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बंगाल के कारखाना केंद्र पर संकट

Last Updated- December 12, 2022 | 3:01 AM IST

करीब 35 साल के सनत खान की जिंदगी अधर में लटकी हुई है। वह जिस ढलाई खाने (फाउंड्री यूनिट) में काम करते हैं उसे पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा कोविड-19 की दूसरी लहर को नियंत्रित करने के लिए एक महीने का लॉकडाउन लगाए जाने से करीब एक हफ्ते पहले ही खोला गया था। उन्होंने कहा, ‘मुझे एक महीने में आधी पगार ही मिली।’ हालांकि उन्होंने किसी तरह काम चला लिया। लेकिन अब उनके दिमाग में यह बात रह-रहकर कौंध रही है कि क्या प्रतिबंधों का एक और दौर शुरू होगा या कुछ समय के अंतराल के बाद फिर से लॉकडाउन लगाया जाएगा। खान एक दिन में करीब 400 रुपये कमाते हैं और एक दिन की बंदी से भी उन्हें काफी नुकसान होगा।
उनकी स्थिति फिर भी कई लोगों से बेहतर हो सकती है। हावड़ा में करीब 500 से अधिक ढलाई इकाइयां हैं जहां बड़े पैमाने पर ठेके पर कर्मचारी काम करते हैं। छोटी इकाइयां नकदी की कमी से जूझ रही हैं और अपने कामगारों को लॉकडाउन के दौरान आधी पगार भी देने में सक्षम नहीं थीं। पश्चिम बंगाल में 16 मई से लॉकडाउन जैसे उपाय किए गए और उस वक्त औद्योगिक और विनिर्माण इकाइयां बंद कर दी गईं। केवल मेडिकल आपूर्ति, कोविड सुरक्षा से जुड़े सामानों की आपूर्ति, स्वास्थ्य एवं साफ-सफाई से जुड़े सामानों, ऑक्सीजन और ऑक्सीजन सिलिंडर, प्रसंस्करण से जुड़े उद्योग और खाद्य पदार्थ के उत्पादन और पैकेजिंग से जुड़ी इकाइयां ही खोली गईं।  
मई के अंत में, उद्योग और विनिर्माण इकाइयों में कामगारों को काम करने की अनुमति दी गई लेकिन साथ में यह शर्त भी रखी गई कि टीका लगवाने वाले लोगों को ही काम की अनुमति दी जाएगी। इसके बाद फिर, 28 जून के एक आदेश में उत्पादन इकाइयों, मिलों और उद्योगों को 50 प्रतिशत कामगारों के साथ काम करने की अनुमति दी गई लेकिन इन कामगारों का टीकाकरण अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन हावड़ा चैंबर ऑफ  कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (एचसीसीआई) के महासचिव संतोष उपाध्याय ने बताया कि फिलहाल केवल 20-25 फीसदी ढलाई वाली इकाइयां ही चालू हैं। यह उद्योग संगठन 1,000 से अधिक व्यापारियों और एमएसएमई सदस्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
यहां करीब 500 ढलाई इकाइयां हैं और उपाध्याय ने बताया कि निर्माण और सहायक इकाइयों सहित हावड़ा में कुल इकाइयां लगभग 2,000 होंगी और इनमें से अधिकांश बंद हैं। हावड़ा के छोटे कारखाना केंद्र में दबाव स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा सकता है जहां करीब 80-90 फीसदी इकाइयां लोहा और इस्पात उद्योग से जुड़ी हुई हैं। यह दबाव न केवल कामगारों के बीच बल्कि मालिकों के बीच भी महसूस होता है।
