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जिंदगीनामा: महिला अधिकार दलों के लिए महज एक दांव

Women's rights: महिलाओं पर हुए अपराधों के लिए ममता बनर्जी ने शायद जानबूझ कर अस्पष्ट रुख अपनाया जिससे शायद उसकी स्पष्ट निंदा नहीं की गई।

Last Updated- March 08, 2024 | 10:43 PM IST
महिला अधिकार दलों के लिए महज एक दांव, Just a bet for women's rights parties

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस साल का ऐसा वक्त होता है जब पत्रकारों के इनबॉक्स ‘महिलाओं को सशक्त बनाने’ के लिए कंपनी जगत की किसी पहल को कवर करने के अनुरोध से भर जाते हैं। इस तरह की कुछ थोड़ी अलग पहलों का प्रभाव काफी अच्छा होता है लेकिन इनमें से कुछ प्रयास तब निरर्थक लगने लगते हैं जब आप पश्चिम बंगाल के संदेशखालि और झारखंड के दुमका में हाल में हुई भयावह घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं।

दोनों घटनाएं इस बात को रेखांकित करती हैं कि इस तरह के प्रयास दूर की कौड़ी हैं और भारत में महिलाओं की समानता हासिल करने में काफी वक्त लगेगा क्योंकि भारतीय समाज में महिलाओं की असमानता एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है। इसके लिए सभी विचारधारा वाले राजनीतिक दल किसी न किसी तरह से शामिल हैं। 21वीं सदी के तीसरे दशक के मध्य में महिलाओं का ‘सशक्तीकरण’ अब भी राजनीतिक सत्ता के खेल का शिकार बना हुआ है।

संदेशखालि में हुई घटनाएं इसका एक अच्छा उदाहरण पेश करती हैं। कोलकाता से 80 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में मौजूद उत्तरी 24 परगना के इस गांव के कद्दावर नेता शाहजहां शेख के विभिन्न अपराधों की जानकारी कोई नई बात नहीं है। शेख और उसके गुर्गों द्वारा स्थानीय महिलाओं पर किए गए हमले भी सर्वविदित थे। देश के बाकी लोगों को इन घटनाओं की जानकारी तब मिली जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की टीम पर हुए हमले के बाद छापेमारी और तलाशी अभियान से प्रेरित होकर महिलाओं ने सामने आकर और खुलकर शिकायत करने का फैसला किया।

यहां दो बातें गौर करने के योग्य हैं। पहला, शेख को गिरफ्तारी के बाद ही पार्टी से छह साल के लिए निष्कासित किया गया जबकि वह अपने घर से मात्र 30 किलोमीटर दूर 55 दिनों तक छिपा रहा। शेख की गिरफ्तारी के बाद तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता ने कहा कि पार्टी ने ऐसा करके ‘उदाहरण पेश किया है’। दूसरा, इसमें शेख द्वारा महिलाओं पर किए गए अपराधों का कोई जिक्र नहीं किया गया। इसके बजाय, पार्टी का पूरा बयान प्रतिशोध वाली बयानबाजी पर केंद्रित था। प्रवक्ता ने कहा, ‘हम भाजपा को चुनौती देते हैं कि वह उन नेताओं को निलंबित करे जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं।’

महिलाओं पर हुए अपराधों के लिए ममता बनर्जी ने शायद जानबूझ कर अस्पष्ट रुख अपनाया जिससे शायद उसकी स्पष्ट निंदा नहीं की गई। लेकिन दो बच्चों की मां सुजेट जॉर्डन के खिलाफ उनके आरोपों को कौन भूल सकता है जिनके साथ 2012 में पांच मर्दों ने सामूहिक बलात्कार किया था। बेहद साहसपूर्ण तरीके से अपनी पहचान जाहिर कर आवाज उठाने वाली उस जॉर्डन पर ममता ने आरोप लगाया कि उन्होंने सरकार को शर्मिंदा करने के लिए यह मामला गढ़ा है जिन्होंने बेहद साहसपूर्ण तरीके से अपनी पहचान जाहिर की।

