राधा जेल में है! अगर मोहन उसे बचा लेता है तो ‘प्यार का पहला नामः राधा मोहन’ के दर्शकों की संख्या पर क्या असर होगा? अगर मोहन कानून की पढ़ाई की अपनी पुरानी डिग्री का इस्तेमाल कर अपनी बेटी गुनगुन के साथ मिलकर राधा को बचा लेगा तो क्या होगा? क्या होगा अगर गुनगुन की मौत हो जाए तथा मोहन और राधा एक दूसरे से अलग हो जाएं? ये सारे सवाल या कह लें विकल्प ज़ी की प्रोपराइटरी आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) स्क्रिप्टजीपीटी के सामने रखी गई।
हम बात कर रहे हैं ज़ी टीवी पर रोजाना प्रसारित होने वाले धारावाहिक की। स्क्रिप्टजीपीटी ने सुझाया कि अगर मोहन और गुनगुन यह मुकदमा लड़ते हैं तो इस शो को देखने वाले लोगों की संख्या 8.5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। ज़ी टीवी की कारोबार प्रमुख अपर्णा भोसले एवं उनकी टीम ने कुछ संशोधनों के साथ यह विकल्प चुना जिसके बाद रेटिंग 25 प्रतिशत बढ़ गई।
स्क्रिप्टजीपीटी बेंगलूरु में ज़ी की तकनीक एवं नवाचार केंद्र में तैयार हुई है। इसे विकसित करने में 8-12 महीने लग गए। ज़ी के दो कार्यक्रमों में पिछले चार महीनों से लगातार इसका इस्तेमाल हो रहा है। इरोस इन्वेस्टमेंट्स भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बंबई के साथ मिलकर एआई के इस्तेमाल से एक बाउंड स्क्रिप्ट तैयार करने की कोशिश कर रही है। इन दिनों ऐसे कई उदाहरण मिल मौजूद हैं।
यह अब पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन कंपनियां पूरे उत्साह के साथ एआई की आजमाइश एवं इसका इस्तेमाल कर रही हैं। ये कंपनियां पटकथा, कहानियों एवं तकनीक में एआई की मदद से संशोधन कर रही हैं और ऐसा करने में उन्हें थोड़ा डर जरूर लग रहा है मगर उनका उत्साह सातवें आसमान पर है। जब कुछ महीनों पहले मैंने एआई को समझने के लिए गहराई से इसका अध्ययन शुरू किया तो सबसे पहले यही बात मेरी नजर में आई।
दूसरी बात जो स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रही है कि ये कंपनियां एआई के इस्तेमाल में किस हद तक आगे बढ़ गई हैं। ज़ी ने लगभग दो वर्ष पहले एआई के इस्तेमाल पर काम करना शुरू कर दिया था। कई प्रकाशकों एवं प्रसारकों ने तो एआई की मौजूदा चर्चा से पहले ही एआई के साथ नए प्रयोग करने शुरू कर दिए थे। इसके लाभ भी स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।
ईवाई के लिए मीडिया एवं मनोरंजन क्षेत्र पर नजर रखने वाले आशिष फेरवानी का मानना है कि एआई तकनीक 2 लाख करोड़ रुपये के इस क्षेत्र में अगले पांच वर्षों के दौरान 45,000 करोड़ रुपये से अधिक राजस्व जोड़ सकती है। यानी एआई के इस्तेमाल से खर्च में कमी आएगी जिससे राजस्व स्वाभाविक ही बढ़ जाएगा। कुछ मामलों में तो खर्च 80-90 प्रतिशत तक कम हो जाता है।
उदाहरण के लिए दर्जनों भाषाओं में तेजी से डब करने का सीधा मतलब होता है कि हरेक कार्यक्रम, फिल्म या संगीत का बाजार का तेजी से विस्तार हो जाता है। एआई के बिना भी बड़े स्तर पर सिनेमाघरों और स्ट्रीमिंग ऐप्लीकेशन पर डबिंग और सब-टाइटल उपलब्ध रहने से फिल्म कारोबार का राजस्व 25-40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है।
