हिंडनबर्ग रिसर्च ने शॉर्ट सेलिंग के माध्यम से अदाणी समूह पर जो हमला किया उसका एक अनचाहा लेकिन अच्छा परिणाम भावी ‘राष्ट्रीय चैंपियंस’ (बड़े कारोबारी समूह जिनकी योजना सरकारी योजना और प्रोत्साहन के अनुरूप भारी भरकम निवेश करने की है) के लिए यह हुआ है कि वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के क्रम में अत्यधिक ऋण लेने के खतरों के प्रति सचेत हुए हैं।
हिंडनबर्ग के निशाने पर रहे कारोबारी गौतम अदाणी बीते कुछ सप्ताहों के दौरान तेजी से कर्ज चुकाकर अपने समूह के आत्मविश्वास को बहाल करने की कोशिश में लगे हैं। वेदांत समूह के अनिल अग्रवाल भी मध्यम अवधि में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज चुकता करके ऋण शून्य स्थिति प्राप्त करने की बात कर रहे हैं।
मुकेश अंबानी ने तीन साल पहले लगातार इक्विटी सौदों की मदद से 1.6 लाख करोड़ रुपये का कर्ज चुकाकर ऐसा ही किया था। परंतु अदाणी का कर्ज बहुत अधिक यानी लगभग 3.39 लाख करोड़ रुपये का है, हालांकि वह खुद इस आंकड़े को काफी कम बताते हैं।
ऋण से जल्दी निजात पाना आसान नहीं है। अग्रवाल ने हाल ही में अपने नियंत्रण वाली दो जिंक उत्पादक कंपनियों के विलय का प्रयास किया जिसे सरकार ने रोक दिया। सरकार की इनमें से एक कंपनी में अल्पांश हिस्सेदारी थी।
अदाणी ने शेयरों का वचन देकर कर्ज चुकता करने की बात कही थी लेकिन कर्जधारक अतिरिक्त शेयरों की मांग कर रहे हैं क्योंकि अदाणी समूह के शेयरों की कीमतें गिरी हैं। इससे एक ऑस्ट्रेलियाई समूह के द्वितीयक बाजार निवेश ने उसके शेयरों की कीमत बढ़ा दी है।
जाहिर है इस समय बाजार में डेट की जगह इक्विटी ने ले ली है। इसका परिणाम कर्ज चुकाने की बढ़ी हुई लागत के रूप में सामने आ सकता है क्योंकि केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरों में इजाफा किया है। इसके साथ ही बॉन्ड धारकों की जोखिम को लेकर बढ़ी हुई जागरूकता के कारण भुगतान का समय करीब आते ही रोल ओवर (किसी वित्तीय व्यवस्था को विस्तारित करना) मुश्किल हो जाता है। इसके बाद प्रतिष्ठा का भी मसला है।
कर्ज अदायगी से क्रेडिट रेटिंग में गिरावट रुक सकती है। वैश्विक बाजार कारोबारी नहीं चाहते कि उनके पास जो निवेश पत्र हैं उनमें 30 फीसदी या इससे अधिक की गिरावट आए। ऐसा होने के कारण कम से कम तीन अंतरराष्ट्रीय बैंकों ने कहा कि वे अदाणी समूह के प्रपत्र स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन प्रतिष्ठा का मसला यहीं तक सीमित नहीं है। इसका आभास अदाणी को तब हुआ जब फ्रांस की दिग्गज ऊर्जा कंपनी टोटाल ने प्रस्तावित संयुक्त उपक्रम से दूरी बना ली।
कई लोग यह भी याद करेंगे कि कैसे महत्त्वाकांक्षी, कर्ज लेने को आतुर कारोबारियों की एक पुरानी पीढ़ी ने भारी भरकम परियोजनाएं शुरू कर दी थीं जिनका कर्ज बेतहाशा बढ़ गया था और बाजार की हकीकत बदलने के साथ ही वे कारोबारी भी डूब गए थे।
व्यापक अर्थव्यवस्था को इसकी कीमत चुकानी पड़ी क्योंकि बैंकों की बैलेंस शीट पर भी इसका असर पड़ा और वित्तीय क्षेत्र आधे दशक तक बुरी तरह प्रभावित रहा। इस बार उस घटना का दोहराव होने के पहले ही लगाम लगा दी गई। भले ही हिंडनबर्ग के सभी आरोप सही नहीं हों लेकिन इस बात के लिए उसका शुक्रगुजार रहना चाहिए कि उसने वक्त रहते एक किस्म की चेतावनी दी।
ऐसे में सवाल यह है कि बड़ी परियोजनाओं की फंडिंग कैसे होगी। भारत की हरित ऊर्जा, सेमी कंडक्टर, दूरसंचार, रक्षा और परिवहन अधोसंरचना संबंधी महत्त्वाकांक्षाएं इन्हीं चुनिंदा बड़ी कंपनियों पर निर्भर हैं। रिलायंस और टाटा समूह दोनों के पास पर्याप्त नकदी है लेकिन अदाणी को अब अपनी निवेश योजनाओं पर नए सिरे से विचार करना होगा।
हिंडनबर्ग मामले के बाद अदाणी समूह पहले की कुछ निवेश योजनाओं को ठप कर चुका है। अब यह देखना होगा कि क्या वेदांत समूह जिसने सेमी कंडक्टर परियोजना के लिए फॉक्सकॉन के साथ समझौता किया है, उसे अभी अपनी कुछ योजनाओं को इसी तरह बंद करना पड़ेगा? जेएसडब्ल्यू समूह की बात करें तो उसका कर्ज करीब एक लाख करोड़ रुपये है। इसे प्रबंधनयोग्य माना जा रहा है लेकिन उसके पास भी और अधिक कर्ज की गुंजाइश नहीं है।
इससे संकेत मिलता है कि भारत को बड़ी कंपनियों का एक व्यापक आधार चाहिए। कई कंपनियों ने अपने कर्ज-इक्विटी अनुपात में हाल के वर्षों में सुधार किया है लेकिन क्या वे इतनी बड़ी हैं कि भारी-भरकम परियोजनाओं को संभाल पाएं?
अगर नहीं तो सरकार को इसके लिए सरकारी क्षेत्र पर ही भरोसा करना होगा। यहां मुश्किल यह है कि बजट के जरिये दिया गया पूंजी निवेश पहले ही बहुत अधिक है और अगर सरकार आगे और मदद करती है तो राजकोषीय गणित का बिगड़ना तय है। आखिर में कुछ योजनाओं पर पुनर्विचार करना ही होगा।