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एजेंसियों के लिए स्वतंत्र निदेशक मंडल अनिवार्य

सरकारी एजेंसियों और नियामक प्राधिकरणों के निदेशक मंडल में स्वतंत्र निदेशकों का बहुमत होना महत्त्वपूर्ण है।

Last Updated- July 04, 2023 | 11:48 PM IST
More companies paying directors Rs 1 lakh per board meeting

निजी कंपनियों की तरह सरकारी एजेंसियों और नियामक प्राधिकरणों के निदेशक मंडल में स्वतंत्र निदेशकों का बहुमत होना महत्त्वपूर्ण है। बता रहे हैं के पी कृष्णन

किसी भी संगठन के बारे में भारतीय सोच किसी प्रमुख जिम्मेदार व्यक्ति के सिद्धांत पर आधारित है। इसके मुताबिक सही व्यक्ति के प्रभारी होने पर कोई संस्था या कंपनी अच्छी तरह से काम करती है। इस प्रकार सभी सफलता (या विफलता) के लिए किसी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह निश्चित रूप से दुनिया के खराब सिद्धांतों में से एक है।

संस्थानों के कामकाज, खेल के नियमों द्वारा तय होते हैं जिससे सूचना, प्रोत्साहन और शक्ति के नियम स्थापित होते हैं। केवल प्रारंभिक स्तर की संस्थाओं या संगठनों में सभी शक्ति एक ही व्यक्ति में केंद्रित होती है और सफलता या विफलता के लिए उसी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

अच्छे संगठन की परिकल्पना का सार यह है कि शक्ति के केंद्रीकरण को कम किया जाए ताकि निर्णय लेने की सभी प्रक्रिया में कई लोगों का दिमाग लगे और कई लोगों के हितों को ध्यान में रखा जाए ताकि बेहतर निर्णय लिए जा सकें। जब कई दिमाग सक्रिय होते हैं तब संभव है कि विचार बेहतर होंगे और गलतियां कम की जा सकेंगी।

इस तरह के अच्छे संगठन के स्वरूप हमें व्यक्तियों से ऊपर संस्थानों तक ले जाते हैं जहां लोग आते हैं और जाते हैं लेकिन बुनियादी संस्थागत स्वरूप की बदौलत कई दशकों के दौरान उनका प्रदर्शन अच्छा होता जाता है।

इसी व्यापक संदर्भ के आधार पर हमें भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर के हाल के भाषण को देखना चाहिए जिसमें उन्होंने भारतीय बैंकों की निगरानी के लिए गुणवत्तापूर्ण, निदेशक मंडल के महत्त्वपूर्ण होने की ओर ध्यान आकृष्ट कराया था।

उन्होंने बैंकों के निदेशक मंडल (बोर्ड) में ईमानदार, स्वतंत्र, योग्य और सक्षम सदस्यों की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह स्वतंत्रता न केवल प्रबंधन के संबंध में है बल्कि नियंत्रित शेयरधारकों से भी जुड़ी है।

भारत में ऐसी संस्थाओं के बेहतर प्रशासन से जुड़ी सोच को लेकर हम एक लंबा सफर तय कर चुके हैं। निश्चित रूप से तीन बड़े विचारों को अब अच्छी तरह से स्वीकार किया जाता है जैसे कि (1) किस प्रकार की दूरी को स्वतंत्रता के योग्य माना जाए? (क्या इसका ताल्लुक प्रबंधन से स्वतंत्रता और शेयरधारकों को नियंत्रित करने से मिलने वाली स्वतंत्रता है)। (2) हमें कितने स्वतंत्र निदेशकों की आवश्यकता है? (बहुमत के लायक जो निदेशक मंडल में आंतरिक निदेशकों को जवाबदेह ठहरा सकता है)। (3) क्या सीईओ को अध्यक्ष होना चाहिए?
(नहीं, स्वतंत्र निदेशकों में से एक को अध्यक्ष होना चाहिए, ताकि शक्ति के केंद्रीकरण को कम किया जा सके और प्रबंधकों की तुलना में स्वतंत्र लोगों के हाथ मजबूत किए जा सकें)।

इनमें से प्रत्येक विचार जब 1990 के दशक में नीतिगत विमर्शों के लिए उभरे तब थोड़े विचित्र लग रहे थे लेकिन अब वे अच्छी तरह से स्थापित सिद्धांत हैं जो कंपनी अधिनियम के माध्यम से और सूचीबद्ध कंपनियों के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के नियमों के माध्यम से कंपनियों से जुड़े राज्य विनियमन तंत्र का निर्माण करते हैं। आरबीआई के गवर्नर का प्रशासन से जुड़े पहलुओं पर जोर देना सही है क्योंकि ये तीन सिद्धांत निस्संदेह रूप से बैंकों को बेहतर काम करने में मदद करेंगे।

बेहतर कार्यप्रणाली से जुड़े ये सभी बिंदु, सरकारी संस्थाओं पर समान रूप से लागू होते हैं। ये वही तीन सिद्धांत हैं, जिनके माध्यम से हम इसरो और एनएचएआई से लेकर सेबी और आरबीआई तक सभी सरकारी संगठनों के प्रशासनिक पहलू की समीक्षा और सुधार कर सकते हैं। दूसरे और तीसरे सिद्धांत का विस्तार, सीधे सरकारी संगठनों तक होता है। अब बात स्वतंत्रत निदेशकों की स्वतंत्रता की करते हैं। हम सरकार द्वारा नियंत्रित संगठन के संदर्भ में ऐसी स्वतंत्रता को कैसे परिभाषित करेंगे? ठीक उसी भावना के लिहाज से ‘प्रबंधन से स्वतंत्र और शेयरधारकों को नियंत्रित करने से स्वतंत्र’ होने की बात है।

