भारत  में वैश्विक महामारी कोविड-19 के दौरान एक ओर सरकार ने स्वास्थ्य संबंधी  देखभाल करने वाली बिरादरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका का सम्मान करने के लिए  नागरिकों से थालियां बजाने का अनुरोध किया और हेलीकॉप्टरों से फूलों की  पंखुडिय़ां गिराई गईं, दूसरी ओर जमीनी स्तर पर क्रूर विडंबना नजर आती है। इस  महामारी ने काम के बोझ तले दबी, लेकिन इसके बावजूद कम वेतन पाने वाली देश  की उन नर्सों की लंबे समय से उफन रही दिक्कतों को उजागर कर दिया है जिनकी  संख्या तकरीबन 18 लाख है। उन्हें न केवल अस्पतालों की प्रणालीगत उदासीनता,  वेतन संरचना का उनके प्रशिक्षण के समान न होना और डॉक्टरों के साथ अधिकार  की लड़ाई जैसे पुराने मसलों से ही जूझना पड़ता है, बल्कि अग्रिम मोर्च पर  काम करने से उनके सामने कई चुनौतियां भी खड़ी हो गई हैं। जरा महाराष्ट्र की  नर्सों के इन उदाहरणों पर गौर कीजिए:
*  शुरुआत में जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी और मेरे अस्पताल को कोविड के  मरीजों को भर्ती करने की अनुमति नहीं थी, तो हमें 15 दिन के लिए काम करने  और 15 दिन की छुट्टी लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। हमें केवल काम के दिनों  के लिए पैसा दिया गया था।
*  कई बड़े निजी अस्पतालों में पीपीई (व्यक्तिगत सुरक्षा लिबास) पहनकर कोविड  की आठ घंटे की ड्यूटी करनी होती है, जो बहुत लंबी है। और वे हमें उसी दिन  दूसरा पीपीई सूट देने से से मना कर देते हैं, फिर भले ही (हमारे) पीपीई सूट  फट जाएं, क्षतिग्रस्त या अनुपयोगी हो जाएं।
*  हमारे सालाना अप्रेजल लंबित थे। कई बार हमारी काम करने की पाली लगातार 12  घंटे की थी। हमें कोई कोविड भत्ता तक भी नहीं दिया गया। कोविड पॉजिटिव  नर्सों के लिए विशेष अवकाश नहीं दिया गया था। इन मांगों को उठाने के लिए  हमने हड़ताल की थी। आखिर में प्रबंधन हमें प्रतिदिन 200 रुपये का कोविड  भत्ता देने के लिए सहमत हो गया, जो सरकार द्वारा बताए गए भत्ते से कम है,  लेकिन तब उन्होंने यह कहते हुए अप्रेजल करने से मना कर दिया कि अस्पताल  घाटे में है।
ये कहानियां देश  भर की नर्सों का हाल बयां करती हैं। पिछले नौ महीनों के दौरान नर्सों ने  अपनी खराब और काम करने की असुरक्षित स्थिति तथा मुआवजे की कमी और काम के  दौरान संक्रमण का शिकार होने वालों के लिए हर्जाने की खातिर दिल्ली, पटना  और कोलकाता सहित देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध जताने के लिए काम रोका।  देश में नर्सों के सबसे बड़े और सबसे पुराने संगठनों में शुमार- ट्रेंड  नर्सेज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (टीएनएआई) के अनुमान के मुताबिक इस वैश्विक  महामारी की शुरुआत से अब तक 50 से अधिक नर्सें कोविड के कारण अपनी जान गंवा  चुकी हैं।
टीएनएआई के  अध्यक्ष रॉय जॉर्ज का कहना है कि डॉक्टरों के मुकाबले नर्सों की मृत्यु दर  कम है। ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि जब कोविड के रोगियों को अस्पतालों में  भर्ती कराया जाता है जहां नर्सें उनके संपर्क में आती हैं, तब न केवल पहले  से ही सुरक्षा के नियम होते हैं, बल्कि मरीज खुद भी ज्यादातर संक्रमण के  अंतिम चरण में होते हैं। जॉर्ज कहते हैं कि लेकिन काम की अनुचित स्थितियों  और रोजगार की परिपाटी ने उनका जीवन नरक बना दिया है।
कोविड-19  से ज्यादा प्रभावित रहने वाले खास तौर पर तेलंगाना, महाराष्ट्र और दिल्ली  जैसे शहरों के अस्पताल मरीजों से भर चुके हैं, जिसके परिणामस्वरूप नर्सों  के काम की अवधि ज्यादा लंबी, मुश्किल तथा अधिक खतरनाक हो गई है।
पुणे  स्थित सपोर्ट फॉर एडवोकेसी ऐंड ट्रेनिंग टू हेल्थ इनिशिएटिव्स (साथी) ने  पिछले सप्ताह महाराष्ट्र में नर्सों के कई संगठनों की मदद से 367 नर्सों पर  किए गए सर्वेक्षण के परिणाम जारी किए हैं। सर्वेक्षण में 76 प्रतिशत  नर्सों ने अत्यधिक काम किए जाने की जानकारी दी और 65 प्रतिशत नर्सों ने कहा  कि इस अवधि के दौरान वे छुट्टियां मंजूर नहीं करा पाईं तथा 17.4 प्रतिशत  नर्सों ने दो पालियों में काम करने की जानकारी दी। इसके बावजूद महानगरों  में गिनेचुने बड़े निजी अस्पतालों के अलावा कुछेक अस्पतालों ने ही कोई  आर्थिक प्रोत्साहन देने की पेशकश की है।
