आज जलवायु के अनुकूल खेती समय की मांग है। इसके लिए फसल उत्पादन और पशुपालन के साथ वृक्षों एवं झाडि़यों में उचित तालमेल बनाने की जरूरत है। तकनीकी रूप से इस तरह की खेती को कृषि वानिकी कहा जाता है। यह खेतों से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में काफी मदद कर सकती है, क्योंकि पेड़ वातावरण में फैले प्रदूषक तत्त्वों विशेषकर कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने में अच्छे सहायक होते हैं।
इसके और भी फायदे हैं। इससे न केवल भूमि का अभीष्टतम उपयोग, खेती में विविधता, भूमि की उत्पादकता में बढ़ोतरी, प्राकृतिक जैवविविधता संरक्षण जैसे लाभ होते हैं, बल्कि फल, चारा, ईंधन की लकड़ी, टिम्बर आदि की पर्याप्त उपलब्धता बढ़ने से किसानों की आमदनी में भी इजाफा होता है। यही नहीं, खेत के चारों ओर लगे वृक्ष और झाडि़यां तूफान और तेज हवाओं से फसलों का बचाव भी करते हैं। इसके अलावा भारत जैसे देश में जहां छोटे-छोटे खेतों की संख्या ज्यादा है, वहां बेहतर तरीके से अपनाई जाने वाली
कृषि वानिकी पद्धति खेती को आर्थिक रूप से अधिक व्यवहारिक बनाती है। खेती में कृषि वानिकी प्रणाली को प्रोत्साहित किए बिना भारत के लिए 2070 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को शून्य पर लाने और 2.5 से 3 अरब टन तक कार्बन सोखने वाले क्षेत्र बनाने का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा।
देश के भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से खासतौर पर जमीन की तंगी के कारण वनीकरण के मौजूदा 25 फीसदी क्षेत्र से आदर्श स्तर 33 फीसदी तक करने की संभावनाएं सीमित हैं। कृषि वानिकी पद्धति वनीकरण की इस कमी को पूरा करने में मदद कर सकती है।
हालांकि, देश में सदियों से किसान अलग-अलग रूपों में कृषि वानिकी को अमल में ला रहे हैं, लेकिन आज आधुनिक तरीके से इसको अपनाने और खेती में शामिल करने से किसानों को बेहतर आर्थिक लाभ मिल सकता है। वन संरक्षण अधिनियम 1980 और इसमें बाद में किए गए संशोधनों के कारण पेड़ काटने, लकड़ी लाने एवं ले जाने, उसे बेचने आदि पर कई तरह की शर्तें और प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। इससे लोग अपनी निजी भूमि या खेतों में पेड़ लगाने से कतराने लगे हैं।
सौभाग्य से, हाल ही में पास किए गए वन (संरक्षण) संशोधन कानून-2023 के कई कठोर प्रावधानों में या तो सुधार किया गया है या उन्हें हल्का बनाया गया है अथवा पूरी तरह हटा दिया है। संशोधित कानून अगले महीने से लागू हो जाएगा। नए कानून में खासतौर पर प्रावधान है कि वन संबंधी नियम निजी भूमि पर उगाए जाने वाले पेड़ों, झाडि़यों और पौधों पर लागू नहीं होंगे।
यह कानून देश में हरित क्षेत्र का प्रसार करने, लकड़ी और अन्य वन-उपज की घरेलू स्तर पर आपूर्ति बढ़ाने, कार्बन सोखने वाले क्षेत्र का विस्तार करने तथा सबसे महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक वनों से जैविक दबाव कम करने में कृषि वानिकी को अपनी भूमिका बेहतर ढंग से निभाने का रास्ता तैयार कर सकता है।
इसके अलावा, केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 में नई दिल्ली में कृषि वानिकी पर आयोजित विश्व सम्मेलन के दौरान एक राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति का ऐलान किया था। विश्व में अपनी तरह की इस पहली नीति का उद्देश्य मुख्य तौर पर भूमि की उत्पादकता में सुधार करना एवं फसल प्रणाली में वृक्षों तथा झाडि़यों को शामिल कर खेती में पर्यावरण संबंधी स्थिरता को मजबूत करना है। यदि सावधानीपूर्वक इस नीति को लागू किया जाए तो यह कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता का अधिक से अधिक दोहन सुनिश्चित कर सकती है।