राष्ट्रीय राजमार्ग पर हावड़ा और बेलगछिया के बीच एक फाउंड्री इकाई के मालिक ने बताया, ‘पश्चिम बंगाल में बंदी के कारण ग्राहक कम हो गए।’ इन्हें भी छत्तीसगढ़ और ओडिशा के इस्पात संयंत्रों के ऑर्डर नहीं मिल पाए। इन इकाइयों से भारत और ओमान, ईरान, श्रीलंका में इस्पात संयंत्रों में इस्तेमाल के लिए जुड़ी सामग्री और कलपुर्जों की आपूर्ति की जाती है। इस फाउंड्री इकाई के मालिक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘स्टील संयंत्र चालू थे और उन्हें उन राज्यों में ऑर्डर देना पड़ा जहां उद्योग पर अंकुश नहीं था।’ निर्यात ऑर्डर में भी देरी हुई।
  हावड़ा कास्टिंग, मशीन के पुर्जे और असेंबल किए गए पुर्जों का केंद्र है और यह भारत और दुनिया की मांग को पूरा करता है। एक आकलन के मुताबिक इन फाउंड्री इकाइयों से हर महीने करीब 200-300 करोड़ रुपये का निर्यात होता है और फरवरी से सितंबर के महीने के दौरान सबसे ज्यादा निर्यात होता है। पिछले साल के कोविड के झटके के बाद उद्योग की स्थिति जनवरी के आसपास सामान्य हो गई और इसकी इकाइयां 80-85 फीसदी क्षमता पर काम कर रही थीं। लेकिन दूसरी लहर ने तेजी से मिलने वाली सभी फायदे खत्म कर दिए। जिन इकाइयों में काम शुरू ही हुआ था वहां ऑर्डर घटने लगे, कामगारों की कमी हो गई और कच्चे माल की कीमतें बढऩे के साथ ही लॉजिस्टिक्स से जुड़ी बाधाओं का भी सामना करना पड़ा।
कैलाश अग्रवाल की जेपीके मेटालिक्स में भी 50-60 फीसदी क्षमता पर काम हो रहा है जो मैनहोल कवर बनाती है और इसकी आपूर्ति ब्रिटेन और अमेरिका में करती है। उत्पादों की मांग में कोई कमी नहीं है लेकिन कामगारों की कमी सबसे प्रमुख चिंता है। अग्रवाल कहते हैं, ‘उद्योग में सब ठीक नहीं है।’ इन्होंने 15 जून के बाद 50 फीसदी कामगारों के साथ काम शुरू किया था। एक फैब्रिकेशन इकाई के मालिक एच के शर्मा ने बताया, ‘पूरी शृंखला ही टूट गई है।’
उन्होंने कहा, ‘पहले, ऑक्सीजन की कमी थी और अब जब ऑक्सीजन उपलब्ध है तो काम करने के लिए लोग उपलब्ध नहीं हैं।’ फैब्रिकेशन इकाइयों को कटिंग के लिए ऑक्सीजन की जरूरत है। हावड़ा में काम करने वाले कुशल और अर्ध-कुशल कामगार ज्यादातर लोकल ट्रेनों से आते हैं और उन्हें काम शुरू करने के लिए सरकार से अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। कुछ फाउंड्री मालिकों को इन कामगारों के रहने की व्यवस्था करनी पड़ी है वहीं कुछ जरूरी कामगारों को लाने के लिए गाडिय़ों का इंतजाम कर रहे हैं। इन सबकी वजह से लागत बढ़ रही है।
इसके अलावा माल वाले ट्रकों के साथ भी समस्या है जिसकी वजह से उत्पादन का काम रुक जा रहा है क्योंकि कच्चे माल की आपूर्ति में काफी अनिश्चितता है। माल वाले ट्रकों को राज्य के भीतर और बाहर माल और सामग्री लाने के लिए ई-पास की जरूरत होती है। जो लोग खर्च कर सकते हैं वे स्थानीय स्तर पर अधिक लागत के साथ कच्चा माल हासिल कर ले रहे हैं।
कच्चे माल की कीमतों में वैसे भी पिछले एक साल में काफी उछाल आई है। ढलाई के लिए कच्चा लोहा मुख्य कच्चा माल है। एआईसी कास्टिंग्स के दिनेश अदुकिया ने कहा कि मई 2020 से जून 2021 तक पिग आयरन की कीमतें 21,000 रुपये प्रति टन से बढ़कर 42,000 रुपये प्रति टन हो गई हैं। लेकिन अदुकिया ग्राहकों को 13,000 से 14,000 रुपये देने में दे रहे हैं।

First Published - July 5, 2021 | 11:02 PM IST

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