इंडियन  प्रोफेशनल नर्सेज एसोसिएशन (आईपीएनए) के संयुक्त सचिव सिजू थॉमस कहते हैं  कि कोविड भत्ता तो भूल जाइए, कई निजी अस्पतालों ने तो इस दौरान नर्सों के  वेतन में 30 फीसदी से ज्यादा तक की कटौती कर दी है।
निजी  अस्पतालों में अनुचित वेतन संरचना भारतीय नर्सों के लिए पुराना मसला रहा  है। टीएनएआई ने निजी अस्पतालों में नर्सों के लिए ज्यादा वेतन की खातिर  वर्ष 2016 में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी जिसने तब सरकार को  नर्सों का वेतन ढांचा दुरुस्त करने का निर्देश दिया था। जॉर्ज कहते हैं कि  हालांकि, चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए केवल केरल, दिल्ली और  कर्नाटक ने इस पर ध्यान दिया था और उसके बाद से इस पर केवल केरल में आंशिक  रूप से पालन किया गया है।
दिल्ली  नगर निगम के एक बड़े अस्पताल और पुणे में सरकार द्वारा संचालित एक अस्पताल  की तरह अन्य अस्पतालों ने इस वैश्विक महामारी के दौरान वेतन वितरण में  देरी की है। थॉमस कहते हैं कि जब हमने कार्यस्थल के मसलों को उठाया, खास  तौर पर निजी अस्पालों के खिलाफ, तो हमें अक्सर परेशान किया गया। आईपीएनए ने  उन 84 अस्थायी नर्सों की तरफ से लड़ाई की जिन्हें दिल्ली के प्रसिद्ध  शिक्षण अस्पतालों द्वारा निकाल दिया गया था। कथित रूप से इस बात की शिकायत  की गई थी कि उन्हें कोविड जांच से वंचित कर दिया गया था और कोविड ड्यूटी  पूरी करने के बाद पर्याप्त क्वारंटीन सुविधाएं नहीं थीं।
लोगों  के स्वास्थ्य के लिए चलाई जाने वाली मुहिम – जन स्वास्थ्य अभियान के मुंबई  चैप्टर की स्वाति राणे कहती हैं कि पुणे के सबसे बड़े निजी अस्पतालों में  से एक अस्पताल ने उन्हें डराने के लिए वास्तव में नर्सों के क्वार्टरों में  बाउंसर भेज दिए थे। हमें निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं द्वारा नर्सों के  साथ व्यवहार को विनियमित करने के लिए किसी प्रकार की योजना तैयार करनी  होगी।
निजी अस्पतालों और  नर्सिंग होम में काम करने वाली नर्सों के लिए असुरक्षा का एक अन्य कारण वह  मुश्किल जिससे कुछ नर्सों को दोचार होना पड़ता है और यह दिक्कत कि अगर  ड्यूटी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई, तो उनके शोकाकुल परिवारों को मुआवजे की  लड़ाई का सामना करना पड़ा है। जॉर्ज का कहना है कि वर्तमान में सरकार केवल  उन्हीं नर्सों के परिवारों केा मुआवजा दे रही है जिनकी मृत्यु कोविड के  लिए निर्दिष्ट अस्पतालों में सेवा के दौरान हुई है।
इनमें  वे नर्सें शामिल नहीं है जो जनरल वार्डों, गैर-कॉविड अस्पतालों और  क्लीनिकों में संक्रमित हुई है। दिल्ली में कोविड से मरने वाली पहली नर्स  46 वर्षीय अंबिका पीके समेत अन्य नर्सों के परिवारों को 50 लाख रुपये के उस  मुआवजे के लिए अंतहीन प्रतीक्षा का सामना करना पड़ रहा है जिसके लिए सरकार  ने इस वैश्विक महामारी की शुरुआत में वादा किया था।
केरल  स्थित मुख्यालय वाले यूनाइटेड नर्सेज एसोसिएशन के अध्यक्ष (राज्य) जिबिन  टीसी कहते हैं कि नर्सें थक गई हैं और निरुत्साहित हो चुकी हैं। हमने देखा  है कि इस महामारी के दौरान तकरीबन 800 नर्सें भारत छोड़कर ब्रिटेन और यूएई  जैसे उन देशों में चली गई हैं जहां नर्सों के साथ ज्यादा अच्छा व्यवहार  किया जाता है।
विश्व  स्वास्थ्य संगठन के प्रति 1,000 जनसंख्या पर तीन नर्सों के मानक की तुलना  में भारत में प्रति 1,000 जनसंख्या पर केवल 1.7 नर्सें ही हैं। जॉर्ज की  सलाह है कि सरकार को कोविड अस्पतालों में कम से कम 10,000 और नर्सों को  नियुक्त करना चाहिए।
हड़ताल खत्म करे नर्सों का संगठन: गुलेरिया
अखिल  भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया ने सोमवार को  अस्पताल के नर्सों के संगठन से अपील की कि वे अपनी हड़ताल समाप्त करें और  महामारी में मदद करें। उन्होंने आश्वासन दिया कि वेतन वृद्धि की उनकी मांग  सहित जो भी मुद्दे होंगे उनका सौहार्दपूर्ण तरीके से हल निकाला जाएगा।  उन्होंने कहा, ‘मैं सभी नर्सों, सभी नर्सिंग अधिकारियों से अपील करता हूं  कि वे हड़ताल पर न जाएं।’ गुलेरिया ने कहा कि नर्सों के संगठन ने 23 मांगें  रखी थीं और उनमें से ज्यादातर को पूरा कर लिया गया था। हालांकि, छठे वेतन  आयोग के तहत प्रारंभिक वेतन निर्धारण से संबंधित कथित विसंगति से जुड़ी एक  मांग पूरी नहीं हुई है।