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मुक्त व्यापार समझौते: सीखने होंगे सबक

रत को यह स्वीकार करना होगा कि एफटीए वैश्विक व्यापार संदर्भों से आकार लेते हैं और साथ ही व्यापार नियमों और निष्कर्षों को आकार देने में भी मदद करते हैं।

Last Updated- August 03, 2023 | 9:51 PM IST
India US trade

भारत को अपने समान देशों का अनुकरण करना चाहिए और अपने मुक्त व्यापार समझौतों के लिए होने वाली बातचीत में लचीला रुख अपनाना चाहिए। बता रही हैं अमिता बत्रा

बीते दो महीनों के दौरान ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ भारत की मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) संबंधी बातचीत में जो विवादित तथ्य रहे हैं उनमें शुल्कों (टैरिफ) को उदार बनाना, रूल्स ऑफ ओरिजिन (यह तय करना कि एफटीए के तहत कोई उत्पाद शुल्क मुक्त होगा या नहीं), विवाद निस्तारण और श्रम तथा पर्यावरण संबंधी प्रावधान शामिल हैं। ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जो लंबे समय से एफटीए में कामयाबी के भारत के मार्ग की बाधा बने हुए हैं।

हाल ही में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) इसका उदाहरण है। यहां इस बात पर भी नजर रखनी होगी कि उभरते बाजारों की अर्थव्यवस्थाओं ने बीते तीन दशकों में किस तरह की व्यापार नीति अपनाई है। खासकर मुक्त व्यापार समझौतों के संदर्भ में।

शुल्कों को उदार बनाना आर्थिक एकीकरण का एक बुनियादी एजेंडा था जो सन 1990 के दशक के आरंभ में मुक्त व्यापार समझौतों के शुरुआती दौर में उनकी खास विशेषता था। सन 1965 में अमेरिका और कनाडा के बीच हुआ वाहन समझौता उन शुरुआती समझौतों में से एक था जहां कनाडाई वाहन कलपुर्जों को उत्तरी अमेरिकी बाजारों में शुल्क रहित पहुंच मुहैया कराई गई।

इसी तरह थाई वाहन उद्योग आसियान में हिस्सेदारी से पनपा। इसे सन 1980 के दशक के अंत में शुरू हुई एक योजना का लाभ मिला जिसके तहत चुनिंदा क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को प्राथमिकता वाला टैरिफ मार्जिन दिया जाता। अगले दशक में लगातार शुल्क में कमी की गई और स्थानीय नियमों को खत्म किया गया। वाहनों और कलपुर्जों के निर्माण के क्षेत्र में पूर्ण विदेशी स्वामित्व ने थाईलैंड को यह सुविधा प्रदान की कि वह दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य पड़ोसी देशों को जापानी निवेश को आकर्षित करने में पीछे छोड़ सके। इससे उसे उत्पादन और निर्यात बढ़ाने में मदद मिली।

आसियान मुक्त व्यापार क्षेत्र के तहत प्राथमिकता वाले शुल्क उदारीकरण ने इस क्षेत्र के व्यापार औसत को संतुलित करने में मदद की और 2010 तक यह शून्य से पांच फीसदी के बीच रह गया। जापान, कोरिया और ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के साथ आसियान देशों के एफटीए 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में हुए। सभी टैरिफ लाइनों पर शुल्क उदारीकरण की प्रतिबद्धता 87 फीसदी से 99 फीसदी के बीच रही।

आसियान-भारत एफटीए एक अपवाद था जहां 80 फीसदी से भी कम शुल्क उदारीकरण हुआ। भारत की शुल्क प्रतिबद्धताएं भी विश्व व्यापार संगठन द्वारा उल्लिखित जरूरतों से कम है। यहां तक कि हाल में यानी 2022 में भारत ने ऑस्ट्रेलिया के साथ जो व्यापार समझौता किया उसमें भी भारत ने केवल 70 फीसदी टैरिफ लाइन को उदार करने की प्रतिबद्धता जताई जबकि ऑस्ट्रेलिया ने 100 फीसदी उदारीकरण किया है।

परिणामस्वरूप विकासशील देशों में जहां वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) के साथ एकीकृत होने के फायदों को चिह्नित किया जा रहा था, वहीं एफटीए ने गहरे व्यापारिक समझौतों का रूप ले लिया। एफटीए को इस प्रकार तैयार किया गया था कि शुल्क उदारीकरण के अलावा सेवा व्यापार और निवेश को इसमें शामिल किया जा सके। इसके अलावा बौद्धिक संपदा अधिकारों, विवाद निस्तारण और प्रतिस्पर्धा नीति को भी इसमें शामिल किया जाना था।

