क्या लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) बिहार में भारतीय जनता पार्टी का गुप्त हथियार साबित हो सकती है? भाजपा के राज्य स्तरीय नेतृत्व में चुनाव की घोषणा होने के काफी पहले से इस फॉर्मूले पर चर्चा होती रही है कि केंद्रीय गृह मंत्री एवं पार्टी संसदीय दल के सदस्य अमित शाह यह ऐलान कर चुके हैं कि मौजूदा मुख्यमंत्री एवं जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के प्रमुख नीतीश कुमार ही नई सरकार का नेतृत्व करेंगे। दूसरे शब्दों में, बिहार भाजपा के नेताओं की अगले मुख्यमंत्री के चयन में कोई भूमिका नहीं रहने वाली है। चाहे वे पसंद करें या न करें, बहुमत मिलने के बाद नीतीश को ही उनके गले मढ़ा जाएगा।
केंद्रीय मंत्री एवं बिहार के आरा से सांसद आर के सिंह ने कुछ दिन पहले कहा था, ‘भाजपा बिहार में अपने दम पर भी सरकार बना सकती है लेकिन इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जदयू के साथ हमारा गठजोड़ 1996 में बना था और यह एक पुरानी साझेदारी है। ऐसे में सवाल उठता है कि हमें एक पुराना गठजोड़ क्यों छोडऩा चाहिए? हम यह गठबंधन नहीं तोडऩे जा रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही हम अकेले लडऩे और अकेले ही सरकार बनाने की स्थिति में भी हैं। इसे लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए।’
भाजपा में एक तबका ऐसा है जिसका मानना है कि जदयू के साथ रहने से भाजपा की विश्वसनीयता पर असर पड़ा है और इसने भाजपा के विस्तार को रोका भी है। कोविड-19 महामारी के दौर में बिहार के प्रवासी मजदूरों के मौजूदा प्रबंधन में नीतीश सरकार के तरीकों को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं ने खुलकर आलोचना भी की है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल जैसे वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारी ने भी महामारी के दौरान राज्य सरकार के कामकाज को लेकर तीखी आलोचना की लेकिन कुछ देर बाद अपनी फेसबुक टिप्पणी को हटा भी दिया। ऐसे हमलों के आदी हो चुके नीतीश ने इस दौर में भी अपना आपा नहीं खोया है। उन्हें भी मालूम है कि भाजपा के पास कोई और विकल्प नहीं है। नीतीश ने वर्षों की मेहनत से अधिकांश पिछड़ी जातियों को गोलबंद कर जो जातिगत समीकरण तैयार किया है, वह भाजपा को चुनाव में जरूरी बढ़त मुहैया कराएगा। आखिर पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश के भाजपा से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) एवं कांग्रेस गठजोड़ के साथ चले जाने से भाजपा सत्ता से दूर हो गई थी। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा को बिहार में अब भी अगड़ी जातियों वाली और काफी हद तक शहरी इलाकों तक सीमित पार्टी ही माना जाता है। वह नित्यानंद राय (यादव) जैसे नेताओं को आगे कर अपनी छवि बदलने की कोशिश करती रही है लेकिन उससे खास फायदा नहीं हुआ है। लेकिन पासी एवं पासवान जैसी दलित जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली लोजपा के अब अलग होकर जदयू के खिलाफ सभी सीटों पर चुनाव लडऩे के ऐलान से शायद भाजपा बिहार में नीतीश के दबदबे को चुनौती देने की स्थिति में आ सकती है। वैसे काफी कुछ अगले कुछ हफ्तों में आने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा।
लोजपा के पास पासवान समुदाय के रूप में एक समर्पित एवं प्रतिबद्ध मतदाता आधार है। वैसे बिहार की कुल आबादी में इसका अनुपात महज 4-6 फीसदी ही है। वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में लोजपा ने भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था और 6.75 फीसदी मत एवं सिर्फ तीन सीटें हासिल कर पाई थी। वहीं 2015 के चुनाव में इसका मत प्रतिशत गिरकर 4.8 फीसदी रह गया था और सीटें भी सिर्फ दो ही मिली थीं।
लेकिन अब लोजपा ने खुलकर कहा है कि वह पूरे राज्य में जदयू के खिलाफ हर सीट पर उम्मीदवार खड़े करेगी और कुल 143 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। भाजपा एवं जदयू गठजोड़ से जाति-आधारित कुछ अन्य छोटी पार्टियों के भी अलग होने के बाद लोजपा इस चुनाव में जदयू की चुनावी संभावनाओं को ही बिगाडऩे का काम करेगी, भाजपा की नहीं।
इस तरह रामविलास की लोजपा या कुछ अन्य दलों के गठबंधन से बाहर जाने से भाजपा को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। अपने पिता के अस्पताल में भर्ती होने से इस बार लोजपा का कामकाज संभाल रहे चिराग पासवान के लिए मौजूदा रुख अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश के बरक्स खुद को दलितों के संभावित नेता के रूप में पेश करने का मौका दे सकता है। निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि मतदाता इस कदम को किस तरह लेंगे। लेकिन बिहार में वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि भाजपा ने चिराग के साथ छल किया है। वह गठबंधन में रहते हुए 40 सीटें मांग रहे थे लेकिन भाजपा ने उनके दावे को सिरे से नकार दिया और उनके सामने गठबंधन के दूसरे साझेदार जदयू को चुनौती देने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा। भाजपा के कुछ आंबेडकरवादी नेता मसलन संजय पासवान इन घटनाओं पर बड़ी बारीकी से नजर रखे हुए हैं। अगर चिराग पासवान की अगुआई में लोजपा अच्छे नतीजे हासिल करने में सफल रहती है तो यह युवा नेता आने वाले समय में एक मजबूत जातिगत चुनौतीकर्ता और भाजपा के एक स्थायी सहयोगी के तौर पर उभरकर सामने आ सकता है। हालांकि इसका यह मतलब भी है कि खुद भाजपा के भीतर कभी भी एक स्वतंत्र दलित आधार नहीं विकसित हो पाएगा।
बहरहाल इस वक्त तो सभी राजनीतिक प्रेक्षक इस बात पर एकमत हैं कि लोजपा का अलग चुनाव लडऩा असल में नीतीश की ताकत कम करने के लिए भाजपा की ही एक चाल है। इसका आने वाले दिनों में भाजपा और जदयू के रिश्तों पर साया पडऩे से इनकार नहीं किया जा सकता है।
