अब यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि चीन दुनिया में सबसे बड़ी विनिर्माण एवं व्यापारिक शक्ति बन चुका है। चीन 1 लाख करोड़ डॉलर से अधिक व्यापार अधिशेष (ऐसी स्थिति जब कोई देश आयात से अधिक निर्यात करता है) की स्थिति में है, जो एक बेमिसाल आंकड़ा है। कोविड महामारी के बाद यह आंकड़ा तीन गुना हो चुका है। चीन अमेरिका के साथ 300 अरब डॉलर, यूरोपीय संघ (ईयू) के साथ 200 अरब डॉलर और तेजी से उभरती एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (ग्लोबल साउथ) के साथ 500 अरब डॉलर से अधिक व्यापार अधिशेष की स्थिति में है। केवल ताइवान और दक्षिण कोरिया (जहां से यह चिप और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का अधिक आयात करता है) और ऑस्ट्रेलिया (जिंसों का आयात) को चीन निर्यात की तुलना में वहां से आयात अधिक करता है।
दुनिया में विनिर्माण के एक बड़े केंद्र के रूप में वैश्विक विनिर्माण मूल्य संवर्द्धन (एमवीए) में चीन की हिस्सेदारी 32 फीसदी है और उसके बाद अमेरिका 15 फीसदी के साथ दूसरे स्थान पर है। जापान और जर्मनी की हिस्सेदारी केवल क्रमशः 6.5 फीसदी और 4.5 फीसदी ही है। चीन का दबदबा इतना अधिक है कि इसका विनिर्माण क्षेत्र इसके निकटतम प्रतिस्पर्द्धी के मुकाबले दोगुना है। चीन ने यह ताकत मात्र पिछले 30 वर्षों में हासिल की है। वर्ष 1995 में वैश्विक एमवीए में चीन की हिस्सेदारी 5 फीसदी से भी कम थी और यह अमेरिका, जापान और जर्मनी से पीछे चल रहा था। चीन उच्च एवं बुनियादी विनिर्माण दोनों ही खंडों में विशेष दबदबा रखता है। इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) बैटरी, बिजली के उपकरण और सौर पैनलों के विनिर्माण में इसकी हिस्सेदारी 65 फीसदी और परिधान एवं मूलभूत सामग्री में इसकी हिस्सेदारी 50 फीसदी है। चीन के विनिर्माण क्षेत्र का आकार भारत के मुकाबले 10 गुना है।
चीन की आर्थिक वृद्धि एवं संपन्नता में निर्यात का अहम योगदान रहा है। मगर वैश्विक विनिर्माण और उपभोग इन दोनों में इसकी हिस्सेदारी में काफी फर्क दिखता है। वैश्विक विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी 32 फीसदी है लेकिन वैश्विक उपभोग में इसका हिस्सा मात्र 12 फीसदी (स्रोतः डीबी, विश्व बैंक) है। ढांचागत स्तर पर यह उपभोग से कहीं अधिक उत्पादन करता है और वस्तुओं के निर्यात पर काफी हद तक निर्भर रहता है।
हालांकि, डॉनल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका में वैश्विक व्यापार और वैश्वीकरण पर नए सिरे से विमर्श शुरू हो गया है। अमेरिका और पश्चिमी देश राष्ट्रीय सुरक्षा और आपूर्ति व्यवस्था के टिकाऊपन के लिहाज से अपनी प्रतिस्पर्द्धी क्षमता कमजोर होने को गंभीरता से ले रहे हैं। प्रतिस्पर्द्धी क्षमता कमजोर होने से अमेरिका एवं पश्चिमी देशों में असमानता भी बढ़ी है और मध्य वर्ग को चोट पहुंची है। अमेरिका में विनिर्माण क्षेत्र में इसके श्रम बल का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा काम कर रहा है।
औद्योगिक क्रियाकलापों में कमी और अधिक वेतन वाली नौकरियों में कमी को लेकर भी चिंता जताई जा रही है। एक ओर जहां पिछले आठ वर्षों से यह भावना मजबूत होती जा रही है, वहीं चीन इसके जवाब में दूसरे देशों के जरिये अमेरिका एवं पश्चिमी देशों को अपना निर्यात बढ़ाता जा रहा है। अगर आप आंकड़े खंगालें तो पिछले चार वर्षों के दौरान अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ चीन का व्यापार अधिशेष वास्तव में अधिक नहीं बढ़ा है मगर तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ यह 300 अरब डॉलर से बढ़कर 500 अरब डॉलर तक पहुंच गया है।