फिर एक अन्य महिला सांसद ने कहा कि जॉर्डन एक यौनकर्मी थीं जिसका अर्थ था कि इस पेशे में किसी के साथ बलात्कार को अपराध नहीं माना जा सकता है। आखिरकार इस मामले को सुलझाने वाली महिला पुलिस अधिकारी का तबादला कर दिया गया।

थोड़े से राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना को लेकर हमेशा सतर्क रहने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बंगाल में अपना चुनावी रिकॉर्ड सुधारने के मकसद से इस मुद्दे को भुनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘संदेशखालि की माताओं और बहिनों’ पर किए गए अत्याचारों पर ‘इंडिया’ गठबंधन की चुप्पी पर चुटकी भी ली। प्रधानमंत्री के पास अहम मुद्दा है कि इस तरह के मामले पर चुप्पी अक्षम्य है। लेकिन यौन अपराधों पर दिए गए उनके अस्पष्ट बयानों की वाक्पटुता को समझना मुश्किल है।

आप उस खानाबदोश समुदाय की आठ साल की लड़की आसिफा बानो के बलात्कार और हत्या के मामले को याद करें जब जम्मू कश्मीर सरकार में मंत्री रहे दो भाजपा नेताओं ने बलात्कार के आरोपियों के समर्थन में आयोजित एक रैली में हिस्सा लिया। इससे ठीक एक साल पहले, एक बलात्कार पीड़िता ने एक हमलावर के खिलाफ न्याय की मांग करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह करने की कोशिश की थी जो अपराध करने के बाद भी उसके परिवार को डराता रहा था। वह हमलावर पार्टी का पूर्व नेता था।

इन घटनाओं पर मोदी की प्रतिक्रिया कुछ महीने बाद ही आई जब विदेशी मीडिया में भी यह बात आने लगी और आक्रोश बढ़ने लगा। दो ट्वीट में उन्होंने बलात्कार को ‘सामाजिक न्याय के लिए चुनौती’ और ‘किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक’ बताया। हालांकि वर्ष 2022 में बिलकिस बानो के बलात्कारियों को गुजरात सरकार द्वारा राहत दिए जाने और फिर उच्चतम न्यायालय द्वारा उस फैसले को संवेदनशील तरीके से पलटने के बाद से कोई बयान नहीं आया है।
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, महिलाएं राजनीतिक मुकाबले का केंद्र बन गई हैं। राजनीतिक दल सभी तरह की कल्याणकारी योजनाओं की पेशकश करने की होड़ में जुटे हैं।

कंपनियों के निदेशक मंडल और संसद में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण जैसे दोनों कदमों को लेकर मेरी पूरी असहमति है लेकिन इस तरह के कदम और महिलाओं पर केंद्रित लोकलुभावन रियायतों की होड़, वास्तव में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को कम करने के लिए नहीं, बल्कि उनका इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए है।

किसी भी तरह का प्रचार इस वास्तविकता को तब तक नहीं बदल सकता जब तक कि राजनीतिक नेता महिलाओं पर होने वाले अपराधों को बिल्कुल बरदाश्त न करने की नीति का महत्त्व नहीं समझेंगे चाहे पीड़िता और अपराधी की सामाजिक हैसियत, जाति या धर्म कुछ भी हो।

भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में से एक होने पर गर्व है, लेकिन झारखंड में स्पेन की एक पर्यटक के साथ हुए सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाओं के कारण दुनिया की सबसे बड़ी विदेशी कंपनियां महिला अधिकारियों को यहां काम करने के लिए भेजने को लेकर प्रोत्साहित नहीं होंगीं जिनके डॉलर निवेश के लिए सरकार तरसती है।

सरकार ने अक्सर वैश्विक स्त्री-पुरुष असमानता रिपोर्ट की रैकिंग में 146 देशों में भारत के 127वें स्थान पर होने के खराब प्रदर्शन पर आपत्ति जताई है। यह समझना मुश्किल है कि नेता क्यों सोचते हैं कि हमें उच्च स्तर की रैंकिंग हासिल करनी चाहिए जबकि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से काफी पीछे है। भारत अब भी अपनी ही महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता, विदेश से आने वाली महिलाओं की बात तो छोड़ ही दीजिए।

First Published - March 8, 2024 | 10:43 PM IST

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