मई महीने में नीति आयोग की 10वीं गवर्निंग काउंसिल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए मजबूत नीतियों और कानून बनाने पर जोर दिया। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि भारत में महिला श्रम बल भागीदारी (एलएफपीआर) दर लगभग 33 फीसदी है (विश्व बैंक, 2024), जो विश्व स्तर पर काफी कम है, जबकि निम्न-मध्य-आय वाले देशों में यह दर औसतन 41 फीसदी है।
इससे एक जरूरी सवाल खड़ा होता है कि आखिर भारत में कामकाजी महिलाएं इतनी कम क्यों हैं? यह सिर्फ आमदनी में तेज वृद्धि के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि महिलाओं के सशक्तीकरण का सीधा ताल्लुक, परिवारों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के बेहतर नतीजों से है। ऐसे में महिलाओं की कम एलएफपीआर का असर देश के समग्र विकास के परिणामों पर भी पड़ता है।
महिला एलएफपीआर के तीन मुख्य कारक हैं: सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं (महिलाओं के काम के प्रति समाज का रवैया), आपूर्ति-पक्ष कारक (महिलाओं की काम करने की इच्छा), और मांग-पक्ष कारक (नौकरियों की उपलब्धता)। कई शोध रिपोर्ट बताते हैं कि भारत में महिला एलएफपीआर कम होने के पीछे मुख्य रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं और आपूर्ति पक्ष की बाधाएं जिम्मेदार हैं। यह निष्कर्ष सही भी लगता है क्योंकि भारतीय महिलाएं पुरुषों की तुलना में अवैतनिक घरेलू कामों में आठ गुना अधिक समय बिताती हैं जबकि वैश्विक औसत तीन गुना (यूएन वुमन 2019) है। साथ ही, पुरुषों और महिलाओं के लिए वेतन समानता के मामले में भारत 146 देशों में से 120वें स्थान पर है। ऐसी कई वजहों की लंबी फेहरिस्त है।
हमारा निरंतर कार्य दर्शाता है कि ये मानदंड और आपूर्ति-पक्ष कारक महिला एलएफपीआर को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन ये हमारे समकक्ष देशों, जिनकी महिला एलएफपीआर कहीं अधिक है, के साथ कुल अंतर का लगभग आधा हिस्सा ही समझा पाते हैं। इस प्रकार, भारत में श्रम की मांग की कमी बाकी आधे हिस्से की व्याख्या करती है। महिला एलएफपीआर किसी देश में महिला प्रधान रोजगार, अर्थव्यवस्था में श्रम का उपयोग और आर्थिक विकास के स्तर का परिणाम है। चूंकि दोनों तरह के देशों में आर्थिक विकास का स्तर लगभग समान है ऐसे में हम महिलाओं के एलएफपीआर पर पहले दो कारकों के प्रभाव को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
महिला प्रधान रोजगार वाले देशों के बीच का अंतर, मुख्य रूप से सामाजिक नियमों और महिलाओं की काम करने की इच्छा के कारण होता है जबकि रोजगार की तीव्रता में अंतर, उत्पादन प्रक्रियाओं में श्रम बनाम पूंजी का उपयोग करने के सापेक्ष लागत और लाभ को दर्शाता है। इसलिए, अगर दो देशों में सामाजिक नियम और महिलाओं की काम करने की इच्छा समान भी हो तब पूंजी पर आधारित वृद्धि वाले देश में महिला एलएफपीआर कम होगी। सवाल यह है कि ये दोनों कारक कितने महत्त्वपूर्ण हैं?
बांग्लादेश और फिलिपींस से तुलना करने पर यह बातें और साफ हो जाती हैं। अगर भारत में बांग्लादेश या फिलिपींस जैसी महिला रोजगार तीव्रता होती तो हमारी महिला एलएफपीआर 33 फीसदी से बढ़कर क्रमशः 37फीसदी और 43फीसदी हो जाती। हालांकि इसके बावजूद यह इन देशों (बांग्लादेश में 44 और फिलीपींस में 50 फीसदी) से काफी पीछे रहती। यह बताता है कि महिला एलएफपीआर के कुल स्तर को समझाने में मांग-पक्ष के कारकों का बड़ा महत्त्व है।
बांग्लादेश में महिला एलएफपीआर के विकास को देखने से मांग-पक्ष के कारकों का महत्त्व और भी स्पष्ट हो जाता है। 1990 में, भारत और बांग्लादेश दोनों में महिलाओं की भागीदारी दर लगभग एक जैसी, क्रमशः 30 और 25 फीसदी थी। लेकिन आज, बांग्लादेश हमसे कहीं आगे निकल चुका है। इसका श्रेय उसके निर्यात-आधारित रेडीमेड परिधान उद्योग को जाता है। वर्ष 1983 में, रेडीमेड परिधान निर्यात बांग्लादेश के कुल निर्यात का केवल 4 फीसदी था, जो 2021 में बढ़कर 81फीसदी हो गया और 42 अरब डॉलर तक पहुंच गया।
रेडीमेड परिधान क्षेत्र में 60 फीसदी से अधिक कर्मचारी महिलाएं (निर्यात संवर्धन ब्यूरो बांग्लादेश 2021) हैं। अगर रेडीमेड परिधान उद्योग में यह जबरदस्त उछाल नहीं देखी गई होती तो बांग्लादेश की महिला भागीदारी लगभग 38फीसदी होती न कि 44 फीसदी। इससे हमें साफ सबक मिलता है कि अगर बाकी चीजें समान रहें, तब रोजगार आधारित विकास का रास्ता महिला भागीदारी के लिए भी बेहतर है।
आखिरी सवाल यह है कि आखिर, भारत में श्रम की मांग कम क्यों है? इसके कई और अलग-अलग कारण हो सकते हैं, जैसे शिक्षा और कौशल की खराब गुणवत्ता, और मुश्किल श्रम कानून। शिक्षा की गुणवत्ता को वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट में पढ़ने और गणित के सवाल हल करने से जुड़ी सीख की जांच के नतीजों से आंका जा सकता है। तीसरी कक्षा के केवल 23 फीसदी छात्र पढ़ने में और 33 फीसदी गणित में पास हुए। पांचवीं कक्षा में, 44 फीसदी ने पढ़ने की और 30फीसदी ने गणित की परीक्षा पास की।
भारत में लगभग 15 फीसदी कंपनियां, श्रम कानूनों को एक बड़ी या बेहद गंभीर बाधा बताती हैं, जबकि बांग्लादेश में यह आंकड़ा महज 3.4 फीसदी और फिलीपींस में 6.4 फीसदी है। इन मांग-पक्ष की बाधाओं को दूर करना बहुत जरूरी होगा ताकि अधिक महिलाओं को कार्यबल में आने और बने रहने का मौका मिल सके, जिससे महिला एलएफपीआर बढ़ेगी। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षा की गुणवत्ता और श्रम कानूनों की बाधाओं को दूर कर, काम की मांग बढ़ाना काफी हद तक सरकार के हाथ में है। एक बार जब यह लागू हो जाएगा, तब यह उम्मीद है कि इससे एक सकारात्मक चक्र शुरू होगा, जो आपूर्ति और सामाजिक नियमों पर सकारात्मक प्रभाव डालेगा, जिससे एलएफपीआर और बढ़ जाएगी।
(लेखकद्वय अर्थशास्त्री हैं और ये निजी विचार हैं।)