कृषि वानिकी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक अन्य सुविचारित कदम उठाते हुए सरकार ने हाल में देश के विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों में कृषि वानिकी के लिए उपयुक्त 36 पौधों की प्रजातियों की खेती के विवरण को रेखांकित करते हुए एक दस्तावेज प्रस्तुत किया है। इसमें जिन महत्त्वपूर्ण टिम्बर पौधों को लगाने की सिफारिश की गई है, उनमें टीक, भारतीय शीशम, महोगनी और पोपलर जैसे वृक्ष शामिल हैं। इसके अतिरिक्त इसमें सबसे जल्दी उगने वाला और सबसे अधिक गुण-संपन्न बांस की प्रजातियां भी हैं।
देश में इस समय उच्च गुणवत्ता, अधिक समय तक टिकने और आसानी से काम में ली जा सकने वाली लकड़ी जैसे टीक और महोगनी की जरूरत आयात से पूरी की जाती है। इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन (आईसीएफआरई) द्वारा तैयार यह दस्तावेज पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इसमें राज्यों के हिसाब से उपयुक्त कृषि-वानिकी पौधों की प्रजातियों, पारिस्थितिक रूप से व्यवहारिक, आर्थिक रूप से आकर्षक कृषि-वानिकी प्रणालियों के विभिन्न मॉडल और पेड़ों की कटाई एवं लकड़ी के परिवहन से संबंधित प्रचलित नियम और कानून के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है।
अच्छी बात है कि कई राज्य अब अपने कृषि अथवा वन विकास कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में कृषि वानिकी को बढ़ावा दे रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कर्नाटक अपने कृषि वानिकी विकास कार्यक्रम यानी कृषि अरण्य प्रोत्साहन योजना के तहत सरकारी नर्सरियों से रियायती दरों पर पौधे दे रहा है।
हरियाणा, जिसके क्षेत्रफल का कुल 3.5 फीसदी हिस्सा ही वनों से घिरा है, में कृषि वानिकी ईंधन एवं अन्य कामों के लिए स्थानीय स्तर पर लकड़ी की आपूर्ति का मुख्य स्रोत बन कर उभर रहा है।
राज्य का यमुनानगर जिला प्लाइवुड हब बन चुका है, जहां मुख्य तौर पर खेतों से आने वाली लकड़ी से बहुद्देश्य बोर्ड बनाए जाते हैं। इसके लिए यूकेलिप्टिस और पोपलर के पेड़ सबसे उत्पादक एवं लाभप्रद सिद्ध हो रहे हैं।
किसानों की आय बढ़ाने के लिए असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने भी अपने कृषि वानिकी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया है। हालांकि, राज्यों द्वारा इन तमाम स्वागतयोग्य पहलों एवं केंद्र सरकार के कृषि वानिकी अनुकूल नीतियां बनाने के बावजूद मिश्रित खेती की इस बहुत ही लाभप्रद प्रणाली को अभी लंबा सफर तय करना है।
कृषि वानिकी के तहत अभी केवल 2.85 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र ही आया है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का मुश्किल से 8.6 फीसदी ही बैठता है। उस लिहाज से यह बहुत कम है, जबकि देश में 14 करोड़ हेक्टेयर फसली और बंजर भूमि का व्यापक विस्तार है। इस भूमि का उपयोग कृषि-वानिकी या सिल्वी-चारागाहों (पेड़ों और चारे की घास का संयोजन) के लिए आराम से किया जा सकता है।
पर्यावरण उद्देश्यों को हासिल करने एवं कृषि वानिकी से आर्थिक लाभ लेने के लिए इस विशाल अप्रयुक्त क्षमता का उपयोग किया जाना चाहिए।