करीब सात दशक पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार ने तीन प्रमुख संस्थानों का राष्ट्रीयकरण किया था। उनमें से एक भारतीय स्टेट बैंक इस महीने अपने पुनर्जन्म यानी राष्ट्रीयकरण की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है और दूसरे भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के राष्ट्रीयकरण के 70 वर्ष 2026 में पूरे हो जाएंगे। तीसरे संस्थान के राष्ट्रीयकरण की 70वीं वर्षगांठ दो साल पहले ही हो जाती मगर हो नहीं सकी क्योंकि उससे एक साल पहले ही उसका निजीकरण कर दिया गया। वह संस्थान है एयर इंडिया।
इन तीनों उपक्रमों का सात दशकों का सफर एक दूसरे से अलग रहा और हमें बताता है कि आर्थिक संस्थानों के स्वामित्व के बारे में देश की सरकारों का रुख कैसा रहा है और उनके स्वामित्व का भविष्य कैसे तय होता है। इसके प्रमुख कारकों पर नजर डालते हैं।
Also Read: बैंकिंग साख: डिजिटल भुगतान- UPI, AePS और PPI से मिल रहा आर्थिक सशक्तिकरण को बल
तीनों संस्थानों में एक जैसी बात यह है कि तीनों सेवा क्षेत्र से ताल्लुक रखते थे। एक विमानन सेवा दे रहा था, दूसरा बैंकिंग और तीसरा जीवन बीमा की सेवा। लोगों की जिंदगी पर इनका जैसा असर होता है, वैसा कई बड़ी औद्योगिक और विनिर्माण कंपनियों का भी नहीं होता। इनके स्वामित्व पर सरकार का रुख शायद इसी समझ के कारण था। नेहरू के राष्ट्रीयकरण में सेवा क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों पर ज्यादा जोर दिया गया था, जबकि उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों और सामान्य बीमा कंपनियों के साथ कपड़े और कोयले जैसे औद्योगिक एवं खनन क्षेत्र की कंपनियों का भी राष्ट्रीयकरण किया।
अतीत में झांकें तो इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण करने और उसका नाम बदलकर भारतीय स्टेट बैंक करने की रणनीति कारगर रही। पिछले सात दशक में स्टेट बैंक मजबूत होता गया है और देश का सबसे बड़ा वाणिज्यिक बैंक भी बना रहा है। राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखें तो स्टेट बैंक ने कई मुश्किलों से निपटने और प्रशासन के लक्ष्य हासिल करने में सरकारों की मदद की है। उसने 1962 में चीन के साथ युद्ध के समय विशेष योजना के जरिये कर्ज की जरूरत पूरी की, मई 1991 में भारत को 24 करोड़ डॉलर दिलाने के लिए 20 टन जब्त सोना एक स्विस बैंक में पहुंचाया, उसी साल देश को घोर भुगतान संकट से बचाने के लिए इंडिया डेवलपमेंट बॉन्ड योजना से 1.6 अरब डॉलर जुटाए और सरकार का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने के लिए 1998 में रीसर्जेंट इंडिया बॉन्ड योजना लाकर प्रवासी भारतीयों से 4.2 अरब डॉलर भी जुटाए।
Also Read: Glenmark Pharma की सहायक कंपनी IGI ने AbbVie से किया सौदा, कैंसर की दवा का मिला लाइसेंस
उसने जन धन खातों की मदद से देश की वित्तीय समावेशन योजना को भी बढ़ावा दिया। 2018 में जब सरकार ने राजनीतिक दलों को गुप्त चंदा देने की विवादास्पद चुनावी बॉन्ड योजना शुरू की तो उसे चलाने का जिम्मा भी स्टेट बैंक को ही सौंपा गया। 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने योजना को असंवैधानिक करार दे दिया।
स्टेट बैंक के संचालन ढांचे पर भी सवाल उठे। इसमें बहुलांश हिस्सेदारी वाली सरकार को क्या मुख्य कार्यकारी अधिकारी सहित बैंक के शीर्ष प्रबंधन की नियुक्ति में अहम भूमिका निभानी चाहिए? या नियामक भारतीय रिजर्व बैंक को उसके साथ भी दूसरे बैंकों की तरह बरताव करने देना चाहिए? सरकार और नियामक के बीच इस पर विवाद चलता रहा है।
स्टेट बैंक की 57 फीसदी हिस्सेदारी सरकार और बाकी जनता के पास है, इसलिए इसके निजीकरण या और विनिवेश के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया। देश का शीर्ष बैंक होने के नाते इसे अहम संपत्ति माना जाता है और सभी सरकारों ने इसे सरकारी उपक्रम रहने दिया है। इसमें शायद ही किसी को शक हो कि स्टेट बैंक के स्वामित्व का ढांचा ऐसे ही रहेगा।
