उत्तराखंड में सिलक्यारा सुरंग से 41 श्रमिकों को सकुशल बाहर निकालने के लिए विभिन्न एजेंसियों के बीच आपसी समन्वय सराहनीय रहा है। भारतीय परियोजना प्रबंधन में ऐसी उपलब्धि यदा-कदा ही दिखती है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार ने सुरंग में फंसे इन
लोगों को बाहर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सामान्य आपदा प्रतिक्रिया बलों के अलावा नौ सरकारी एजेंसियां इस काम में दिन रात लगी हुई थीं। इनमें रक्षा संगठन और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भी शामिल थीं।
इस तरह, बचाव कार्य में उपकरणों से लेकर विशेषज्ञता सभी का साथ मिला। प्रधानमंत्री कार्यालय सीधे इस बचाव कार्य पर नजर रख रहा था। प्रधानमंत्री कार्यालय ने स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन एवं राजमार्ग और दूरसंचार मंत्रालयों को सभी उपलब्ध संसाधनों के साथ पूरी ताकत झोंक देने का निर्देश दे रखा था।
सुरंग तकनीक एवं बचाव कार्य में विशेषज्ञता रखने वाली विदेशी एजेंसियों की भी मदद ली गई। सभी एजेंसियों ने अपनी तरफ से पूरा योगदान दिया और कठिन चुनौतियों के बीच 70 से 90 मीटर मलबे के नीचे कामगारों तक भोजन एवं आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की। वे मनोवैज्ञानिक रूप से फंसे लोगों का उत्साह बढ़ाती रहीं।
थाईलैंड में भी 2018 में एक बार ऐसी ही घटना हुई थी। वहां एक फुटबॉल टीम के 12 किशोर लड़के एवं उनके प्रशिक्षक एक बाढ़ग्रस्त गुफा में फंस गए थे। उन्हें बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों की एक टीम तैयार की गई और कड़ी मेहनत के बाद 18 दिन बाद उन्हें बाहर निकाला जा सका। सिलक्यारा घटना इस मायने में अलग है कि इसमें ज्यादातर स्थानीय एजेंसियों ने मोर्चा संभाल रखा था।
सिलक्यारा में बचाव कार्य सफलतापूर्वक पूरा होने के बाद इसे भारत की जुगाड़ तकनीक की एक अद्भुत मिसाल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। परंतु, इसके साथ ही यह हमें कुछ वास्तविकताओं से भी साक्षात्कार कराता है। थाईलैंड में ऊंची रकम पाने वाले ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और आयरलैंड के बचाव कर्मियों ने अहम भूमिका निभाई थी।
इसके उलट भारत में अंतिम क्षणों में बचाव कार्य की जिम्मेदारी भारतीय श्रम व्यवस्था में अत्यधिक पिछड़े एवं प्रायः उपेक्षित श्रमिकों ने अहम भूमिका निभाई। जब अत्याधुनिक मशीन उपकरण कुछ विशेष नहीं कर पाए तब रैट-होल कोयला खनिकों ने बहुत ही कम जगह में गैस कटर, कुदाल और खाली हाथों से मलबे की अंतिम परत हटाई।
सच्चाई यह है कि इन खनिकों की यह अनूठी एवं पुरानी विशेषज्ञता नौ वर्ष पूर्व प्रतिबंधित होने के बाद अब भी मौजूद है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और उच्चतम न्यायालय ने इस विधि पर प्रतिबंध लगा दिया था।
रैट-होल माइनिंग पूर्वी एवं पूर्वोत्तर भारत में रोजगार की कमी के बारे में काफी कुछ कह जाती है। इन क्षेत्रों में रैट-होल माइनिंग विधि का इस्तेमाल होता है और सरकारी विभागों एवं उद्योगों की सांठगांठ से यह विधि अब भी अस्तित्व में बनी हुई है।
रैट-होल खनिकों द्वारा दिखाई गई क्षमता को देखते हुए राज्य आपदा प्रबंधन में एक विकल्प के रूप में इस विधि का इस्तेमाल किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में बड़े स्तर पर निर्माण कार्यों को देखते हुए यह तरीका भी एक विकल्प के रूप में आजमाया जा सकता है।
सिलक्यारा आपदा हमारा ध्यान इस तरफ खींचती है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें अत्यधिक संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में किस तरह अंधाधुंध बड़े एवं अनावश्यक आधारभूत ढांचे- सड़क, सुरंग, रेलवे, बांध आदि-तैयार कर पर्यावरण से जुड़े जोखिम मोल ले रही हैं। इन परियोजनाओं की ढांचा भी पुख्ता नहीं होता है।
कई बड़ी घटनाओं के बाद भी सरकार सचेत नहीं हो रही है। एक विषय पर तो तत्काल विचार करने की आवश्यकता है। सरकार 10 वर्ष पहले जारी उस अधिसूचना पर पुनर्विचार कर सकती है जिसके अंतर्गत 100 किलोमीटर क्षेत्र से कम परियोजनाओं के लिए पर्यावरण प्रभावों की समीक्षा की शर्त हटा दी गई थी। परियोजनाओं को छोटे-छोटे हिस्सों में विभक्त कर 100 किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में बनने वाली परियोजनाओं में भी इस प्रावधान का बेजा इस्तेमाल किया जा सकता है।
यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि किसी आपात स्थिति में बाहर निकलने के लिए अलग से एक सुरंग का निर्माण क्यों नहीं किया गया था। पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसा करना एक मानक प्रक्रिया होती है जो आवश्यक होती है। सिलक्यारा घटना से यह सबक लिया जा सकता है कि भारत में भारी भरकम एवं वृहद आधारभूत ढांचा तैयार करने में पर्यावरण एवं श्रमिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।