अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेन-देन में अमेरिकी मुद्रा डॉलर का दबदबा बदलती परिस्थितियों में कई देशों को असहज बना रहा है। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद यह असहजता और बढ़ गई है।
अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली को रूस के लिए प्रतिकूल बना दिया है। स्पष्ट है, कोई भी देश इस स्थिति में नहीं फंसना चाहता है। इस कारण उनके बीच डॉलर पर निर्भरता कम करने की उकताहट बढ़ने लगी है।
विशेषकर, चीन इस दिशा में तेजी से प्रयास कर रहा है। उसका यह रुख तेजी से उभर रही एक आर्थिक शक्ति के लिहाज से मेल खा रहा है। ऐसी खबरें है कि सऊदी अरब चीन को तेल बिक्री के कुछ हिस्से का निपटान युआन में करना चाहता है। इस तरह की व्यवस्था डॉलर की सत्ता के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है। इस वक्त वैश्विक स्तर पर पेट्रोलियम कारोबार का निपटान ज्यादातर डॉलर में ही होता है।
हालांकि, डॉलर का विकल्प खोजने के प्रयास युआन या किसी एक राष्ट्रीय मुद्रा तक ही सीमित नहीं रहे हैं। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के विदेश मंत्रियों की बैठक पिछले महीने केपटाउन में हुई थी। इस बैठक में चर्चा का प्रमुख विषय वैकल्पिक मुद्राओं के इस्तेमाल का ढांचा तैयार करना था।
खबरों के अनुसार ब्रिक्स देशों की एक अपनी संयुक्त मुद्रा तैयार करना इस बैठक की कार्यसूची में सबसे ऊपर था। इस विषय पर स्थिति अगस्त में प्रस्तावित शिखर सम्मेलन के बाद और स्पष्ट हो जाएगी। इस तरह के किसी प्रस्ताव को कई तरह की चुनौतियों से पार पाना होगा।
उदाहरण के लिए इस संयुक्त मुद्रा में विभिन्न देशों का कितना भारांश होगा? चूंकि, ब्रिक्स में चीन सबसे बड़ा देश है, इसलिए इसका दबदबा रहेगा। इस समूह में कुछ अन्य देशों को जोड़ने से स्थिति और पेचीदा हो सकती है। एक स्वाभाविक प्रश्न यह भी उठता है कि चीन के साथ बिगड़े संबंधों को देखते हुए भारत ऐसी किसी व्यवस्था का हिस्सा क्यों बनना चाहेगा?
अगर भारत चीन के प्रभाव वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग (सीपीईसी) से दूर रह सकता है तो वह चीन की ही अगुआई वाली किसी संयुक्त मुद्रा का समर्थन क्यों करेगा? अगर भारत इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा तो संयुक्त मुद्रा की परिकल्पना आगे नहीं बढ़ पाएगी।
अगर खुदा ना खास्ता यह प्रयास सफल भी हो गया तो दूसरे देश ब्रिक्स मुद्रा का इस्तेमाल क्यों करेंगे? चूंकि, इस मुद्रा का इस्तेमाल बहुत सीमित रह सकता है, इसलिए यह ब्रिक्स के किसी भी सदस्य देश को वह ओहदा नहीं दिला पाएगी जो अमेरिका को डॉलर की स्वीकार्यता के कारण मिला हुआ है।
वैसे भी चीन को संयुक्त मुद्रा के बजाय अपनी मुद्रा युआन को बढ़ावा देना बेहतर विकल्प प्रतीत होगा। अगर कोई मुद्रा दुनिया के देश इस्तेमाल करना और इसे अपने मुद्रा भंडार में रखना चाहते हैं तो इसका फायदा जारीकर्ता देश को अवश्य मिलता है। उदाहरण के लिए मुद्रा जारी करने वाले देश के लिए लेन-देन पर लागत कम हो जाती है।
उदाहरण के लिए अमेरिका के लोग अपनी घरेलू मुद्रा यानी डॉलर में लेन-देन कर सकते हैं। इससे वित्तीय लागत भी कम हो जाती है क्योंकि दुनिया डॉलर में परिवर्तित परिसंपत्तियां रखने के लिए बेझिझक तैयार रहती है। अमेरिकी डॉलर निकट भविष्य में अपना दबदबा बनाए रख सकता है।
बैंक फॉर इंटरनैशनल सेटलमेंट्स की नवीनतम टर्मिनल रिपोर्ट (अप्रैल 2022) के अनुसार विदेशी मुद्रा बाजारों में 90 प्रतिशत लेन-देन डॉलर में हो रहे थे और इसके बाद 31 प्रतिशत के साथ यूरो का स्थान था। यूरो की हिस्सेदारी 2010 में दर्ज 39 प्रतिशत से कम होकर 31 प्रतिशत रह गई।