देश की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी एलआईसी के राष्ट्रीयकरण को जनवरी 2026 में 70 साल पूरे हो जाएंगे। नेहरू सरकार ने 1956 में एक अध्यादेश लाकर 245 भारतीय और विदेशी बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और सभी को मिलाकर एक कंपनी एलआईसी बना दी। सरकार ने यह कहकर फैसले को सही ठहराया कि इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार बहुत था और लोगों को जीवन बीमा देना मुश्किल हो रहा था।
Also Read: TCS ने वेतन बढ़ोतरी पर नहीं लिया फैसला, आर्थिक अनिश्चितता और डील में देरी बनी वजह
तत्कालीन वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने आकाशवाणी पर घोषणा के जरिये लोगों को बीमा उद्योग के राष्ट्रीयकरण और एलआईसी के गठन की जानकारी दी। 1999 में निजी कंपनियों को जीवन बीमा क्षेत्र में प्रवेश दिया गया मगर उससे पहले करीब 40 साल तक एलआईसी का ही इस पर एकाधिकार रहा। निजी कंपनियों के आने के बाद भी एलआईसी अव्वल नंबर की बीमा कंपनी बनी हुई है।
सरकार ने 2022 में आरंभिक सार्वजनिक निर्गम लाकर एलआईसी की 3.5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया। उसके पास 20 फीसदी तक हिस्सेदारी विदेशी निवेशकों को बेचने का अधिकार है मगर अब तक इस में से 0.5 फीसदी भी नहीं बेची गई है। सरकार के पास अगले कुछ साल में अपनी हिस्सेदारी 96.5 फीसदी से घटाकर 50 फीसदी पर लाने की गुंजाइश है मगर विनिवेश पर ठंडी प्रतिक्रिया और सरकारी संसाधनों की हालत देखते हुए ऐसा होना मुश्किल ही लग रहा है।
एलआईसी मुनाफे में है और देश में जीवन बीमा पॉलिसियों के पहले साल आने वाले प्रीमियम में उसकी 57 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी है। सभी निजी बीमा कंपनियों का पहले साल का प्रीमियम मिला लें तो भी एलआईसी से कम होगा। परंतु स्टेट बैंक की ही तरह सरकार ने एलआईसी का इस्तेमाल भी अपने लिए किया है जैसे चाहे गिरते बाजार को संभालना या कंपनियों को जबरिया अधिग्रहण के खतरे से बचाने के लिए उनमें हिस्सेदारी खरीदना। आने वाले सालों में सरकार चरणबद्ध तरीके से एलआईसी में हिस्सेदारी कम कर सकती है। परंतु वह बहुलांश हिस्सेदारी अपने पास रखेगी।
टाटा समूह द्वारा 1932 में शुरू की गई एयर इंडिया की कहानी अलग है। जब नेहरू सरकार ने नागर विमानन उद्योग और एयर इंडिया दोनों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया तो कंपनी ने अंतरराष्ट्रीय परिचालन का विस्तार किया। लेकिन उसकी माली हालत कमजोर रही और 1994 में इस क्षेत्र का निजीकरण होने के बाद और भी खस्ता हो गई। 2007 में सरकार ने देश के भीतर उड़ान सेवाएं देने वाली इंडियन एयरलाइंस का विलय एयर इंडिया में कर दिया। कंपनी का घाटा फिर भी बढ़ता रहा और कई नाकाम कोशिशों के बाद 2022 में सरकार ने एयर इंडिया का निजीकरण कर दिया। इसे टाटा समूह ने ही वापस खरीद लिया मगर उसके बाद से कंपनी का सफर हिचकोले खाता रहा है। सरकार राहत की सांस ले सकती है कि उसे अब इस सरकारी कंपनी का घाटा पाटने के लिए जनता का पैसा नहीं लगाना पड़ रहा है।
इन तीन संस्थानों के निजीकरण की कहानी में एक संदेश स्पष्ट है। सरकार को अगर कोई संस्थान अपने पास रखना है तो उसे पक्का करना होगा कि संस्थान मुनाफे में रहे, उसका घाटा सरकारी खजाने से न पाटना पड़े और आर्थिक विकास की सरकारी योजना में अहम भागीदारी करता रहे। जो उपक्रम ऐसा नहीं कर सकते उन्हें सरकारी कंपनी बनाए रखने की कोई तुक नहीं है। सरकार ने 2021 में सार्वजनिक क्षेत्र की जो नीति बनाई थी, उसका सार यही है। इन तीनों संस्थानों के राष्ट्रीयकरण से मिली सीख बताती है कि इस नीति पर चलना बहुत जरूरी है।