व्यापार अधिशेष में तेजी का कारण तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में चीन की वस्तुओं की मांग में अचानक तेजी नहीं है बल्कि इन देशों के जरिये पश्चिमी देशों को चीन की वस्तुओं का निर्यात इसका मूल कारण रहा है। ऐसा दिख भी रहा है क्योंकि विकासशील एवं तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ चीन के व्यापार अधिशेष में जितना इजाफा हुआ है उतनी ही मात्रा में अमेरिका के साथ इन देशों का व्यापार अधिशेष भी बढ़ा है।
अब ऐसा लगने लगा है कि पश्चिमी देश दूसरे देशों से चीन की वस्तुओं के निर्यात को रोकने का मन बना चुके हैं। उदाहरण के लिए पश्चिमी देश मेक्सिको पर दबाव बना रहे हैं कि वह चीन पर शुल्क बढ़ाए एवं अन्य व्यापार अंकुश लगाए। यूरोपीय संघ भी इसमें साथ हो गया है और वह चीन के ईवी पर शुल्क लगा रहा है। शुल्कों का यह खेल अब समाप्त होने वाला है।
मगर इस बीच एक बड़ा सवाल भी खड़ा होता है। अगर चीन के उत्पादों का पश्चिमी देशों के बाजार में पहुंचना बंद हो जाएगा तो वे कहां जाएंगे? चीन तो इन उत्पादों का उत्पादन बंद नहीं करेगा। यह उसकी अर्थव्यवस्था के लिए घातक होगा और अपस्फीति का जोखिम बढ़ जाएगा। विनिर्माण क्षेत्र में चीन के श्रम बल का 22 फीसदी से अधिक हिस्सा लगा हुआ है और यह क्षेत्र चीन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 26 फीसदी से अधिक योगदान देता है। यह उसकी अर्थव्यवस्था का भारी भरकम हिस्सा है।
यह भी तय है कि चीन अकेले तो इन उत्पादों का उपभोग नहीं कर पाएगा। चीन में खपत बढ़ेगी तब भी इतने भारी भरकम व्यापार अधिशेष में कमी नहीं ला पाएगी। वहां फिलहाल घरेलू बचत दर 32 फीसदी की दर के साथ दीर्घ अवधि के औसत से थोड़ी अधिक है और अगर यह सामान्य स्थिति में आ जाती है तो भी घरेलू उपभोग अतिरिक्त उत्पादन को संतुलित नहीं कर पाएगा। चीन के घरेलू बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा है जिसे देखते हुए निर्यातक अपने उत्पादों का निर्यात ही करने पर जोर देते हैं क्योंकि ऐसा करना उनके लिए अधिक फायदेमंद हैं।
लिहाजा चीन की अधिकांश कंपनियों के लिए निर्यात प्राथमिकता रहेगी और वे पूरी क्षमता के साथ उत्पादन में इजाफा करती रहेंगी।
आखिर ये उत्पाद फिर किन बाजारों में जाएंगे? इस स्थिति का स्पष्ट उत्तर यह है कि चीन से ये उत्पाद भारत जैसे विकासशील एवं तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में धकेले जाएंगे। ये देश वैश्विक उपभोग में 20 फीसदी से अधिक योगदान देते हैं और इन्हीं देशों में नया मध्य वर्ग भी पांव पसार रहा है। चीन इन्हीं देशों में अपने उत्पाद बेचने की कोशिश करेगा मगर इस बार पश्चिमी देशों को निर्यात करने के लिए नहीं बल्कि वहां के स्थानीय बाजारों में उपभोग से जुड़ी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए।
चीन अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी क्षमता वाला देश है और गुणवत्ता एवं तकनीक दोनों ही मामलों में मूल्य श्रृंखला में मजबूती से पांव टिका चुका है। इसका आकार इतना बढ़ चुका है कि उसका मुकाबला करना कठिन है। पश्चिमी देश चीन से परिधान या रसायन जैसी बुनियादी वस्तुओं का निर्यात बंद नहीं करेंगे क्योंकि उन देशों में कम लागत पर इन उत्पादों का विनिर्माण नहीं हो पाएगा। पश्चिमी देशों की नजर उच्च मूल्य वर्द्धित वस्तुओं एवं परिष्कृत उत्पादों पर रोक लगाने पर होगी जो पश्चिमी देशों के बाकी बचे उद्योग-धंधों के लिए खतरा हैं।