इस प्रकार, सरकार द्वारा नियंत्रित संगठन के एक स्वतंत्र निदेशक को उस व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए जो किसी भी तरह से भारतीय सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीति संस्थान (एनआईपीएफपी) भारत सरकार के राजस्व विभाग का एक अनुदान-सहायता संस्थान है इसलिए एनआईपीएफपी में अकादमिक कार्यों से जुड़े लोगों को सरकार से स्वतंत्र नहीं माना जाएगा।

अधिकांश भारतीय नियामक प्राधिकरण, विशिष्ट उद्देश्यों वाले कानून के द्वारा बनाए जाते हैं और उन उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए एक निदेशक मंडल है। निदेशक मंडल में पूर्णकालिक सदस्यों (डब्ल्यूटीएम) का भी महत्त्व है। पूर्णकालिक सदस्य, अध्यक्षों को सम्मान देते हैं और इस प्रकार अधिकांश बोर्ड, अध्यक्ष के प्रति वफादार होते हैं। इससे अध्यक्ष के पास शक्ति का केंद्रीकरण होता है जो बेहतर विमर्श और अच्छे निर्णय लेने के लिए अनुकूल नहीं है।

इसके अतिरिक्त, स्वतंत्र निदेशकों की कम संख्या (जिन्हें अंशकालिक सदस्य कहा जाता है) भी संस्थान में नियंत्रण और संतुलन बनाने में बाधा डालती है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) और पेंशन कोष नियामक एवं विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) ने बेहतर शक्ति संतुलन बनाया है क्योंकि उनके कानूनों में समान संख्या में बाहरी और आंतरिक स्तर के लोगों की नियुक्ति का प्रावधान है। विभिन्न संगठनों में इन सवालों के कई समाधान दिखते हैं जो विधायी मसौदा प्रक्रिया की विशिष्टता को दर्शाती है। निश्चित रूप से यह बेहतर होगा कि इन सभी संस्थाओं पर एकसमान सिद्धांत लागू किए जाएं।

इस प्रकार, नियामकीय शासन सुधार का महत्त्वपूर्ण हिस्सा, एक एकल कानून (वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग द्वारा अनुशंसित भारतीय वित्तीय संहिता की तर्ज पर) बनाना है जो सभी वित्तीय एजेंसियों को कवर करता हो और जहां सभी वित्तीय एजेंसियों के लिए सुशासन के एकसमान सिद्धांत लाए जाते हों।

हालांकि इस सूची में आरबीआई शामिल नहीं है। आरबीआई का मौद्रिक नीति से जुड़ा प्राथमिक कार्य अब मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) द्वारा किया जाता है, जिसमें आरबीआई के आंतरिक स्तर पर जुड़े तीन लोग और तीन बाहरी लोग शामिल होते हैं। किसी फैसले पर मामला बराबरी पर होने पर गवर्नर के पास एक निर्णायक मत होता है।

आरबीआई के अन्य प्रमुख नियामकीय कार्यों का निर्वहन, वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड (बीएफएस) और भुगतान एवं निपटान प्रणाली बोर्ड (बीपीएसएस) के माध्यम से किया जाता है, जहां आंतरिक स्तर के लोग ही बहुमत में होते हैं। इस प्रकार आरबीआई के लिए सुशासन सिद्धांतों को इसके सभी चार घटकों पर लागू करने की आवश्यकता है जिसमें मुख्य बोर्ड, एमपीसी, बीएफएस और बीपीएसएस शामिल हैं। इसके जरिये हम बेहतर निदेशक मंडल गठित कर सकते हैं।

लेकिन सरकारी एजेंसियों के सुशासन की यात्रा यहीं खत्म नहीं होती। अगला मुद्दा बोर्ड की भूमिका से जुड़ा है। कुछ संगठनों में, वर्तमान में शक्ति केवल अध्यक्ष के पास होती है और निदेशक मंडल कोई ज्यादा मायने नहीं रखता है। सुशासन का दूसरा घटक, न केवल एक बेहतर संरचना वाले निदेशक मंडल को स्थापित करना है बल्कि इसे सही भूमिका भी देना।

प्रत्येक संगठन में, चाहे वह लाभकारी निजी संस्था हो या सरकारी संस्था हो, निदेशक मंडल को संस्था की कार्यप्रणाली और प्रक्रियाओं की निगरानी करनी चाहिए और इसके पास लक्ष्य तय करने और बजट प्रक्रिया चलाने के माध्यम से प्रबंधन को जवाबदेह ठहराने के लिए पर्याप्त अधिकार होने चाहिए।

इसके अलावा, वैधानिक नियामकों की एक और महत्त्वपूर्ण भूमिका, नियमन बनाने की प्रक्रिया को सीधे संचालित करना है ताकि कानून तैयार करने के काम से जुड़े अनिर्वाचित अधिकारियों के बारे में मौलिक संवैधानिक कानून की चिंताओं से बचा जा सके।
(लेखक सीपीआर में मानद प्रोफेसर, कुछ लाभकारी और गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य और पूर्व प्रशासनिक सेवा अधिकारी हैं)

First Published - July 4, 2023 | 11:48 PM IST

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