भारत में पिछले दो दशकों से लोक सभा चुनावों के नतीजे पूर्वानुमान के मुताबिक नहीं रहे हैं और कई बार तो एकदम उलट नतीजे आए हैं। चुनावों के दौरान सर्वेक्षण करने वाले लगभग सभी लोगों ने 2004 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की जीत का दावा किया था मगर इसका उलटा हुआ और कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सत्ता में आ गई। पांच साल बाद 2009 में संप्रग की प्रचंड जीत के दावे किए गए थे मगर सबको धता बताते हुए त्रिशंकु लोकसभा सामने आई। 2014 में भी ज्यादातर एग्जिट पोल भाजपा की जबरदस्त जीत का अनुमान नहीं लगा पाए थे।
2019 में ज्यादातर सर्वेक्षण राजग की चुनावी लहर कमजोर पड़ने और बहुमत के आंकड़े से पीछे रहने की बात कह रहे थे मगर एग्जिट पोल में उसे 300 से अधिक सीटें मिलने का अनुमान जताया गया और ऐसा हुआ भी। इससे सर्वेक्षणकर्ताओं को कुछ हद तक अपनी इज्जत और साख बचाने में मदद मिल गई। मगर बची-खुची साख 2024 में खत्म हो गई। उस साल ज्यादातर अनुमान राजग को 362 से 411 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत मिलने के थे मगर गठबंधन 293 सीटों पर सिमट गया।
हाल के विधानसभा चुनावों में भी अनुमान बहुत गलत साबिह हुए। दिल्ली में 2013, 2015, 2020 और 2025 के विधानसभा चुनाव ही देख लीजिए। 2013 में सबने आम आदमी पार्टी (आप) को बढ़त मिलने का अनुमान तो लगाया था मगर किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि पार्टी कुल 70 में से 28 सीट जीत लेगी। 2015 और 2020 में आप की जीत का अंदाजा सबको था मगर चुनाव पंडितों को 67 और 62 सीट मिलने की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं थी। इस साल के विधानसभा चुनावों में भी यही गलती दोहराई गई। इस बार दांव उल्टा पड़ गया क्योंकि उन्हें आप की इतनी करारी हार (62 से घटकर केवल 22 सीट) और भाजपा की इतनी प्रचंड जीत (8 सीटों से उछलकर 48 सीट) का अनुमान तो बिल्कुल नहीं था।
बिहार में 2015, उत्तर प्रदेश में 2017, छत्तीसगढ़ में 2023 और हरियाणा में 2024 के विधानसभा चुनावों में भी यही कहानी दिखी। 2015 में ज्यादातर सर्वेक्षणकर्ता बिहार में राजग के खिलाफ महागठबंधन की बड़ी जीत का अनुमान नहीं लगा पाए और 2017 में वे उत्तर प्रदेश में भाजपा की इतनी बड़ी जीत का अंदाजा लगाने में पूरी तरह नाकाम रहे। चुनावी पंडितों को 2023 में छत्तीसगढ़ और 2024 में हरियाणा में भाजपा की जीत होती नहीं दिख रही थी।
हैरत की बात है कि पिछले कुछ साल में कई एग्जिट पोल भी गलत साबित हुए हैं। मतदान से पहले हुए सर्वेक्षणों में वे लोग भी शामिल होते हैं, जो बाद में किसी न किसी कारण वोट नहीं डाल पाते। मगर एग्जिट पोल में उन्हीं लोगों की राय पूछी जाती है, जो मतदान केंद्रों से वोट डालकर निकल रहे होते हैं। कई बार मतदाताओं का मन बाद में बदल जाने पर भी सर्वेक्षण खोखले साबित होते हैं। एग्जिट पोल में यह समस्या भी नहीं रहती। इसलिए माना जाता है कि चुनावी नतीजों का अनुमान लगाने में जनमत सर्वेक्षणों के मुकाबले एग्जिट पोल ज्यादा सटीक होते हैं।