भारत सहित इन विकासशील देशों के लिए जोखिम यह है कि चीन में तैयार उत्पाद उनके बाजारों में आने से वे अपना औद्योगिक ताना-बाना सुरक्षित रखने और आकार एवं दक्षता बढ़ाने के लिए संघर्ष करेंगें। इस खतरे की आशंका अधिक है कि चीन इन देशों में स्थानीय औद्योगिक आधार को कमजोर कर देगा जिससे वे आकार, लागत एवं तकनीक के मोर्चे पर चीन की औद्योगिक ताकत का मुकाबला नहीं कर पाएंगे।
चीन के साथ भारत 100 अरब डॉलर से अधिक व्यापार घाटे का सामना कर रहा है। हम वे कई परिष्कृत औद्योगिक उत्पाद मंगाते हैं जिनमें चीन निर्यात बढ़ाने के मौके तलाशता रहता है। पश्चिमी देशों में इन उत्पादों के नहीं पहुंचने से चीन आखिरकार भारत जैसे देशों में ही उन्हें धकेलेगा। ऐसी उत्पाद चीन के कुल व्यापार अधिशेष का 10 फीसदी हैं और यूरोपीय संघ के साथ उसके व्यापार अधिशेष में आधी हिस्सेदारी रखते हैं! हमें काफी सतर्क रहना होगा ताकि यह आंकड़ा और बढ़ने न पाए।
पश्चिमी देशों का रुख सख्त होने के बाद चीन के पास अपने उत्पादों को भारत सहित विकासशील एवं तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में खपाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। अगर भारत के उद्योग-धंधे चीन से आयात बढ़ने से कमजोर होंगे तो औद्योगिक गतिविधियां सुस्त पड़ जाएंगी और रोजगार सृजन में कमी विकराल रूप ले लेगी। भारत में निजी क्षेत्र इसलिए भी पूंजीगत व्यय नहीं बढ़ा रहा है क्योंकि उसे डर है कि चीन से आने वाले उत्पाद सारी मेहनत पर पानी फेर देंगे। भारत सरकार इन जोखिमों को अच्छी तरह समझ रही है मगर सरकारी तंत्र अब भी प्रतिक्रिया दिखाने में तेज-तर्रार नहीं दिख रहा है। दूसरे देशों से सस्ता आयात रोकने (एंटी-डंपिंग) के कदम उठाने में काफी वक्त लग जाता है और शुल्कों से इतर दूसरे उपाय करने में नीतिगत स्तर पर हमारे कदम चुस्त-दुरुस्त नहीं दिखाई देते हैं।
भारत विकासशील देशों के समूह में सबसे बड़ा बाजार है और यह चीन को अपनी तरफ काफी खींच भी रहा है। इसका कारण यह है कि भारत में परिष्कृत एवं मूल्यवान वस्तुओं की मांग बढ़ गई है और चीन इन्हें बनाने में माहिर है। भारत कई उत्पाद तैयार करने के मामले में भविष्य में चीन का एक मात्र संभावित प्रतिस्पर्द्धी देश होगा। हमें चीन से आने वाली वस्तुओं से निपटने की रणनीति तैयार करने और बेहतरीन एवं उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार करने के लिए अपने उद्योग को थोड़ा समय देना होगा। कारक बाजार (भूमि, श्रम, पूंजी आदि) दुरुस्त करने और नियामकीय रोड़े दूर कर अपनी व्यवस्था चाक-चौबंद करने के लिए भारत के पास अब अधिक समय नहीं है। विनिर्माण में अपना वजूद बढ़ाकर ही भारत रोजगार के पर्याप्त अवसर तैयार कर सकता है। अगर हम चीन को बेरोक-टोक अपने बाजार तक पहुंचने देते हैं और ढांचागत लागत खामियां दूर नहीं कर पाते हैं तो विनिर्माण में आगे निकलना या रोजगार बढ़ाना संभव नहीं हो पाएगा।
चीन का विनिर्माण तंत्र काफी व्यापक एवं तगड़ा है। एक लाख करोड़ डॉलर के व्यापार अधिशेष के साथ इसके आकार एवं प्रतिस्पर्द्धा करने की इसकी क्षमता का कोई मुकाबला नहीं है। दुनिया के देश औद्योगिक गतिविधियों में कमी आने से रोकने और आपूर्ति व्यवस्था सुरक्षित रखने के लिए जरूरी उपाय कर रहे हैं और भारत को भी ऐसा ही करना होगा क्योंकि उसके पास भी कोई विकल्प नहीं है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)