इन गहरे व्यापारिक समझौतों में रूल्स ऑफ ओरिजिन जीवीसी आधारित व्यापार के केंद्र में हैं। ओरिजिन के कड़े नियम जीवीसी आधारित उत्पादन के खिलाफ जाते हैं क्योंकि वे एफटीए से मिलने वाली प्राथमिकता वाली बाजार पहुंच को सीमित करते हैं। जब इन्हें सर्टिफिकेट ऑफ ओरिजिन हासिल करने की सख्त प्रशासनिक प्रक्रिया से जोड़कर देखा जाए तो एफटीए में प्राथमिकता का उपयोग और धुंधला नजर आता है।

एफटीए में जटिल रूल्स ऑफ ओरिजिन को लेकर बातचीत

कलपुर्जों के व्यापार में यह बात खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है। भारत ने अपने एफटीए में जटिल रूल्स ऑफ ओरिजिन को लेकर बातचीत की है और जोर दिया है कि शुल्क में बदलाव तथा वर्गीकरण एवं अहम मूल्यवर्द्धन के लिए दोहरे मानक रखे जाएं। वर्ष 2020 में सीमाशुल्क अधिनियम में बदलाव ने एफटीए के उपयोग को और जटिल बना दिया क्योंकि अब सरकार की जांच को संतुष्ट करने का काम आयातक का है।

इसके विपरीत आसियान ने रूल्स ऑफ ओरिजन मानक को 2000 के दशक के आरंभ में ही शिथिल बना दिया था। आसियान एफटीए के रूल्स ऑफ ओरिजिन तथा उसके पूर्वी एशियाई सदस्य देशों मसलन आसियान-चीन, जापान, सिंगापुर आदि के रूल्स ऑफ ओरिजिन भी अत्यंत सरल हैं। आरसेप पर दक्षिण पूर्वी और पूर्वी एशिया की 15 अर्थव्यवस्थाओं ने 2020 में हस्ताक्षर किए थे।

उसमें भी साझा और संचयी रूल्स ऑफ ओरिजिन शामिल हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इस इलाके में आगे और गहन आर्थिक एकीकरण होगा। हम जानते हैं कि भारत ने रूल्स ऑफ ओरिजिन को भी उन मुश्किलों में से एक माना था जिनके चलते वह 2019 में वार्ता से अलग हुआ।

जहां तक एफटीए में निवेश उदारीकरण की बात है तो भारत का मॉडल द्विपक्षीय निवेश संधि पर आधारित है जिनकी शुरुआत 2016 में हुई। इसी तरह निवेश वाले भाग में भारत निवेशक-राज्य के विवाद के निस्तारण की व्यवस्था पर जोर देता है जो जटिल है। इसमें पहले स्थानीय उपायों को अपनाना होता है। ऐसे प्रावधान जहां एफटीए की प्रतिबंधात्मक प्रकृति को सामने रखते हैं, वहीं वे भारत को विदेशी निवेश के केंद्र के रूप में भी आकर्षक नहीं रहने देते। इसके विपरीत चीन ने देश में आर्थिक विकास के साथ द्विपक्षीय निवेश संधि अपनाईं।

पहली पीढ़ी की संधियां 1982 से 1989 के बीच की गईं जो सीमित विवाद निस्तारण से लेकर क्षतिपूर्ति निर्धारण तक सीमित थीं। अगली पीढ़ी की संधियों में यह व्यवस्था की गई कि निवेशक अंतरराष्ट्रीय निवेश विवाद निस्तारण केंद्र से संपर्क कर सकें। तीसरी पीढ़ी के ऐसे समझौते 1998 और उसके बाद हुए और इनमें विदेशी निवेशकों को मजबूत संरक्षण प्रदान किया गया। चीन में ये समझौते विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर भी लागू होते हैं।

भारत स्थायित्व के प्रावधानों को गैर कारोबारी मुद्दों के रूप में वर्गीकृत करता है जो पुराना पड़ चुका है। ऐसा इसलिए क्योंकि अनेक एफटीए ऐसे हैं जिनमें सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने में अंतरराष्ट्रीय रूप से चिह्नित श्रम अधिकार और जलवायु सहयोग को चिह्नित किया गया है। उदाहरण के लिए वियतनाम सहित चार आसियान देशों के साथ व्यापक और प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी में पर्यावरण और श्रम दोनों पर विस्तृत अध्याय हैं।

यानी भारत को यह स्वीकार करना होगा कि एफटीए वैश्विक व्यापार संदर्भों से आकार लेते हैं और साथ ही व्यापार नियमों और निष्कर्षों को आकार देने में भी मदद करते हैं। ऐसा करके भारत अपनी व्यापार नीति पिछड़ेपन से निजात पा सकता है और एफटीए का पूरा लाभ लेने के लिए वार्ताओं में जरूरी लचीलापन शामिल कर सकता है।
(लेखिका अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र, जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं)

 

First Published - August 3, 2023 | 9:51 PM IST

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