जनमत सर्वेक्षण अनुमान आधारित होते हैं और अमेरिका समेत कई देशों में भी गलत साबित हो चुके हैं। यहां तक की गैलप पोल शुरू करने वाले जॉर्ज होरास गैलप भी 1948 में गलत साबित हुए। उस साल गैलप और दो अन्य बड़े सर्वेक्षणों में अनुमान लगाया गया कि रिपब्लिकन पार्टी के थॉमस ड्यूई अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के हैरी ट्रूमैन को परास्त कर देंगे मगर उनका अनुमान सही नहीं रहा। गैलप ने 1936 में लोगों की राय के आधार पर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों का अनुमान लगाना शुरू किया था। वहां कई अन्य राष्ट्रपति चुनावों में भी सर्वेक्षण गलत साबित हो चुके हैं।
जब सर्वेक्षण लगातार गलत होते हैं तो उन्हें करने वालों पर तंज कसे जाते हैं और उनकी विश्वसनीयता एवं समझ-बूझ पर सवाल खड़े किए जाते हैं। सर्वेक्षण में लिए गए नमूनों में खामी होने और अनुमान लगाने की गलत विधि अपनाने के आरोप भी लगते हैं। कभी-कभी तो उन पर फर्जीवाड़े का आरोप भी लग जाता है। मगर उन्हें फर्जी सर्वेक्षण के लिए लुभाने वाले कारण ठीक नहीं लगते। बेहतर नतीजे का पूर्वानुमान किसी भी पार्टी के कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता है और चुनाव अभियान में भी ऊर्जा आ जाती है। इससे प्रभावित होकर लोग भी संभावित विजेता के पक्ष में वोट डाल सकते हैं क्योंकि कोई भी अपना वोट उसे देकर बरबाद नहीं करना चाहता, जिसका हारना तय लग रहा हो। मगर यह भी सच है कि सर्वेक्षणकर्ता इस व्यवसाय में लंबे समय तक टिकने और काम बढ़ाने की ख्वाहिश रखता है। इसलिए वे खास तौर पर मतदान की तारीख के आसपास गलत पूर्वानुमान देकर अपनी साख दांव पर लगाना नहीं चाहेंगे।
फर्जी एग्जिट पोल के पीछे कोई ढंग की मंशा तलाश पाना तो और भी मुश्किल लगता है। एग्जिट पोल के पूर्वानुमान में किसी भी तरह की चूक 72 घंटे के भीतर सामने आ जाती है क्योंकि उस समय तक वोटों की गिनती शुरू हो जाती है। इसकी एक ही वजह हो सकती है और वह है शेयर बाजार को प्रभावित करना। मिसाल के तौर पर बाजार के अनुकूल रुख वाली पार्टी के जीतने की संभावना हो तो दूसरी पार्टी के पक्ष में अनुमान जता दीजिए। शेयर गिर जाएंगे और असली नतीजे आने से पहले सस्ते शेयर खरीदने का मौका मिल जाएगा। नतीजे आने पर बाजार उफनेगा तब ये शेयर बेचकर तगड़ी कमाई कर लीजिए। मगर यह पैंतरा भी एक या दो बार ही आजमाया जा सकता है क्योंकि इसमें पकड़े जाने का डर रहता है।
पिछले कुछ सालों में जनमत सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल को गलत अनुमान लगाने से रोकने के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं, जिनमें उन पर पूरी तरह रोक लगाना या कड़े कायदे बनाना शामिल है। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी जैसे कुछ ‘संदिग्ध’ सर्वेक्षणों के अंदेशे से तो इनकार नहीं किया जा सकता मगर हमें संविधान में मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए और भरोसा रखना चाहिए कि सर्वेक्षण देखने वाले अपनी समझदारी से दूध का दूध और पानी का पानी कर लेंगे।
कुछ नियम बनाए जा सकते हैं मसलन सर्वेक्षण करने वाली संस्था के मालिक, पते-ठिकाने, अनुभव आदि की जानकारी मांगी जा सकती है। उसके बाद हमें इंतजार करना चाहिए ताकि सर्वेक्षण करने वाले काम करने का तरीका सुधारें, मत प्रतिशत का अनुमान लगाने में चूक कम करें और उसके बाद मत प्रतिशत को सटीक ढंग से सीटों में तब्दील करें। चुनाव की भविष्यवाणी करने की यह कला, यह विज्ञान भारत में अभी नया है। राजनीति विज्ञान, सांख्यिकी और नमूने इकट्ठे करने में माहिर लोगों के योगदान से यह समय के साथ मंझता जाएगा।
(लेखक अर्थशास्त्री और पश्चिम बंगाल विधान सभा के सदस्य हैं)