तीसरी बात यह स्पष्ट दिख रही है कि मनोरंजन कंपनियां ऊंचे स्तरों पर सृजनात्मक कार्यों और बुनियादी कारोबारों के लिए एआई का इस्तेमाल कर रही हैं मगर समाचार प्रकाशक एवं प्रसारक इसे लेकर थोड़ी सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं। आज तक पर ‘साना’ और न्यूज18 पर ‘एआई कौर’ इस समय लगभग आधे दर्जन समाचार वाचक (न्यूज एंकर) दिख रहे हैं। ये ऐसे प्रयोग के रूप में आजमाए गए हैं जिनसे रकम बचाने में मदद मिलेगी।
इसका कारण यह है कि ह्यूमन एंकर तो केवल आठ घंटे तक काम कर सकते हैं मगर एआई आधारित एंकर चौबीसों घंटे यह काम कर सकते हैं। हालांकि, टाइम्स इंटरनेट, नेटवर्क 18, इनशॉर्ट्स एवं कई अन्य समाचार संस्थानों में एआई का ज्यादातर इस्तेमाल एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद, टेक्स्ट से ऑडियो में रूपांतरण, सारांश लिखने, शीर्षक लिखने, काम में तेजी लाने, वीडियो संपादन (एडिटिंग) और ट्वीट लिखने में इस्तेमाल हो रहा है।
मैंने जितने समाचार प्रकाशकों से बात की उनमें कोई भी प्रमुख संपादकीय कार्यों में एआई के इस्तेमाल के लिए तैयार नहीं था। उनका रुख इसलिए उचित है क्योंकि एआई के इस्तेमाल से जुड़े कुछ वाजिब सवाल हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर कोई रिपोर्टर घटनास्थल से सीधे रिपोर्टिंग या खबरें भेज रहा है तो इस मामले में चैटजीपीपी क्या नया कर सकता है? मगर और भी कई बातें डराने वाली हैं।
इस समय जेनेरेटिव एआई की चर्चा गर्म है। यह तकनीक उपलब्ध जानकारियों का सहारा लेकर अपना करतब दिखाती है। इसके लिए सॉफ्टवेयर में पहले असंख्य जानकारियां डालनी या फीड करनी होती है। यह तकनीक इन्हीं जानकारियों के दम पर काम करती है और उसके बाद स्वयं सीखने की कला विकसित कर मानव की नकल करनी शुरू कर देती है। इसे जो निर्देश मिलते हैं उनके आधार पर यह ‘सामग्री’ तैयार करती है।
यह तरीका मनोरंजन उद्योग के लिए कमाल काम करता है मगर समाचार में इसके कई वास्तविक जोखिम हैं। फर्जी खबरों की आशंका तो है ही, साथ ही जानकारियों में किसी खास पक्ष या धारणा के प्रति झुकाव (पूर्वग्रह) भी डालने की पूरी गुंजाइश रहती है। इसके अलावा जब एआई के पास देने के लिए या दिखाने के लिए ठोस जानकारी नहीं होती है तो यह मिथ्या या संदर्भ से पड़े चीजें आगे करना शुरू कर देती है।
उदाहरण के लिए अगर आप चैटजीपीटी को स्विट्जरलैंड में टकराव पर आलेख लिखने के लिए कहते हैं मगर इस पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है तो एआई गच्चा खा जाती है। किसी फिल्म या शो की पटकथा में बदलाव या अधिक रोचक मोड़ देने के लिए तो एआई का इस्तेमाल ठीक है मगर समाचारों के साथ अगर यही प्रयोग किया जाए तो इससे दंगे भड़क सकते हैं।
अटलांटा स्थित मनोरंजन विधि कंपनी केनिले-कुमार में पार्टनर स्कॉट केनिले का कहना है कि एआई तकनीक उस हद तक खतरनाक हो सकती है जिस हद तक मानव उसे बना सकता है।
कई प्रकाशकों को लगता है कि आगामी आम चुनाव से यह पता लग जाएगा कि एआई का बेजा इस्तेमाल क्या परिणाम ला सकता है। यही कारण है कि आंकड़ों पर शोध करने वाले लोग एआई के लिए कुछ नियम-कायदे तय करने की मांग कर रहे हैं। लोग समाचारों के आधार पर अध्ययन, मतदान और कई विषयों को लेकर अपनी धारणा तय करते हैं। मगर समाचार सृजन के लिए एआई पर भरोसा करना किसी बड़े खतरे को आमंत्रण देने जैसा ही है।