्षेत्र पर अधिक केंद्रित है। भारत सरकार की कई शाखाओं ने पहले ही विशिष्ट डेटा सेट तथा उड कंप्यूटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा नए ऐप्लिकेशन तैयार करने के लिए प्रोग्राम बनाने शुरू कर दिए हैं।
प्राथमिक तौर पर ऐप्लिकेशन पर निर्भर रहना एक गलती होगी। भारत को ऐसी क्षमताएं भी विकसित करनी चाहिए जो नए, स्वदेशी बुनियादी एआई मॉडल तैयार करने में मदद करें। भारत को एआई के अगले मोर्चे पर भी शोध की शुरुआत करने की आवश्यकता है जिसे जनरल एआई कहा जाता है। नवाचारी ऐप्लिकेशन तैयार करना बहुत महत्त्वपूर्ण है लेकिन केवल इतना करना पर्याप्त नहीं है।
जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं, एआई एक जनरल परपज टेक्नॉलजी (जीपीटी) है और जीपीटी नाटकीय रूप से समाज और कारोबार के शक्ति संतुलन को बदलता है। किसी जीपीटी में दबदबा रखने वाले देश तकनीकी क्षेत्र के उपनिवेशवादी बन जाते हैं जबकि इन तकनीकों तक पहुंच के लिए दूसरों पर निर्भर देश तकनीक के क्षेत्र में उनके उपनिवेश बनकर रह जाते हैं (हैव्स ऐंड हैव्स नॉट इन एआई, बिज़नेस स्टैंडर्ड, 8 जुलाई, 2020)।
डिजिटल तथा अन्य तकनीकों के क्षेत्र में जहां अमेरिका शीर्ष स्थान पर मौजूद है वहीं चीन भी बीते एक दशक से इस दिशा में तगड़ी मेहनत कर रहा है ताकि वह कई तकनीकी क्षेत्रों में संप्रभु क्षमताएं विकसित कर सके और एआई से जीनोमिक्स की ओर बढ़ सके। भारत ने आमतौर पर ऐप्लिकेशन और सेवा क्षेत्र पर ही ध्यान केंद्रित किया है।
एआई क्षमताओं की बात करें, खासतौर पर जेनरेटिव एआई मॉडल जैसी उन्नत तकनीकों के क्षेत्र में भारत के लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि वह इस दिशा में देरी से शुरुआत कर पाएगा। अमेरिका और कनाडा में विश्वविद्यालय शोध कार्यक्रम तथा ओपनएआई, गूगल, मेटा, माइक्रोसॉफ्ट, एंथ्रोपिक तथा अन्य तकनीकी कंपनियों ने उन्नत एआई शोध में बहुत अधिक निवेश किया है।
चीन में बायडू और सेंसटाइम तथा कई अन्य स्टार्टअप ने अपने-अपने जेनरेटिव एआई मॉडल बनाए हैं और चीन की सरकार भी लंबे समय से एआई शोध को प्राथमिकता दे रही है। यूरोप के देश अमेरिका और यूरोप से पीछे रहे हैं लेकिन फ्रांस, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों के शोध संस्थान अपने स्तर पर ट्रांसफॉर्मर तथा अन्य एआई मॉडल तैयार कर रहे हैं जो अमेरिका में बनने वाले मॉडल को चुनौती दे सकते हैं।
दक्षिण कोरिया में इंटरनेट क्षेत्र की अग्रणी कंपनी नेवर भी इस क्षेत्र में पहल कर रही है। भारत को इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट योजना और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है। जैसा कि कृष्णा ने सुझाव दिया भारत सरकार के लिए एक विकल्प यह भी है कि वह बढ़त बनाए और राष्ट्रीय एआई कंप्यूटिंग सेंटर स्थापित करे। परंतु एक और मॉडल है जैसा कि ओपनएआई के मूल चार्टर के रूप में हम देख चुके हैं।
ओपनएआई इसलिए अस्तित्व में आया क्योंकि कुछ सर्वाधिक प्रभावशाली अरबपतियों मसलन ईलॉन मस्क, पीटर थेल आदि तथा अन्य टेक कारोबारियों मसलन सैम एल्टमैन, ग्रेग ब्रॉकमैन आदि ने साथ मिलकर एक एआई रिसर्च संस्थान की स्थापना की जो एआई कार्यक्रमों को लोकतांत्रिक बनाने का काम करेगा।
इन्फोसिस ने तत्कालीन सीईओ विशाल सिक्का के नेतृत्व में इसके संस्थापक निवेशकों में से एक था। हालांकि ओपनएआई की एक मुनाफे के लिए काम करने वाली शाखा भी है जिसके पास माइक्रोसॉफ्ट जैसे क्लाइंट्स के लिए नवीनतम एआई मॉडल और टूल हैं। परंतु इसके साथ ही एक स्वस्थ ओपन सोर्स गतिविधि भी है जिसने जेनरेटिव एआई का विकास किया।
भारत की बड़ी आईटी कंपनियां भी मिलकर एक एआई शोध संस्था को फंड कर सकती हैं जैसे ओपनएआई तैयार किया गया। इसका अर्थ होगा बाजार प्रतिद्वंद्विताओं को किनारे करना ताकि एक दीर्घकालिक साझा हित की दिशा में काम किया जा सके।
अगर बाद वाले मॉडल का भी अनुसरण किया जाता है तो सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो अमेरिका और यूरोप में एआई शेध की दिशा में काम कर रहे सर्वश्रेष्ठ लोगों को भारत ला सकता है। चीन के मजबूत एआई कार्यक्रम को तैयार करने में चीन के उन बेहतरीन इंजीनियरों और एआई शोधकर्ताओं की अहम भूमिका रही जिन्होंने अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया या जिन्होंने सिलिकन वैली की कंपनियों में काम किया और उसके बाद वापस चीन लौटे।
भारत सरकार को यह समझना होगा कि एआई के क्षेत्र में काम कर रही बेहतरीन भारतीय प्रतिभाओं को सिलिकन वैली या अमेरिकी विश्वविद्यालयों से बाहर बुलाने के लिए क्या करना होगा।
सरकार को कॉपीराइट और डेटा इस्तेमाल के नए कानूनों के बारे में भी सोचना होगा जो देश में तैयार होने वाले गैर व्यक्तिगत डेटा पर पहला अधिकार उसे देती है। भारत दुनिया में डिजिटल डेटा उत्पन्न करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। उससे आगे केवल चीन है।
यह आसान काम नहीं होगा लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एआई क्षमता विकसित करना जरूरी है। केवल तभी भारत तकनीकी क्षेत्र में उपनिवेश बनने से बच पाएगा।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)