युआन की हिस्सेदारी 7 प्रतिशत थी। यद्यपि, हाल के वर्षों में विदेशी मुद्रा भंडारों में डॉलर की उपस्थिति थोड़ी कम हुई है मगर अब भी 60 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ यह सबसे आगे हैं।
चीन विश्व व्यापार का एक प्रमुख केंद्र हैं और इसके साथ ही यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मगर यह कोई कारण नहीं है जिसके दम पर युआन निकट भविष्य में डॉलर को कोई चुनौती पेश कर पाएगी। हालांकि, तब भी इस बात की गुंजाइश जरूर है कि चीन के कुछ व्यापारिक साझेदार और कर्जधारक द्विपक्षीय व्यापार का निपटान युआन में कर सकते हैं और अपने मुद्रा भंडार में इसे रख सकते हैं।
युआन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पूंजी नियंत्रण की है। इसके अलावा चीन में बाजार में चलने वाली गतिविधियों पर वहां की सरकार का खासा प्रभाव रहता है। अमेरिका में एक खुले, स्थिर, बड़े एवं तरल वित्तीय बाजार से अमेरिकी डॉलर को अन्य मुद्राओं की तुलना में अजेय बढ़त मिल जाती है।
विदेशी मुद्रा भंडार में युआन की हिस्सेदारी 3 प्रतिशत से कम है। भारत भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रुपये के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने कुछ दिनों पहले इस संबंध में एक अंतर-विभागीय समूह की रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में पूंजी खाते पर पाबंदी कम करने सहित कई उपाय सुझाए गए थे। मगर नीतिगत स्तर पर एवं वित्तीय बाजार में पाबंदी को देखते हुए रुपया फिलहाल बहुत आगे निकलता प्रतीत नहीं हो रहा है।
पूंजीगत खाते बड़े स्तर पर खोलने से वित्तीय स्थायित्व के लिए खतरा बढ़ जाएगा। जो स्थिति अभी है उसके अनुसार भारत लगातार चालू खाते के घाटे से जूझ रहा है। ऐसे में रुपये में व्यापार से भारत के व्यापारिक साझेदार देशों के पास अधिक मात्रा में भारतीय मुद्रा जमा हो जाएगी जिन्हें बाद में किसी मजबूत समझी जाने वाली मुद्रा (हार्ड करेंसी) में परिवर्तित करना ही होगा। अधिकांश विदेशी प्रतिष्ठान मुद्रा जोखिम उठाने से बचना चाहेंगे।
उदाहरण के लिए रूस में रुपये का एक बड़ा भंडार जमा हो गया है और अब खबर है कि वह उन्हें हार्ड करेंसी में बदलने पर विचार कर रहा है।
भारत रुपये में लेन-देन को बढ़ावा देकर वर्तमान परिस्थितियों में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाएगा। इसका स्पष्ट कारण यह है कि रुपये में व्यापार की संभावना कम दिख रही है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुद्रा के अंतरराष्ट्रीयकरण से जुड़े कुछ जोखिम भी होते हैं।
अधिक अनिश्चितता के समय विदेशी इकाइयां रुपया बेचने जैसे कदम उठा सकती हैं जिससे भारतीय मुद्रा पर दबाव बढ़ जाएगा। इस दृष्टिकोण से भारत को योजनाबद्ध ढंग से कदम उठाने होंगे। पूंजी का मुक्त प्रवाह एक आवश्यक शर्त है मगर केवल यह देश की मुद्रा का अंतरराष्ट्रीयकरण सुनिश्चित नहीं कर सकती।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रुपये का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय बाजारों को पूरी परिपक्वता के साथ विकसित किया जाना चाहिए।
आवश्यक ढांचे के बिना रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास नुकसानदेह भी हो सकता है। ध्यान देने योग्य बात है कि पूंजी नियंत्रण में नपी-तुली ढील देने से भारत को लाभ हुआ है और हड़बड़ी दिखाने का कोई कारण भी नजर नहीं आ रहा है। हां, चीन के पास युआन के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए अलग कारण मौजूद हैं।